अफगानिस्तान की धरती पर सनातन धर्म का गौरवशाली इतिहास
अफगानिस्तान का सनातन इतिहास : “कुछ हिंदुओं ने मुझसे काबुल छोड़ने का आग्रह किया और मेरी यात्रा और ठहरने की व्यवस्था का प्रस्ताव भी दिया, परंतु मेरे पूर्वजों ने सैकड़ों वर्षों तक इस मंदिर की सेवा की। मैं इसे नहीं छोड़ूँगा। अगर तालिबान मुझे मारता है, तो मैं इसे अपनी सेवा मानता हूँ”।
ये शब्द हैं काबुल के अंतिम हिन्दू पुजारी, पंडित राजेश कुमार के, जिन्होंने कई लोगों की विनती के बाद भी गांधार भूमि को त्यागने के विचार को अस्वीकार कर दिया। जिस समय अफगानिस्तान पर तालिबान जैसे आतंक का शासन पुनः स्थापित हुआ हो, ऐसी विषम परिस्थिति में सनातन धर्म का एक ऐसा अनुयायी है, जो अंतिम श्वास तक अपने धर्म की सेवा के लिए अखंड भारत के उस भाग में रहने को दृढ़ निश्चयी है, जहां कभी वेदों का मंत्रोच्चार हुआ करता था, जहां कीर्तन और भजनों की मंगल ध्वनि से ‘गांधार भूमि’ आह्लादित हो उठती थी।
ऐसा क्या है कि पंडित राजेश कुमार अब भी गांधार भूमि को त्यागना उचित नहीं समझते हैं? ऐसी कौन सी संस्कृति के अवशेष हैं आधुनिक अफगानिस्तान में, जिसकी रक्षा हेतु राजेश कुमार जैसे दृढ़ निश्चयी सेवक आज भी वहाँ विद्यमान हैं? आज अपको अफगानिस्तान की धरती के उस गौरवशाली इतिहास के बारे में बचायेंगे, जब सनातन धर्म की महिमा विद्यमान थी, तब आतंक का नहीं, धर्म का शासन व्याप्त था।
अफगानिस्तान का सनातन इतिहास : सम्राट सुबल का शासन
अफगानिस्तान का सनातन इतिहास रोमांचक है। अफगानिस्तान की पेशावर घाटी और काबुल नदी घाटी तक महाभारत का इतिहास फैला हुआ है। ये वही गांधार भूमि है, जहां कभी सम्राट सुबल का शासन हुआ करता था, और जिनकी पुत्री गांधारी का विवाह कुरु वंश के ज्येष्ठ पुत्र धृतराष्ट्र से किया गया था। धृतराष्ट्र की दृष्टिहीनता से विक्षुब्ध इसी गांधार के राजकुमार शकुनि ने प्रतिज्ञा ली थी कि जब तक हस्तिनापुर का वह विनाश नहीं कर देता, तब तक वह आराम से नहीं बैठेगा। इसी प्रतिज्ञा ने महाभारत के महायुद्ध की आधारशिला भी स्थापित की थी।
महाभारत के अतिरिक्त अफगानिस्तान के प्राचीन इतिहास में सनातन धर्म का वैभव सरस्वती सिंधु सभ्यता के कालखंड से ही व्याप्त था, जिसे आधुनिक इतिहासकार सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Valley) का भी नाम देते हैं। Mundigak और Shortughai जैसे स्थानों पर सरस्वती सिंधु सभ्यता के अवशेष प्राप्त किये गए हैं, जिनमें मुंडिगक का गांधार भूमि से काफी गहरा नाता रहा है।
