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कैसे सरदार पटेल के नेतृत्व में ऑपरेशन पोलो ने भारत को सम्पूर्ण इस्लामीकरण से बचाया

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
17 September 2021
in इतिहास
ऑपरेशन पोलो की चर्चा करते वल्लभभाई पटेल
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ऑपरेशन पोलो और सरदार वल्लभ भाई पटेल 

भारत के ‘लौहपुरुष’ सरदार वल्लभभाई पटेल को हमारे देश के वीर सैनिकों पर कितना विश्वास था ये आप इन शब्दों से समझ सकते हैं।

“आपको लगता है हमारी सेना दस दिनों तक उनका सामना कर पाएगी?”

“दस दिन? जनरल साहब, मैं शर्त लगाता हूँ, वो लोग एक हफ्ता भी नहीं टिक पाएंगे!”

ये वास्तव में एक वार्तालाप था, भारत के तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल और तत्कालीन सेनाध्यक्ष, जनरल रॉय बूचर के बीच, जो भारत के अंतिम ब्रिटिश सेनाध्यक्ष भी थे। 2 वर्ष पहले ही जिस राष्ट्र को अपने समक्ष उन्होंने खंड-खंड होते देखा था, उसे एक बार फिर वह टूटते हुए देख रहे थे। परंतु इस बार वल्लभभाई पटेल ने संकल्प लिया था – कुछ भी हो, वे आसफ जाही का ध्वज लाल किले पर लहराने नहीं देंगे! यही से नींव पड़ी ऑपरेशन पोलो की।

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यह कहानी है ऑपरेशन पोलो की, जिसने न केवल हैदराबाद का भारत में विलय, अपितु भारत के सम्पूर्ण इस्लामीकरण को भी रोका। जो रीति 1946 में बंगाल के हिंसक विभाजन से प्रारंभ से हुई, और जो 1947 में पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान (Balochistan) और खैबर पख्तूनख्वा जैसे प्रांतों के भारत के अलग होने तक जारी रही, उसका अंत 1948 में हैदराबाद के सफलतापूर्ण विलय से हुआ, परंतु यह राह इतनी भी सरल नहीं थी।

ऑपरेशन पोलो की कहानी प्रारंभ होती है 1947 से, जब ये लगभग तय हो चुका था कि भारत का विभाजन होगा, और नए भारत को पुनर्गठित करने का दायित्व गृह एवं राज्य मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके द्वारा नियुक्त राज्य गठन के प्रमुख सचिव, वी पी मेनन की थी। वी पी मेनन ने कई वर्षों तक ICS अफसर के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य को अपनी सेवाएँ दी थीं। ऐसे में वे संशय में थे कि कहीं स्वतंत्र भारत में उनके जैसे ‘अंग्रेज़ सेवकों’ से घृणा न हो, परंतु सरदार पटेल ने उन्हें अपने रिटायरमेंट के प्रस्ताव पर पुनर्विचार करने को कहा। सरदार पटेल ने उन्हें इस स्तर तक प्रभावित किया कि वे आयुपर्यंत उनके साथ रहे, यानी जब तक स्वतंत्र भारत का मानचित्र स्पष्ट नहीं हो गया, तब तक वीपी मेनन ने सरदार पटेल की वैसे ही सेवा की, जैसे श्री राम की उनके अनन्य भक्त हनुमान ने की थी।

ऑपरेशन पोलो की पहली चुनौती

अब दोनों और ऑपरेशन पोलो के समक्ष सर्वप्रथम चुनौती थी – 565 खंडित रियासतों एवं प्रदेशों को एक स्वतंत्र भारत में पिरोने की। यह कार्य बिल्कुल सरल नहीं था, परंतु कुशल नेतृत्व, अनुपम कूटनीति के सहारे सरदार पटेल और वीपी मेनन की जोड़ी ने स्वतंत्रता तक आते-आते लगभग 550 रियासतों को भारत में विलय करने के लिए विवश कर दिया था। जोधपुर, त्रावणकोर और भोपाल जैसे कुछ राज्य प्रारंभ में थोड़े हिचकिचाए अवश्य, परंतु सरदार पटेल के नेतृत्व और वीपी मेनन की कूटनीति के कारण वे भी जल्द ही मान गए। प्रारंभ में राज्य मंत्रालय जवाहरलाल नेहरू हथियाना चाहते थे, लेकिन केंद्र सरकार के कई मंत्री और संविधान सभा के अनेक सदस्यों दबाव के चलते उन्हें ये पद सरदार पटेल को देना पड़ा, जिसके बारे में स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबैटन काफी प्रसन्न भी थे। अब सोचिए, जिनसे एक कश्मीर नहीं संभाली गई, उनसे बाकी रियासतें क्या खाक संभलती? (Source – Nehru’s Himalayan Blunders by Justice SN Aggarwal)

