ब्रह्मा बाबा दादा लेखराज कृपलानी का जन्म हुआ। हिन्दू धर्म के रीति रिवाजों के अनुसार लेखराज का पालन-पोषण हुआ। बहुत छोटी उम्र में अनेकानेक काम करने के बाद उन्होंने हीरे-जवाहरातों का व्यवसाय शुरू किया, जिसमें उन्होंने एक हीरा विक्रेता के रूप में बाद में बहुत नाम कमाया। पांच बच्चों के पिता दादा लेखराज अपने समाज का भी नेतृत्व करते थे। ब्रह्मा बाबा अपने सामाजिक कार्यों के लिए जाने जाते थे। सन 1936 में उम्र के उस पड़ाव में जब सामान्यत: सभी लोग सेवा निवृत्ति की तैयारी करते हैं तब ब्रह्मा बाबा ने वास्तव में अपने जीवन के एक सक्रिय और आकर्षक पड़ाव में प्रवेश किया। गहरी आध्यात्मिक समझ और साक्षात्कारों की श्रृंखला के पश्चात् ब्रह्मा बाबा ने एक सशक्त आकर्षण को महसूस किया और अपने व्यवसाय को समेट कर अपना समय, शक्ति और धन को इस विद्यालय की स्थापना अर्थ खर्च किया, जो बाद में ब्रह्माकुमारीज़ ईश्वरीय विश्व विद्यालय बनाया।
ब्रह्मा बाबा का लोकिक नाम लेखराज था, जिनका जन्म 15 दिसंबर 1884 को सिंध (वर्तमान में पाकिस्तान में) में पिता खुबचंद कृपलानी, एक गाँव के स्कूल में प्रधानाध्यापक के यहाँ हुआ था। बचपन में जब मां का निधन हुआ, तो लेखराज की भक्ति के प्रति रुचि बढ़ी। पिता के गुजर जाने के बाद लेखराज ने अपने चाचा की किराने की दुकान पर काम करना शुरू कर दिया। गाँव छोड़कर वे हीरे की पॉलिश सीखने के लिए बॉम्बे (मुंबई) गए। समय और कड़ी मेहनत के साथ, वे अपनी खुद की आभूषण की दुकानें खोल सकते थे और कलकत्ता (अब कोलकाता) के एक प्रसिद्ध हीरा व्यापारी बन गए।
और पढ़े : खंडोबा मंदिर का रहस्य, इससे जुड़ी कई हैरान करने वाली कहानियां प्रचलित हैं
भारत भर में अनेक ब्रह्माकुमारी सेवाकेन्द्रों के स्थापना में मार्गदर्शन करते हुए 18 जनवरी 1969 को ब्रह्मा बाबा ने अपना भौतिक देह त्याग दिया। मधुबन में स्थित शान्ति स्तम्भ उनके जीवन और कार्यों की एक श्रृद्धांजलि के रूप में स्थापित किया गया जो एक सामान्य मनुष्य से अति सामान्य महानता को प्राप्त करना और जीवन के गहन सत्यों को छूने की चुनौती स्वीकार करने का अद्भुत मिसाल साबित हो रहा है।
सन 1936 में ब्रह्मा बाबा को हुए साक्षात्कारों के बाद अनेकों वर्ष बीत गये, जिस जीवनशैली को ब्रह्मा बाबा ने क्रान्तिकारी रूप से अपने जीवन में अपनाया उससे प्रेरित होकर अनेकों ने अपने आपको सशक्त बनाकर भविष्य के लिए आशा की किरण जगाई। ब्रह्मा बाबा ने जिस जीवन कौशल की शिक्षा दी वो समय की कसौटी पर खरी उतरती गई। जिन युवा बहनों को उन्होंने सबसे आगे रखा था अब वो अपने 80-90 वर्ष की आयु में शान्ति, प्रेम और ज्ञान का प्रकाश स्तम्भ बनकर आगे बढ़ रही हैं।
और पढ़े : Naimisharanya : नैमिषारण्य का सम्पूर्ण इतिहास, मंदिर, कथाएं और महत्व