हिमन्ता बिस्वा सरमा के अनुसार असम दूसरा कश्मीर बनने जा रहा है। जबसे हिमन्ता बिस्वा सरमा ने असम की कमान संभाली है, तभी से असम की प्रगति को पुनः पटरी पर लाने का उन्होंने निर्णय किया है। इसके लिए वह हरसंभव प्रयास कर रहे हैं। जिस प्रकार से असम में कट्टरपंथी मुसलमानों का उग्रवाद ज़ोरों पर है, उसको देखते हुए हिमन्ता ने आरएसएस से असम में अपने कार्यों को अधिक बढ़ावा देने पर जोर देने की बात कही है, अन्यथा असम भी ‘दूसरा कश्मीर’ बन सकता है।
वो कैसे? असल में असम के मुख्यमंत्री राज्य के बराक घाटी क्षेत्र के दो दिवसीय दौरे पर थे, जहां पर उन्होंने सिलचर जिले के आरएसएस Cachar हेडक्वार्टर्स में बैठक की। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने कहा कि “असम दूसरा कश्मीर बनने जा रहा है। सात्रा समुदाय खतरे में है क्योंकि एक समुदाय के लोग अपनी कट्टरता छोड़ने को तैयार नहीं है। वहीं पर चाय बागान और सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले हिन्दू भी तीव्र कट्टरता के कारण पलायन करने के बारे में सोच रहे हैं। मैं आरएसएस के कार्यकर्ताओं से निवेदन करता हूँ कि आप इन क्षेत्रों में जाइए और वहाँ के हिंदुओं को संगठित कीजिए, ताकि इन संस्थानों को नष्ट होने से बचाया जा सके। आप इसलिए ऐसा कर सकते हैं क्योंकि आप [आरएसएस] जमीन से जुड़े हैं और आप दूर दराज के क्षेत्रों में आम लोगों से गहरा नाता बना सकते हैं। मैं संघ से निवेदन करूंगा कि वे सरकार की सहायता करे।”
परंतु सीएम वहीं पे नहीं रुके। उन्होंने आगे कहा, “ये सत्य है कि कुछ लोग CAA और NRC के धुर विरोधी हैं, परंतु स्थिति बदलने लगी है। हम उन्हें समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि ये दोनों ही अधिनियम असम और असम के लोगों के हित में ही है। इन्हीं के बौद्धिक वर्ग से जुड़े कुछ लोग मुझसे मिले, जिन्होंने मुझसे कहा कि असम के समुदाय के लिए बंगाली हिन्दू कभी खतरा थे ही नहीं, और असम के लोगों को सत्यता का आभास भी हो रहा है।”
लेकिन आखिर सीएम को असम को दूसरा कश्मीर कहने पर क्यों विवश होना पड़ा? इसमें कोई दो राय नहीं है कि असम में जनसांख्यिकी परिवर्तन बहुत तेजी से हो रहा है, जिसके पीछे दशकों की अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीति शामिल रही है। यही नहीं बांग्लादेश के साथ सीमा से अवैध आप्रवास से लेकर कांग्रेस के मुस्लिम तुष्टिकरण जैसे कई कारणों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
असम में मुस्लिम आबादी
2011 के जनगणना के अनुसार मुसलमानों की जनसंख्या असम में 34 प्रतिशत के आसपास है, और वह हिंदुओं की जनसंख्या के मुकाबले कई गुना अधिक स्तर से बढ़ रहा है। इसके पीछे वर्षों तक कांग्रेस की अल्पसंख्यक तुष्टीकरण नीति तो एक कारण रही ही है, और साथ ही ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक यूनियन फ्रंट जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों का प्रादुर्भाव भी एक प्रमुख कारण रहा है, जिन्होंने इस डेमोग्राफ़िक जिहाद को जन्म दिया है। मौलाना और व्यवसायी बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व वाली AIUDF, एक कथित मुस्लिम समर्थक पार्टी इसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार हैं।
इस साल की शुरुआत में, सरमा ने जनसंख्या वृद्धि दर के अंतर का मुद्दा भी उठाया था और कहा था, “2001 और 2011 की जनगणना के अनुसार, असम में मुस्लिम आबादी 29% की दर से निरंतर बढ़ी, जबकि हिंदुओं की आबादी 2001 के दौरान 15 प्रतिशत से गिर गई, तथा 2011 की जनगणना में 10% की गिरावट हुई थी। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि 29 फीसदी से 10 फीसदी के बीच का अंतर कितना खतरनाक है।’
बांग्लादेश के साथ असम की सीमा
इसके अलावा बांग्लादेश के साथ असम की जो सीमा है, उससे घुसपैठ भी काफी हद तक पहले अनियंत्रित रही थी। हालांकि भाजपा की सरकार आने के बाद से इस स्थिति में काफी सुधार आया है, परंतु समस्या अभी पूर्ण रूप से खत्म नहीं हुई है। Implementation of Assam Accord मंत्री अतुल बोरा ने बताया था कि अब तक असम में लगभग 1,40,000 घुसपैठियों के पाए जाने की आशंका जताई गई, जिनमें से 30,000 को वापिस भी भेजा गया। ये तब है जब असम में बंगाल की भांति बांग्लादेशी घुसपैठियों को सरकार वीवीआईपी सुविधा नहीं देती है।
असम ने 2001 से 2016 तक कांग्रेस पार्टी के कार्यकाल के दौरान बड़े जनसांख्यिकीय परिवर्तन देखे थे। मुस्लिमों से वोट शेयर हथियाने के लिए पुरानी पार्टी ने अवैध आप्रवासियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, जिसके कारण राज्य के विभिन्न जिलों में मुस्लिम बहुसंख्यक बने।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील उपमन्यु हजारिका ने 2017 में कहा था, “2040 तक, स्वदेशी लोग अल्पसंख्यक बनने जा रहे हैं और अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम प्रवासी बहुसंख्यक हो जाएंगे और ऐसा हो सकता है कि 2040 में असम का सीएम एक अवैध अप्रवासी के होने की संभावना है। 2001 में असम की 2.61 करोड़ आबादी में से 50 लाख अवैध अप्रवासी थे। दूसरे शब्दों में, असम में हर 5वां व्यक्ति एक अवैध मुस्लिम बाहरी व्यक्ति है। असम की पूरी जनसांख्यिकी बदल गई है।”
उन्होंने आगे कहा था, “1901 में तत्कालीन आठ जिलों में से केवल दो में मुस्लिम आबादी 25% से अधिक थी- गोलपारा और कछार। 2001 में, 23 जिलों में से छह मुस्लिम बहुल हो गए थे। धुबरी में 74% मुस्लिम आबादी हो चुकी है और राज्य में मुसलमानों का कुल प्रतिशत अब 35% है। पिछले 20 वर्षों में, असम के कई सीमावर्ती गांवों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या में पांच गुना से अधिक की वृद्धि हुई है।”
ऐसे में हिमन्ता बिस्वा सरमा की दूसरा कश्मीर बनने की चिंता स्वाभाविक है – यदि समय पर त्वरित एक्शन नहीं लिया गया, तो असम भी कश्मीर की तरह सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलस सकता है। ऐसा न हो, इसके लिए वे अभी से तैयारियों में जुट गए हैं, और जिस गति से वे कार्य कर रहे हैं, हम आशा करते हैं कि जल्द ही असम आतंक मुक्त प्रदेश की श्रेणी में सम्मिलित हो।