विधानसभा चुनाव 2021 में भले ही भाजपा को बंगाल में मनचाहा परिणाम न मिल पाया हो, परंतु बंगाल में उनकी मेहनत व्यर्थ भी नहीं गई है। भाजपा ने कुल 292 विधानसभा सीटों में से 77 सीटों पर विजय प्राप्त की है। वह न केवल अब बंगाल में प्रमुख विपक्ष है, अपितु उन्होंने नक्सलबाड़ी जैसे क्षेत्रों में भी विजय प्राप्त की, जो कभी वामपंथ के अभेद्य दुर्ग रहे थे। लेकिन जिस पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को नाकों चने चबवाएँ हों, उसके लिहाज से ये प्रदर्शन संतोषजनक तो कतई नहीं है।
तो आखिर ऐसा क्या हुआ, कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लाख प्रयासों के बावजूद भाजपा को विपक्ष के पद से ही बंगाल में संतोष करना पड़ा? 2016 के मुकाबले भाजपा ने बंगाल में काफी बेहतर प्रदर्शन किया है। पिछली बार विधानसभा चुनाव में महज 3 सीटों के मुकाबले भाजपा ने 38 प्रतिशत से अधिक वोटों के साथ 77 सीटों पर विजय प्राप्त की।
लेकिन इसके बावजूद भाजपा बंगाल में सरकार बनाने में असफल रही, और तृणमूल कांग्रेस ने लगभग 48 प्रतिशत वोटों के साथ 213 सीटें और लगातार तीसरी बार सत्ता पर कब्जा जमाने में सफलता प्राप्त की। इसके पीछे दो प्रमुख कारण है – अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को बढ़ावा देना और भाजपा द्वारा असम फार्मूला दोहराने में असफल रहना।
ममता बनर्जी लगातार तीन बार से सत्ता प्राप्त करने में इसीलिए सफल हो पाई हैं क्योंकि उन्होंने अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति से कभी समझौता नहीं किया। उलटे ममता ने मुसलमानों का आह्वान किया कि उनका वोट किसी भी स्थिति में बँटने न पाए। ये स्पष्ट तौर पर चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन था, लेकिन ममता के लिए अपना वोट बैंक बचाए रखना सर्वोपरि था।
भाजपा ने क्या किया? यदि कुछ एक सीट छोड़ दें तो भाजपा ने अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की रणनीति का मुकाबला करने के लिए कोई ठोस रणनीति ही नहीं अपनाई। रणनीति तो छोड़िए, यदि भाजपा असम फॉर्मूला को ही दोहराती, तो भी वह तृणमूल काँग्रेस को नाकों चने चबवा सकती थी। असम में मुसलमानों की तादाद कम नहीं है, और नागरिकता संशोधन अधिनियम के कारण भाजपा के विरुद्ध काफी नकारात्मक माहौल बना हुआ था।
परंतु भाजपा ने कट्टर हिन्दुत्व की रणनीति से कोई समझौता न करते हुए कांग्रेस, AIUDF और उसके चमचों को उन्हीं की भाषा में जवाब देते हुए राष्ट्रवाद और घुसपैठिया विरोधी अभियान सर्वोपरि रखा। ये भाजपा के स्पष्ट रणनीति का ही परिणाम था कि विपक्ष के लाख प्रोपगैंडा के बावजूद असम में उनकी दाल नहीं गली और एनडीए 75 सीटों के साथ पुनः सत्ता प्राप्त करने में सफल भी रही। काश यही रणनीति बंगाल के लिए भी यथावत रहती।
ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि बंगाल में इतनी मेहनत के बावजूद भाजपा का सरकार न बना पाने के पीछे का सबसे बड़ा कारण था कि भाजपा ने असम की भांति बंगाल में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का जमकर मुकाबला नहीं किया। यदि शुवेन्दु अधिकारी की रणनीति का अनुसरण पूरे बंगाल में किया जाता, तो आज स्थिति कुछ और होती, और भाजपा इस समय बंगाल के पुनरुत्थान की रणनीति स्थापित कर रही होती।