विधानसभा चुनावों के परिणाम घोषित हो गए हैं और उम्मीद के मुताबिक परिणाम देखने को मिला है। एक तरफ बीजेपी लगातार अपना कद बढ़ा रही है तो वहीं कांग्रेस का सिमटना जारी है। पश्चिम बंगाल हो या असम कांग्रेस अब शुन्य की और अग्रसर है। चुनावों से पहले कांग्रेस के लिए असम में हालात उतने बुरे नहीं थे जितना पश्चिम बंगाल में। बावजूद इसके कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। असम में बीजेपी द्वारा किये गए विकास कार्यो के अलावा देखा जाये तो कांग्रेस की हार के लिए उसकी अपनी रणनीति भी थी जिसके तहत उसने AIUDF के साथ गठबंधन किया था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि दोनों पार्टियों का वोट बैंक एक ही है लेकिन गठबंधन का घाटा कांग्रेस को उठाना पड़ा।
असम विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 95 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे जिसमें से उन्हें सिर्फ 29 में जीत मिली वहीं AIUDF ने 20 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे जिसमें से 16 पर उसे जीत मिली।
देखा जाये तो इस बार के असम विधानसभा चुनाव में एनआरसी, नागरिकता संशोधन क़ानून, चाय श्रमिकों की मज़दूरी, छह जनजातियों के जनजातिकरण से लेकर बेरोज़गारी जैसे कई अहम मुद्दे थे, लेकिन इन के बावजूद बीजेपी ने अपना परचम लहराया और कांग्रेस ने जिसकी उम्मीद कि थी उसके ठीक उल्टा हुआ। कांग्रेस ने सोचा था कि CAA और NRC के मुद्दे से असम में बीजेपी के खिलाफ लहर है, लेकिन यह दांव उसी पर भारी पड़ा। CAA और NRC के मुद्दे से जनता के सामने यह स्पष्ट कर दिया कि कौन सी पार्टियाँ घुसपैठियों के साथ है और कौन असम की संस्कृति के सामने। शायद यही कारण था कि कांग्रेस का AIUDF के साथ गठबंधन करना महंगा पड़ा और जो कांग्रेस के पक्ष में वोट करना चाहते थे उन्होंने भी AIUDF को देख वोट नहीं दिया।
ऊपरी असम की जिन 60-62 सीटों पर बीजेपी को नुक़सान होने का अनुमान लगाया जा रहा था, वहां पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन कर दिखाया। हालांकि बता दें कि CAA का सबसे अधिक विरोध ऊपरी असम में ही हुआ था, लेकिन इसके बाद भी वहां लोगों ने बीजेपी को ही वोट डाला। यानी स्पष्ट है कि लोगों ने CAA के महत्व को समझा और उस पर AIUDF तथा कांग्रेस द्वारा फैलाए जा रहे झूठ को नकारते हुए बीजेपी को चुना।
कांग्रेस के AIUDF से हाथ मिलाने के कारण मतदाताओं में यह भी सन्देश गया कि बीजेपी ही कांग्रेस से बेहतर विकल्प है।
वैसे तो इन चुनावी नतीजों को लेकर राजनीतिक समीक्षक कई अलग-अलग कारण बता रहे हैं, लेकिन इनमें अधिकतर लोगों का यह मानना है कि कांग्रेस के लिए मौलाना बदरुद्दीन अजमल को साथ लेना बहुत महंगा साबित हुआ। AIUDF द्वारा किये गए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की वजह से असम की जनता को कांग्रेस पर भी भरोसा नहीं हुआ जिसका परिणाम हमें देखने को मिल रहा है। असम में बीजेपी की इस जीत पर असम के वरिष्ठ पत्रकार बैकुंठ नाथ गोस्वामी ने बीबीसी से कहा, “इस बार के चुनाव में सीएए-एनआरसी, जनजातिकरण, चाय श्रमिकों की मज़दूरी जैसे मुद्दों को देखते हुए ऐसा लग रहा था कि बीजेपी के लिए इस बार का चुनाव बेहद कठिन होगा, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में जो महागठबंधन बना, उसमें बदरुद्दीन अजमल की पार्टी को साथ लेने से बीजेपी के लिए हिंदू वोटरों को एकजुट करना आसान हो गया। ”
उनका मनना है कि, “बीजेपी नेताओं ने अपनी चुनावी रैलियों में इस गठबंधन को लेकर आक्रामक रवैया अपनाया। लोगों से यह कहा गया कि अगर महागठबंधन की जीत होती है तो बदरुद्दीन अजमल राज्य के मुख्यमंत्री बन जाएँगे और असम में घुसपैठियों का बोलबाला हो जाएगा। राज्य में हर तरफ मस्जिदों का निर्माण किया जाएगा।”
बीजेपी द्वारा असम किये गए विकास कार्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है खास कर हेमंता विस्वा शर्मा के नेतृत्व में। महिलाओं का भी भरपूर साथ मिला जिससे बीजेपी ने दोबारा सरकार में वापसी की है।
असम की राजनीति को लंबे समय से कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार नव कुमार ठाकुरिया का मानना है कि, ” AIUDF के साथ गठबंधन कर कांग्रेस ने केवल इस चुनाव में ही नुक़सान नहीं उठाया है, बल्कि आगे भी पार्टी को नुक़सान उठाना पड़ेगा, क्योंकि कांग्रेस में अब इस बात को लेकर काफी घमासान होने वाला है और हो सकता है कि पार्टी में जो ग़ैर-मुसलमान विधायक और नेता है वो बीजेपी में चले जाएं।” कई वर्षों तक असम में शासन करने वाली कांग्रेस का अब असम से सफाया होने में अधिक वक्त नहीं है और इसकी झलक हमें इस बार के चुनावों में स्पष्ट रूप से देखने को मिली। ऐसे में अगर यह कहा जाये कि 2021 के विधानसभा चुनाव ने राज्य की राजनीति को एक तरह से बदल दिया है, तो यह गलत नहीं होगा।