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मोदी सरकार ने काशी विश्वनाथ के मुख्य परिसर को पुनः प्राप्त करने की नींव रख दी है

vikrantsingh द्वारा vikrantsingh
27 July 2021
in मत
काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट

PC: Organiser

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काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का मामला एक बार फिर से चर्चा का विषय बना हुआ है। इस बार दिलचस्प बात यह है कि, यह चर्चा विवाद के कारण नहीं हो रही है, बल्कि दोनों पक्षों के बीच एक विषय पर हुए सहमति के कारण हो रहा है। दरअसल, बात यह है कि, ज्ञानवापी मस्जिद का संचालन करने वाली समिति ने मस्जिद परिसर के बाहर की ज़मीन का एक टुकड़ा काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट को दे दिया है। इसके बदले समिति को पास का ही एक दूसरा प्लॉट दिया गया है।

ज्ञानवापी मस्जिद समिति ने काशी विश्वनाथ मंदिर ट्रस्ट को 1700 वर्ग फुट की जमीन दिया, जिसके बदले में मस्जिद को 1000 वर्ग फुट जमीन मिली है लेकिन दोनों भूखंड की कीमत बराबर है। बता दें कि मस्जिद समिति ने यह जमीन काशी विश्वनाथ कॉरिडॉर का निर्माण करने के लिए दिया है। मस्जिद ने जो जमीन दी वह वक्फ बोर्ड की संपत्ति है, चूंकी भूमि को पैसों से खरीदा या बेचा नहीं जा सकता था, इसलिए उस जमीन को एक दूसरे भूखंड के बदले दिया गया है।

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और पढ़ें- अयोध्या के बाद काशी की बारी, जल्द ही हमें ज्ञानवापी मस्जिद की जगह विश्वनाथ मंदिर देखने को मिल सकता है

यह लेन –देन की प्रक्रिया तब हुई है जब वाराणसी की एक स्थानीय कोर्ट ने मस्जिद परिसर में आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को आदेश दिया है कि पूरे ज्ञानवापी मस्जिद कंपलेक्स का सर्वे किया जाए। काशी विश्वनाथ मंदिर के ठीक बगल में मौजूद ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे का उद्देश्य यह पता करना है कि किसी धार्मिक ढांचे को तोड़कर तो ये मस्जिद नहीं बनाई गई है। काशी का ज्ञानवापी मस्जिद काफी दिनों से विवाद का केंद्र रहा है।

दरअसल, ज्ञानवापी मस्जिद परिसर और उसके नीचे काशी विश्वनाथ मंदिर के लिहाज से पुरातात्विक अवशेष मौजूद हैं। विवादित ढांचे के फर्श के नीचे 100 फीट ऊंचा आदि विशेश्वर का स्वयंभू ज्योतिर्लिंग स्थापित है। इतना ही नहीं विवादित ढांचे की दीवारों पर देवी देवताओं के चित्र भी देखे जा सकते हैं।

ऐसा माना जाता है कि काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण आज से 2,050 साल पहले राजा विक्रमादित्य द्वारा किया गया था। विवादित स्थल के भूतल में तहखाना और मस्जिद के गुम्बद के पीछे प्राचीन मंदिर की दीवार का दावा का किया जाता है। आपको बता दें वर्तमान समय में ज्ञानवापी मस्जिद के बाहर विशालकाय नंदी हैं, जिनका मुख मस्जिद की ओर है। नंदी को भगवन शिव का वाहन माना जाता है। इसके साथ ही मस्जिद की दीवारों पर नक्काशियों से देवी देवताओं के चित्रों उकेरे गये हैं अथवा स्कंद पुराण में भी इन बातों का वर्णन किया गया है।

वर्ष 1664 में मुगल सम्राट औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को विध्वंस कर दिया था, जिसके बाद साल वर्ष 1669 में इसके अवशेषों का उपयोग मस्जिद बनाने के लिए किया गया, जिसको ज्ञानवापी मस्जिद के रूप में जाना जाता है।

मंदिर और मस्जिद के विवाद के मामले में सबसे पहले याचिका साल 1991 में डाली गई थी। याचिका दाख़िल होने के कुछ दिनों बाद ही मस्जिद प्रबंधन कमेटी ने केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए उपासना स्थल क़ानून, 1991 का हवाला देकर इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी और सर्वेक्षण के लिए अदालत में याचिका दायर किया था।

मामले की सुनवाई कर रहे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साल 1993 में याचिका पर स्टे लगाकर यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था, लेकिन स्टे ऑर्डर की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद साल 2019 में वाराणसी कोर्ट में फिर से इस मामले पर सुनवाई शुरू हुई थी। हाल ही में वाराणसी कोर्ट ने मस्जिद परिसर के भीतर पुरातात्विक सर्वेक्षण को मंज़ूरी दी है।

अगर हम इस पूरे मामले को कानूनी तौर पर देखें तो काशी विश्वनाथ मंदिर का पूर्ण रूप से निर्माण में दो रुकावटे है। पहला यह कि मस्जिद परिसर की भूमि का मालिकाना हक़ वक्फ बोर्ड के पास है, जो भूमि का अंश देने में आनाकानी कर रहा है और दूसरा भारत सरकार द्वारा पारित किया गया उपासना स्थल क़ानून, 1991।

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भाग्यवश, ज्ञानवापी मस्जिद समिति ने जमीन का एक टुकड़ा देकर, मंदिर के पूर्ण रूप से निर्माण का पहला रास्ता खोल दिया है। आगे जब इस मामले में कोर्ट में सुनवाई की जाएगी तब मस्जिद समिति द्वारा लिए गए फैसले का उदाहरण दिया जाएगा। भविष्य में मंदिर पक्ष यह तर्क दे सकता है कि मस्जिद समिति को अगर उनके वर्तमान ढ़ाचें के कीमत के बदले कहीं और जमीन दी जाए तो वह स्वीकार कर सकते हैं।

कानूनी मामले के अक्सर दलील बीते हुए मामलों का उदाहरण देकर दिया जाता है, ऐसे कई न्यायिक मामले में कोर्ट ने पुराने केस के तर्ज पर फैसला सुनाया है। ऐसे में यह कहना उचित होगा कि काशी विश्वनाथ मंदिर का भव्य निर्माण अब दूर नहीं है।

अब रही बात, उपासना स्थल क़ानून, 1991 की तो इस मामले में पहले ही सुप्रीम कोर्ट दिलचस्पी दिखा चुका है और इस कानून को लेकर केंद्र सरकार से जवाब भी मांगा है।

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