लेकिन इन सब का हैदराबाद से क्या संबंध था? आखिर हैदराबाद का भारत में विलय होने से ऐसा क्या हुआ, जो 1946 या 1947 में नहीं हो पाया? और ऑपरेशन पोलो की जरूरत ही क्यों पड़ी? हैदराबाद अपने आप में एक देश के समान स्वयं को मानता था, और यदि वह भारत से अलग हो जाता, तो मोपला नरसंहार और डायरेक्ट एक्शन डे की त्रासदी ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत पर पुनः इस्लामी आक्रान्ताओं का नियंत्रण स्थापित हो जाता, जैसे मुगलों के शासन में हुआ करता था।

हैदराबाद भारत के बीचों बीच स्थित एक विशाल प्रांत था, जिसमें वर्तमान भारत के तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के कुछ भाग सम्मिलित थे। ये अविभाजित भारत के सबसे धनाढ्य प्रांतों में से एक था, जिसके शासक, आसफ जाही वंश के अंतिम निज़ाम मीर उस्मान अली खान थे और इसे भारत में लाने के लिए ऑपरेशन पोलो की सख्त आवश्यकता भी थी।

https://twitter.com/LaffajPanditIND/status/1305158143920439296

मीर उस्मान अली खान हैदराबाद का सनकी निज़ाम

मीर उस्मान अली खान न केवल धन धान्य से सम्पन्न थे, परंतु वे अपने आप में एक अजीब व्यक्ति थे। उन्हें रात में कब्रिस्तान की सैर करना, गज़ल सुनना इत्यादि बड़ा पसंद था और भारत में वे उन चंद मुसलमानों में सम्मिलित थे, जिनकी मक्का तक में संपत्ति पंजीकृत थी।

परंतु इतने धन धान्य से सम्पन्न होने के बाद भी निज़ाम काफी असहज और असुरक्षित महसूस करते थे। इसका कारण स्पष्ट था – हैदराबाद प्रांत में अधिकांश जनसंख्या हिंदुओं की थी और मुसलमानों की जनसंख्या उनके मुकाबले नगण्य थी। ऐसे में उन्होंने अपने प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए कट्टरपंथी मुसलमानों को बढ़ावा देना प्रारंभ किया, जिनमें अग्रणी थे सैयद कासिम रिजवी, जिन्होंने आगे चलकर उसी मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन की स्थापना की, जिसकी विरासत को आज असदुद्दीन ओवैसी जैसे कट्टरपंथ मुसलमान बढ़ा रहे हैं।

कासिम रिजवी एक कट्टरपंथी मुसलमान था, जिसके लिए निज़ाम का शासन सर्वोपरि था। इसके लिए वह हैदराबाद के एक करोड़ हिंदुओं का नरसंहार करने तक को तैयार था। अप्रत्यक्ष तौर पर निज़ाम शाही ने कासिम रिजवी और उसके अनुयाई यानी रजाकारों को बढ़ावा देना शुरू किया। निज़ाम शाही की आधिकारिक फौज के अलावा ‘रजाकारों’ की इस सेना के दो प्रमुख उद्देश्य थे – निज़ाम शाही को कायम रखना और गैर मुस्लिमों, विशेषकर हिंदुओं पर अत्याचार को बढ़ावा देना।

जिस प्रकार से मोपला नरसंहार की वास्तविकता का उल्लेख करने में वामपंथियों को सांप सूंघ जाता है, ठीक उसी प्रकार से हैदराबाद में हिंदुओं पर हुए अत्याचारों का उल्लेख में वामपंथी बगलें झाँकते दिखाई देते हैं। जो वामपंथी आज ‘Stop Hindi Imposition’ की तख्ती गले में लटकाए घूमते हैं, वही निज़ाम शाही द्वारा हैदराबाद की जनता पर जबरदस्ती उर्दू थोपे जाने पर मौन व्रत साध लेते हैं, जबकि अधिकांश जनता या तो तेलुगु या फिर मराठी, और कुछ नहीं तो हिन्दी में अवश्य वार्तालाप करती थी।

वामपंथीयों का निज़ाम को समर्थन 

अब बात वामपंथियों की उठी ही है, तो हैदराबाद की स्वतंत्रता में उनके भूमिका पर भी प्रकाश डालते हैं। वामपंथी दावा करते हैं कि उन्होंने सर्वप्रथम 1945 में विद्रोह प्रारंभ किया था, जो शुरू में देशमुख जमींदारों की ओर केंद्रित था, परंतु फिर निज़ाम शाही की ओर मुड़ गया। हालांकि, ये अर्धसत्य है, क्योंकि 1945 में वामपंथियों ने हैदराबाद में जो हिंसक उपद्रव प्रारंभ किया था, उसका विश्लेषण करने पर एक भी ऐसा मृतक नहीं पाया जाता है, जो निज़ाम शाही से संबंधित रहा हो। इसके अलावा 1946 से 1949 के बीच वामपंथी अचानक से ऐसे गायब हो गए, जैसे गधे के सिर से सींग। शायद इसीलिए 1993 में प्रदर्शित ‘सरदार’ में एक व्यंग्यात्मक संवाद भी लिखा गया था, ‘ऐसा लगता है कि हैदराबाद में दिन में रजाकार राज करते हैं और रात को कम्युनिस्ट”।

