चीनी प्रशासन की नासमझी की भेंट चढ़े चीनी PLA के नन्हे-मुन्हे सैनिक

आखिर डोकलाम में चीनी सेना ने भारतीय सैन्य शक्ति को कमतर आँकने की भूल कैसे की?

हवा से लड़ना चीनी प्रशासन की पुरानी बीमारी रही है। कम्युनिस्ट चीन को आज भी लगता है कि उसके आगे दुनिया की कोई भी ताकत नहीं टिक सकती है। चीनी प्रशासन की इसी ना समझी के कारण वह हर जगह अपनी नाक कटवाता आया है, विशेषकर भारत में, और इसी न समझी के पीछे उसे पिछले वर्ष गलवान घाटी में भारी नुकसान का सामना भी करना पड़ा।

कैसे चीन ने भारत की सैन्य शक्ति को कमतर आँका

प्रश्न ये उठता है कि चीन की सेना ने भारतीय सैन्य शक्ति को इतना कमतर आँकने की भूल कैसे की? इसका उत्तर दोनों सेनाओं की मूल विचारधाराओं में ही मिल जाएगा। भारतीय सेना एक पेशेवर सेना है, जिसमें लोग अपनी इच्छा से भर्ती होते हैं। वहीं, चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी वास्तव में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की निजी सेना है, जो चीन की राष्ट्रीय सेना कहलाने के योग्य भी नहीं है, और न ही यहाँ पर कोई स्वेच्छा से भर्ती होने को इच्छुक होगा। जहां चीन द्वारा हेकड़ी दिखाने पर भारतीय सेना ने तुरंत चीन से उत्पन्न खतरे का अंदाज़ा लगाते हुए अपनी तैयारियां शुरू कर दीं, वहीं चीन इसी गुमान में फूलता रहा कि भारतीय सेना उससे लोहा लेने में असमर्थ है।

ऐसा क्यों? इसके पीछे कई कारण है। उदाहरण के लिए पिछले 3 वर्षों से PLA से संबंधित ऑनलाइन मीडिया ने कई वीडियो भारत के संबंध में रिलीज़ किये हैं, परंतु एक भी भारत की सैन्य शक्ति से संबंधित नहीं है। सभी वीडियो घूम फिरके भारत के अमेरिका जैसे देशों से सैन्य खरीद पर ही अटक जाते हैं। यहाँ तक कि लद्दाख के दौरान हुई तनातनी पर भी PLA मीडिया ने भारतीय सैन्य शक्ति पर विश्लेषणतामक वीडियो बनाने से दूरी रखी। कभी सोचा है ऐसा क्यों हुआ?

असल में चीन अभी भी इस गुमान में रहता है कि भारत एक दुर्बल देश है, जो अन्य देशों की तरह उसके दबाव में आ जायेगा। उसे लगता है कि भारत अब तक 1962 की पराजय से उबरा नहीं है, जबकि सच्चाई तो यह है कि चीन की स्मरण शक्ति काफी सीमित और संकुचित है।

इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण आपको ‘साइंस ऑफ मिलिटरी स्ट्रेटजी’ में मिल जाएगा, जो PLA अकादेमी ऑफ मिलिटरी साइंस ने 2013 में प्रकाशित की थी। ये भारत पर चीन की अब तक की सबसे विस्तृत कवरेज रही है। इसे अमेरिका स्थित चीन एयरोस्पेस स्टडीज इंस्टीट्यूट ने 2021 में अनुवादित किया था। इस पुस्तक के अनुसार दावा किया गया है कि शीतयुद्ध के पश्चात भारत की नीति दक्षिण एशिया में अपना प्रभुत्व स्थापित करने एवं चीन और अन्य देशों के विरुद्ध दमनकारी नीतियाँ लागू करने की रही है।

अब ये पुस्तक उस समय लिखी गई थी, जब चीन और भारत के बीच डोकलाम जैसा सैन्य संघर्ष हुआ था। तब चीनी PLA ने भारत में आक्रमण किया था और सीमा पार करते हुए भारतीय क्षेत्र में 19 किलोमीटर तक के इलाके में गुंडागर्दी की थी, परंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास चीन के ‘आक्रामक प्रश्नों’ का कोई उत्तर नहीं था, और उनहोंने अपने स्वभाव के कारण भारत को लज्जित किया।

