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जो भारत भूमि में पुनर्जन्म मांगे, ऐसे अशफाकुल्लाह अब कहाँ मिलेंगे?

"खुदा अगर मिल गया कहीं अपनी झोली फैला दूंगा, और जन्नत के बदले उससे पुनर्जन्म ही माँगूंगा”

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
22 October 2021
in इतिहास
अशफाकुल्लाह खान

Source- Google

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“कभी वो दिन भी आएगा कि जब हम आज़ाद होंगे,

ये ज़मीन अपनी होगी, ये आसमाँ अपना होगा,

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शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,

वतन पर मरने वालों का, बाकी यही निशा होगा!”

कुछ ऐसी ही पंक्तियों को अपने कंठ में समाते हुए दो मतवाले एक ही दिन, एक ही समय, दो अलग-अलग स्थानों पर अपनी मातृभूमि को अपना सर्वस्व अर्पण कर गए। दिनांक था 19 दिसंबर 1927 का, और स्थान थे गोरखपुर एवं अयोध्या धाम [तत्कालीन फैज़ाबाद]। इन जगहों पर इन दो क्रांतिकारियों ने देश को अपना सर्वस्व अर्पण किया और देश के लिए कुछ ऐसा कर गए जो स्वयं मोहनदास करमचंद गांधी जैसे नेता भी नहीं कर पाए। परंतु फैज़ाबाद में अपने प्राण अर्पण करने वाले क्रांतिकारी अपने आप में अनोखे थे और इस देश की विडंबना यही है कि उनके जैसे व्यक्तित्व अब विरले ही मिलते हैं। फैजाबाद में अपने प्राण अर्पण करने वाले उस वीर क्रांतिकारी अशफाकुल्लाह खान (अशफाक) की आज जयंती है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।

चौरी चौरा के बाद अशफाक ने बदल दिया रास्ता

साल 1900 में 22 अक्टूबर को शाहजहाँपुर के एक खैबर पठान शफीकुल्लाह खान और उनकी पत्नी मेहरुन्निसा के घर अशफाकुल्लाह खान का जन्म हुआ। ये वहीं शाहजहाँपुर है, जहां पर एक अन्य वीर क्रांतिकारी, राम प्रसाद श्रीवास्तव का भी जन्म हुआ, जो बाद में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के नाम से विश्वविख्यात हुए थे।

प्रारंभ से ही अशफाक अन्य लोगों से अलग थे। वे राष्ट्रवादी विचारधारा की ओर झुकाव रखते थे और उन्होंने तो असहयोग आंदोलन में भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था। लेकिन चौरी चौरा के विद्रोह के पश्चात जब मोहनदास गांधी ने असहयोग आंदोलन को रद्द कर दिया, तो अनेक युवाओं की भांति अशफाक का भी अहिंसा के मार्ग से मोहभंग हो गया।

और पढ़ें : प्यारे वामपंथियों! भगत सिंह एक सच्चे राष्ट्रवादी थे, उन्हें ‘वामपंथी’ कहकर खुद का मजाक मत बनाओ

यही वो समय था जब योगेश चंद्र चटर्जी, शचीन्द्रनाथ बख्शी और शचींद्रनाथ सान्याल जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने डायरेक्ट एक्शन का विकल्प चुना और क्रांति की राह चुनते हुए हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) की स्थापना की। अशफाकुल्लाह खान भी इसके संस्थापक सदस्यों में से एक थे। यहीं पर इनका परिचय रामप्रसाद बिस्मिल से हुआ। फिर साहित्य को लेकर दोनों का प्रेम, धर्मशास्त्र पर चर्चा और क्रांति के साझा उद्देश्य ने इन दोनों को ऐसा परम मित्र बना दिया, जैसे कि वे कुंभ के मेले के दो बिछड़े भाई थे।