इसके अलावा हैदराबादी रजाकार भारतीय सीमाओं में भी उपद्रव मचाते थे। इसको रोकने के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबैटन ने ‘स्टैंडस्टिल अग्रीमेंट’ का विकल्प सुझाया, जिसके अंतर्गत भारतीय सेनाएँ हैदराबाद की सीमाओं पर तैनात तो रहेंगी, परंतु कोई एक्शन नहीं लेंगी, लेकिन सरदार पटेल को ऐसी पंगुता उचित नहीं लगी। जब उन्होंने हैदराबाद के बढ़ते अत्याचारों को लेकर नेहरू पर दबाव बनाया, तो नेहरू ने अपने असली रंग दिखाते हुए कहा, “तुम एक सांप्रदायिक व्यक्ति हो और मैं तुम्हारे घटिया सोच का साथ कभी नहीं दूंगा!”

अर्थात हिंदुओं की रक्षा करना, उनके अधिकारों की बात करना सांप्रदायिक सोच का परिचायक थी, और उन्हेंं मरने देते रहना, उनके हत्यारों को संरक्षण देना ‘धर्मनिरपेक्षता’। जवाहरलाल नेहरू की इसी घृणित सोच से सरदार पटेल बुरी तरह रुष्ट हो गए और उन्होंने मरते दम तक किसी कैबिनेट मीटिंग में कदम नहीं रखने की शपथ ली।

ऑपरेशन पोलो और हैदराबाद

इसी बीच खबर आई कि निज़ाम शाही कुछ बड़ा कर सकती है, और 1946 के खतरनाक बादल फिर मंडराने लगे। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल रॉय बूचर सेना को नियुक्त करने को तैयार नहीं थे, पीएम नेहरू अपनी जिम्मेदारियों को त्यागकर विदेशी टूर कर रहे थे, परंतु सरदार पटेल दृढ़ निश्चयी थे – कुछ भी हो जाए, 1947 की भूल नहीं दोहराई जाएगी। आखिरकार सरदार पटेल की स्वीकृति से एक सैन्य ऑपरेशन की रूपरेखा तय हुई और नाम दिया गया ‘ऑपरेशन पोलो’, क्योंकि हैदराबाद में पोलो के मैदानों की कोई कमी नहीं थी।

फिर दिन आया ऑपरेशन पोलो का 13 सितंबर 1948, जब माँ भवानी के पावन तीर्थ तुलजापुर को स्वतंत्र करने के लिए भारतीय सेना पहुंची। ये वही तुलजापुर है जहां कभी छत्रपति शिवाजी महाराज तुलजा भवानी के दर्शन करने आते थे। इस विजय के पश्चात फिर भारतीय सेना ने मुड़कर नहीं देखा। लेफ्टिनेंट जनरल राजेन्द्र सिंह जी जडेजा, लेफ्टिनेंट जनरल एरिक एन गॉडर्ड और मेजर जनरल जयंतो नाथ चौधरी के संयुक्त नेतृत्व का ही परिणाम था कि भारतीय सेना ने केवल पाँच दिनों में निज़ाम शाही के आतंकी शासन को घुटने टेकने पर विवश कर दिया।

धर्म की विजय हुई, भारत की विजय हुई और ऑपरेशन पोलो की जीत हुई और स्वतंत्र भारत की सेना भारत को पूर्णतया इस्लामिक बनने से रोक लिया था। परंतु इससे एक गुट को बड़ी पीड़ा हुई और वे थे वामपंथी। निज़ाम शाही से भिड़ने के नाम पर पीठ दिखाने वाले कम्युनिस्ट अब भारतीय सेना पर मुसलमानों के नरसंहार के झूठे आरोप लगाने लगे, जिनकी जांच के लिए जवाहरलाल नेहरू ने ‘सुंदरलाल कमेटी’ तक गठित की। परंतु सरदार पटेल ने उनकी मंशा भांप ली और इस रिपोर्ट को कभी कार्रवाई की मेज़ तक पहुँचने ही नहीं दिया।

जो आज अफगानिस्तान में हमें देखने को मिल रहा है, कुछ ऐसी ही स्थिति भारत में भी थी और हमारी भी स्थिति वही होती, जो आज अफ़गान निवासियों की है। परंतु बीच में सरदार पटेल, वीपी मेनन, और भारत के वीर योद्धा खड़े थे, जिनके कारण न केवल भारत का सम्पूर्ण इस्लामीकरण होने से बचा, अपितु भारत पूर्णतया खंडित होने से भी बच गया।

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