काँग्रेस पार्टी की बात ही निराली है। आसमान चाहे फट पर मजाल है कि यह पार्टी अपनी गलतियों से सीख लेकर किसी योग्य व्यक्ति को पार्टी की कमान किसी भी क्षेत्र में सौंपे। गुलाम नबी आजाद द्वारा राज्यसभा का सत्र खत्म होने के पश्चात काँग्रेस ने एक बार फिर पुरानी गलतियाँ दोहराते हुए मल्लिकार्जुन खड़गे को राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर चुना है।
तो इसमें समस्या क्या है? दरअसल मल्लिकार्जुन को इसलिए नेता प्रतिपक्ष नहीं चुना गया क्योंकि वह कोई बहुत योग्य नेता हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि वह गांधी वाड्रा परिवार के बेहद नजदीक है। अपना नाम न उजागर करने की शर्त पे एक वरिष्ठ नेता ने इस निर्णय की असफलता को रेखांकित करते हुए कहा, “काँग्रेस अपने लिए कुछ ज्यादा ही गहरा गड्ढा खोद रही है। दो महीनों में केरल में तीन सीट खाली होने जा रहे हैं। काँग्रेस के नेतृत्व में UDF को इसमें से कम से कम एक सीट मिल सकती थी, परंतु यह भी मुस्लिम लीग को जाएगी। मुस्लिम लीग वाले गुलाम नबी आजाद जैसे नेता के उम्मीदवार होने पर वह सीट छोड़ने को तैयार थे, परंतु हमारे केन्द्रीय नेता इस बात पर मानने को तैयार नहीं थे” –
लेकिन ऐसा निर्णय काँग्रेस ने क्यों लिया? दरअसल काँग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की माने, तो पार्टी हाईकमान, विशेषकर सोनिया गांधी और राहुल गांधी ये कतई नहीं चाहते कि हिन्दी बहुल राज्यों से किसी भी कांग्रेसी नेता को कोई अहम पद मिले, क्योंकि उन्हे भय है कि कहीं ऐसे नेता पार्टी हाईकमान को किनारे कर पार्टी पर कब्जा न जमा ले। बता दें कि गुलाम नबी आज़ाद, कपिल सिब्बल और आनंद शर्मा जैसे 23 नेताओं ने पिछले वर्ष एक पत्र में काँग्रेस पार्टी में अहम बदलाव के लिए वकालत की थी, परंतु उन्हे न सिर्फ अपमानित किया गया, बल्कि काँग्रेस के भावी अध्यक्ष राहुल गांधी ने इन नेताओं को भाजपा का एजेंट ठहराने का भी प्रयास किया।
उधर गांधी वाड्रा परिवार को छोड़कर मल्लिकार्जुन खड़गे का जनाधार काँग्रेस में लगभग न के बराबर है। 2 वर्ष पहले लोकसभा चुनाव 2019 में भी वे काफी भारी मतों से हारे थे, परंतु इसके बावजूद उन्हे नेता प्रतिपक्ष के रूप में चुनकर काँग्रेस हाईकमान ने सिद्ध किया है कि उनके लिए आज भी गांधी वाड्रा परिवार के हित सर्वोपरि है, चाहे पार्टी रसातल में ही क्यों न चली जाए।