प्रारंभ में HRA केवल पर्चे बांटने और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर लोगों को जागृत करने तक सीमित था। हालांकि, कुछ समय बाद पैसे इकट्ठा करने के लिए जमींदारों को लूटने का मार्ग चुना गया लेकिन अशफाक और बिस्मिल को अपने ही देशवासियों को लूटना उचित नहीं लगा और उन्होंने इस मार्ग को त्याग दिया। इसी समय प्रादुर्भाव हुआ एक युवा क्रांतिकारी चंद्रशेखर तिवारी का, जिनके व्यक्तित्व से अशफाक और रामप्रसाद बिस्मिल दोनों ही प्रभावित हुए और यही बाद में चंद्रशेखर आज़ाद के नाम से विश्वविख्यात भी हुए।

इतिहास में दर्ज है काकोरी की घटना

सन् 1925 में इन क्रांतिकारियों के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। रामप्रसाद बिस्मिल ने ध्यान दिया कि सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली नंबर-8 डाउन ट्रेन में एक बक्से में भरकर पैसा जाता है, जिसकी सुरक्षा लगभग नगण्य है। ये पैसा कहने को अंग्रेज़ों का है लेकिन भारतीयों से ही लूटा गया है। यदि इसपर धावा बोलकर ये बक्सा प्राप्त किया जाए, तो एसोसिएशन की सभी समस्याएं दूर होंगी और HRA एक नई दिशा के साथ आगे बढ़ेगी।

अशफाकुल्लाह खान प्रारंभ में इस योजना के पक्ष में नहीं थे, लेकिन उनके विचार एकदम स्पष्ट थे– जो भी इस योजना में शामिल होगा, उसे सरकार के हर कार्रवाई के लिए तैयार रहना होगा और अभी सही समय नहीं है। लेकिन अन्य क्रांतिकारी इस योजना के ख्याल से ही इतने उत्साहित थे कि उन्होंने अशफाक के सलाह को नहीं माना। परंतु जब रामप्रसाद बिस्मिल इस योजना के लिए सहमत हुए तो अशफाक ने इस योजना में सम्मिलित होने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जताई। वास्तविकता तो यह भी थी कि अशफाकुल्लाह खान वो अंतिम क्रांतिकारी थे, जिन्हें काकोरी विद्रोह में अंग्रेज़ों द्वारा हिरासत में लिया था।

आखिरकार 8 अगस्त 1925 को लखनऊ के निकट काकोरी में ट्रेन को रोककर रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 10 क्रांतिकारियों ने धावा बोला और उस बक्से को लूट लिया। बक्से में लगभग 7000 रुपये नकद थे, जो आज के आंकड़ों के अनुसार 6 से 7 लाख रुपये के आसपास होंगे। ये कारनामा तो सफल रहा लेकिन अपने अति उत्साह में एक युवा क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्ता ने हवाई फायर कर दिया, जिसकी गोली ट्रेन से निकल रहे एक यात्री रहमत अली को लग गई। क्रांतिकारियों की इस एक गलती का फायदा ब्रिटिश सरकार किस प्रकार उठाने वाली थी, किसी को इस बात का आभास नहीं था, लेकिन इस विद्रोह से अंग्रेज़ शासन तिलमिला गया।

और पढ़े- पेशवा माधवराव भट्ट– भारतवर्ष का आधुनिक स्कंदगुप्त जिसने मराठा साम्राज्य को खंडित होने से बचाने का प्रयास किया

ताबड़तोड़ कार्रवाई के पश्चात 26 सितंबर 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल हिरासत में ले लिए गए और फिर हिरासत का लंबा दौर प्रारंभ हुआ। इस विद्रोह से जुड़े केवल चार सक्रिय क्रांतिकारी तब पुलिस की गिरफ्त से बच निकलने में सफल रहे थे, जिनमें केशव चक्रवर्ती, चंद्रशेखर आज़ाद, मुरारीलाल शर्मा और अशफाकुल्लाह खान शामिल थे। काकोरी विद्रोह में अप्रत्यक्ष रुप से सक्रिय एक युवा क्रांतिकारी भी शामिल थे, जो तब प्रताप प्रेस सहित विभिन्न पत्रिकाओं के लिए लेख लिखने का काम करते थे। ये कोई और नहीं, वीर क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह थे, जो तब हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से नए-नए जुड़े थे।