गांधार भूमि पर सर्वप्रथम आक्रमण यवन सम्राट सिकंदर (अलक्षेन्द्र) ने किया था, जो वर्तमान युग में अलेक्जेंडर के नाम से विख्यात है। गांधार भूमि के वीरों ने यवनों के आक्रमणों का न केवल उचित प्रत्युत्तर दिया, अपितु सिकंदर को नाकों चने चबवाने पर विवश किया। आज जो यूसुफ़ज़ई Pashtun हैं, वे उस युग के वीर कंबोज क्षत्रिय हुआ करते थे, जिन्होंने सिकंदर और उसकी यवन सेना के आक्रमण का प्रतिघात किया। इन्हें अश्वक क्षत्रियों के नाम से भी संबोधित किया जाता था। इन्हीं विजयों से प्रेरित होकर सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने यवनों को वर्षों बाद एक भीषण युद्ध में परास्त भी किया था।
गांधार भूमि पर सम्राट कनिष्क का उदय और शत्रुओं का आक्रमण
सनातन धर्म की महिमा गांधार भूमि में चहुँ ओर व्याप्त थी। यवनों ने अनेक आक्रमण किये, परंतु हर आक्रमण का प्रतिघात हमारे शूरवीरों ने वीरता से किया। इसी बीच उदय हुआ कुषाण वंश के सम्राट कनिष्क का, जिन्होंने सनातन धर्म और बौद्ध धर्म के साथ साथ कला, चिकित्सा और विज्ञान का भी प्रचार प्रसार किया। उनका साम्राज्य वृहद था जो भारत ही नहीं, अपितु मध्य एशिया तक विस्तृत था। सम्राट कनिष्क को ‘राजाओं के राजा’ की उपाधि मिली थी, और उनके शासन में धर्म, ज्ञान और समृद्धि का मानो कोई अंत नहीं था।
फिर ऐसा क्या हुआ था कि जो गांधार भूमि कभी सनातन धर्म का अभेद्य दुर्ग था, वह आज खंड खंड हो चुका है? ऐसा क्या हुआ कि आज सनातन धर्म की रक्षा के लिए मात्र एक या दो ही अनुयायी समूचे अफगानिस्तान में शेष रह गये हैं? इसका कारण एक है – इस्लाम का प्रादुर्भाव, और उसके कारण अरबों के निरंतर आक्रमण।
गांधार भूमि के लिए आक्रमण कोई नवीन अनुभव नहीं था, परंतु यह शत्रु प्रारंभ के शत्रुओं जैसे नहीं थे। प्रारंभ के शत्रु जैसे भी थे, उनमें आचरण था, सत्कार था, और अपने विरोधियों के प्रति किंचित सम्मान भी था। जिन शत्रुओं से गांधार भूमि का सामना होने वाला था, उनके लिए न कोई धर्म उचित था, न आचरण, और न ही कोई तंत्र। उनके लिए केवल एक वस्तु सर्वमान्य थी – शत्रु पर विजय।
तुर्क शाही पर विजय प्राप्त करने के पश्चात अरब आक्रान्ताओं ने कुछ वर्षों तक गांधार भूमि पर शासन किया और निर्दोष प्रजा पर अत्याचार ढाया, परंतु उनका अत्याचार अधिक नहीं चल पाया। अष्ट और तोरमण के नेतृत्व में अरब आक्रान्ताओं पर आक्रमण हुआ, और गज़नी पर विजय प्राप्त की गई। इस विजय से हिन्दू शाही वंश की नींव पड़ी, जिसके सम्राट कमलवर्मन ने सनातन धर्म की ध्वजा को पुनर्स्थापित किया।
कल्हण की राजतरंगिणी में इसके अकाट्य साक्ष्य हैं कि कैसे हिंदू शाही की स्थापना हुई थी। कहा जाता है कि हिन्दू शाही की स्थापना एक ब्राह्मण मंत्री कल्लार ने की, जिसने कथित तौर पर अरब आक्रांताओं से ‘ विश्वासघात ‘ किया था।
अफगानिस्तान के सनातन इतिहास में सम्राट कमलवर्मन का योगदान