बीजिंग को लगा कि डेपसांग [जहां ये तनातनी हुई थी] की भांति आगे भी इसी प्रकार से वह अपनी मनमानी करेगा और भारतीय उसे मनमानी करने देंगे, परंतु चीन कुछ बातें भूल गया था। सर्वप्रथम तो 2014 में ही भारत में सत्ता परिवर्तन हो चुका था, और मनमोहन सिंह की जगह नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने ली थी, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर उनसे लाख गुना अधिक आक्रामक एवं मुखर हैं। तब से अब तक चीन के परिप्रेक्ष्य में बॉर्डर सुरक्षा को लेकर भारतीय तैयारियों में आकाश-पाताल का अंतर आ चुका है।

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चीन को भारत अमेरिका मित्रता की शक्ति का कोई आभास नहीं

यही नहीं, चीन के विशेषज्ञ इसी भ्रम में रहते हैं कि भारतीयों को अंतर्राष्ट्रीय विषयों का कोई ज्ञान नहीं है, और न ही उन्हें इस बात का आभास है कि एक देश अनेक देशों के साथ मधुर संबंध रख सकता है। उदाहरण के लिए PLA टीवी पर चीनी विशेषज्ञ डींगे हाँकते फिर रहे थे कि हाल ही में भारत ने जो शस्त्र अमेरिका से खरीदे हैं, वो उसके किसी काम के नहीं है, वो बस ‘अमेरिका से समर्थन प्राप्त करने’ योग्य हैं। चीनी सैन्य विशेषज्ञों को यह भी लगता है कि अमेरिका और भारत के बीच मधुर संबंध इसलिए कभी स्थापित नहीं हो पाएंगे, क्योंकि इसमें भारत और रूस के बीच के संबंध आड़े आ सकते हैं।

लगता है चीन अभी भी माओ युग में ही जी रहा है, अन्यथा उसे आभास होना चाहिए कि हम एक बहुपक्षीय जगत में निवास करते हैं, जहां एक शक्तिशाली देश से मधुर संबंध होने का अर्थ यह नहीं कि दूसरे देश से नाता तोड़ लिया जाये। अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति कोई KG क्लास नहीं, जहां आपकी बात नहीं मानी तो आप कट्टी कर लें। आप रूस के परम मित्र होकर भी अमेरिका और जापान के साथ मधुर संबंध स्थापित कर सकते हैं, और ताइवान की स्वतंत्रता के लिए भी आवाज उठा सकते हैं, जैसा कि वर्तमान भारतीय सरकार ने सिद्ध किया है।

इतिहास ने बारम्बार चीन को धूल चटाई है

इसके अलावा चीन ने हमेशा एक बात को अनदेखा किया है और वो है- इतिहास। कहते हैं, इतिहास से हमेशा सीख लेनी चाहिए। भारत आज नहीं तो कल थोड़ी बहुत सीख ले ही लेता है, लेकिन चीन ने आज तक इतिहास से कोई सीख नहीं ली। 1967 में भी इसी घमंड में उसने भारत पर आक्रमण किया था क्योंकि उसे भ्रम था कि उसने भारत को 1962 में धोया था, वह उसे प्रत्युत्तर कभी नहीं दे पाएगा। उत्तर में नाथू ला और चो ला में भारतीय सैनिकों ने चीन को इतना कूटा कि माओ ज़ेडोंग अपने शिखर पर होते हुए भी कहीं मुंह दिखाने योग्य नहीं बचा।

[मूल स्रोत: Watershed 1967 – India’s Forgotten Victory over China by Major Probal Dasgupta [Retd.]

इसी का परिणाम है कि जब भारत ने 2021 में भारत-तिब्बत बॉर्डर पर अचानक से युद्ध अभ्यास का निर्णय किया, तो चीनी विशेषज्ञों ने इसका उपहास उड़ाने में तनिक भी देरी नहीं की। इसके बावजूद जब गलवान घाटी में प्रशिक्षित भारतीय सेना के जवानों के हाथों इनके ‘वीर चीनी योद्धा’ गाजर मूली की तरह काटे गए, तो चीन को मानो सर छुपाने के लिए जगह नहीं मिली। आज भी चीनी प्रशासन का हलक सूख जाता है जब उनसे पूछा जाता है कि वास्तव में कितने चीनी सैनिक गलवान घाटी में मारे गए थे। चीन वास्तव में एक मजबूत भारतीय सेना को कमतर आँकने की भूल करने के कारण 1967 से मुंह की खाता आ रहा है।

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