अशफाक को उनके अपने लोगों ने दिया धोखा

अशफाकुल्लाह ने कुछ दिन अपने पठान मित्र के यहां शरण लेने की सोची, लेकिन उन्हीं के समुदाय ने उनके साथ विश्वासघात करते हुए उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया। फैज़ाबाद जेल में अशफाक को न केवल शारीरिक, अपितु मानसिक यातना भी दी गई। एक मुसलमान अफसर तसद्दुक हुसैन जेल में उन्हें निरंतर रामप्रसाद बिस्मिल के विरुद्ध भड़काता रहा, परंतु अशफाक को इन बातों से रत्ती भर भी फरक नहीं पड़ा। लेकिन भाग्य का खेल देखिए दोनों ही महान क्रांतिकारियों को अलग-अलग जगहों पर 19 दिसंबर 1927 को फांसी दे दी गई। दोनों दोस्त एक ही समय एक ही साथ इस संसार से विदा हुए।

कहने को अशफाक मुसलमान थे, लेकिन भारतीय संस्कृति से उन्हें अगाध प्रेम था और यह इतना ज्यादा था कि आज के कथित मुसलमान को भी अपने आप पर शर्म आ जाए। वे कहते थे, “जाऊंगा खाली हाथ मगर ये दर्द साथ ही जायेगा, जाने किस दिन हिन्दोस्तान आज़ाद वतन कहलायेगा? बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं “फिर आऊंगा, फिर आऊंगा, फिर आकर के ऐ भारत मां तुझको आज़ाद कराऊंगा”। जी करता है मैं भी कह दूँ पर मजहब से बंध जाता हूँ, मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की बात नहीं कर पाता हूं, हां खुदा अगर मिल गया कहीं अपनी झोली फैला दूंगा, और जन्नत के बदले उससे यक पुनर्जन्म ही माँगूंगा”।

काश! ऐसे और भी भारतीय होते।

और पढ़े- चीन के प्रति नेहरू की निस्स्वार्थ सेवा के लिए उन्हें चीन का सर्वोच्च सम्मान “The Medal of the Republic” मिलना चाहिए

Tags: अशफाकुल्लाह खानकाकोरी कांड
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14 November 2025

ऐसे समय में जबकि अपने राष्ट्र नायकों को लेकर भारत में राजनीतिक बहसें तेज़ हो रही हैं,  विचारधाराओं की लड़ाई भी पहले से ज़्यादा गहरी...

वंदे मातरम्, विभाजन की मानसिकता और मोदी का राष्ट्रवादी दृष्टिकोण – इतिहास, संस्कृति और आत्मगौरव का विश्लेषण
इतिहास

वंदे मातरम्, विभाजन की मानसिकता और मोदी का राष्ट्रवादी दृष्टिकोण – इतिहास, संस्कृति और आत्मगौरव का विश्लेषण

10 November 2025

भारत के राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास में वंदे मातरम् केवल एक गीत नहीं, बल्कि एक चेतना और राष्ट्र की आत्मा का उद्घोष रहा है। यह...

वंदे मातरम्” के 150 वर्ष: बंकिमचंद्र की वेदना से जनमा गीत, जिसने भारत को जगाया और मोदी युग में पुनः जीवित हुआ आत्मगौरव
इतिहास

वंदे मातरम् के 150 वर्ष: बंकिमचंद्र की वेदना से जनमा गीत, जिसने भारत को जगाया और मोदी युग में पुनः जीवित हुआ आत्मगौरव

7 November 2025

भारत के इतिहास में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब एक गीत, एक पंक्ति, या एक विचार समूचे राष्ट्र की आत्मा बन जाता है। वंदे...

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