तारीख-ए-सिस्तान के अनुसार हिंदू शाही की महिमा को बढ़ाने में सम्राट कमलवर्मन का सर्वाधिक योगदान था। खुरासान में अम्र ए लैस व्यस्त थे, और उनके विश्वस्त फरदग्न (Fardaghan) को चुनौती दी अष्ट और तोरमण ने। उन्होंने ना केवल गजनी पर आक्रमण किया, अपितु विजयी भी हुए। जिस गांधार भूमि पर अतिक्रमणकारियों के पांव पड़े, वहां सनातन धर्म की महिमा को पुनर्स्थापित किया गया। अष्ट ने कमलवर्मन से शासन छीनने का प्रयास अवश्य किया, परंतु उनकी रक्षा में कश्मीर के कोषाध्यक्ष प्रभाकर देव ने अभियान चलाया, और तोरमण को एक नई उपाधि मिली, कमलवर्मन अथवा कमलुक।
यही वह समय था जब अरब आक्रान्ताओं के आक्रमण का प्रतिघात करने हेतु भारत में बप्पा रावल और ललितादित्य मुक्तपीड़ ने अपने शौर्य से अरब आक्रान्ताओं को दिन में तारे दिखा दिए थे। गांधार भूमि की क्षणिक पराजय को हिन्दू शाही ने पुनः विजय में परिवर्तित कर सनातन धर्म की महिमा की पुनर्स्थापना की। भीमदेव के शासन तक हिन्दूशाही ने गांधार भूमि की महिमा यथावत रखी। परंतु जयपालदेव के उदय से गांधार भूमि में पतन प्रारंभ हो गया। जयपाल वीर अवश्य थे, परंतु उन्हें बाकी राजाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था। जब गज़नवी के सुल्तान महमूद ने आक्रमण किया, तो वे असहाय पड़ चुके थे। उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा, और उनकी पराजय से ही अखंड भारत के खंडित होने की नींव भी पड़ी।
आपको पता है अफ़ग़ानिस्तान में हिन्दू कुश पहाड़ी श्रृंखला का नाम वैसा क्यों रखा है? इसके पीछे का रहस्य स्वयं मोरोक्को के चर्चित यात्री इतिहासकार इब्न बतूता ने बताया है, जो कभी तुगलक सल्तनत में दरबारी भी हुआ करते थे। उनके अनुसार हिन्दू कुश पहाड़ी का नाम इसलिए पड़ा क्योंकि इसी घाटी में वर्षों तक विदेशी आक्रांता, चाहे वो अरबी हो, तुर्की हो या फिर अफगानी, हिंदुओं को ‘मृत्युदंड’ देने के लिए यहाँ लाया करते थे। हिंदुओं के नरसंहार के लिए ये घाटी बहुत कुख्यात थी, इसीलिए इस पहाड़ी / घाटी श्रृंखला का नाम हिन्दूकुश पड़ा।
इतिहासकार इंदरजीत सिंह के अनुसार 1970 तक कम से कम 2 लाख से अधिक हिन्दू और सिख अफ़ग़ानिस्तान निवास करते थे। 2020 तक आते-आते यही संख्या लगभग 700 हिन्दू और सिखों तक सिमट गई। लेकिन इसके पीछे प्रमुख कारण क्या है? कारण एक ही है – अफ़ग़ानिस्तान में कट्टरपंथी इस्लाम का बढ़ता प्रभाव। तालिबान के आने से पहले अधिकांश हिंदू 90 के दशक के मध्य में या तो भाग गए या फिर वे आतंकियों के नरसंहार के शिकार हुए। जिस पैमाने पर अफगानिस्तान में हिंदुओं और सिखों का नरसंहार हुआ है उसे अगर सहस्राब्दी का नरसंहार यानी The genocide of the millennium कहा जाए तो भी कम ही होगा।
ये कितने दुर्भाग्य की बात है कि जिस गांधार भूमि में सनातन धर्म की महिमा व्याप्त थी, जहां वेदों का पाठ निस्संकोच होता था, और जहां पर एक से बढ़कर एक वीर जन्म लेते थे, वहाँ आज सनातन धर्म के अवशेष भी नहीं है। आज अफगानिस्तान में गिन चुनकर कुछ ही हिन्दू और सिख बचे हैं, जो वर्तमान तालिबानी शासन के भय में जी रहे हैं। जहां कभी धर्म विद्यमान था, वहाँ अब अधर्म का तांडव होता है।