“सरदार उधम”- मार्क्सवादी ट्विस्ट के साथ ये फिल्म हमारे देश के इतिहास के नाम पर कलंक है

सत्य और तथ्यों से इस फिल्म का नहीं है नाता!

सरदार उधम

हाल ही में विजयदशमी के अवसर पर शूजीत सरकार की बहुप्रतीक्षित फिल्म ‘सरदार उधम’ Amazon Prime पर प्रदर्शित हुई। ये जलियाँवाला बाग नरसंहार को स्वीकृति देने वाले पंजाब के तत्कालीन उपराज्यपाल माइकल ओ ड्वायर का अंत करने वाले वीर क्रांतिकारी उधम सिंह कंबोज के ऊपर आधारित है, जिसे जीवंत करने का बीड़ा चर्चित बॉलीवुड अभिनेता विक्की कौशल ने उठाया। यूं तो इस फिल्म को कई लोग सकारात्मक रिव्यू दे रहे हैं, और अपना प्यार भी लुटा रहे हैं, लेकिन इस फिल्म का एक ऐसा भी पहलू है, जिसके बारे में कोई भी चर्चा नहीं कर रहा। वो है ‘सरदार उधम’ फिल्म में इतिहास के साथ की गई छेड़छाड़, जिसके लिए किसी भी प्रकार की निंदा कम पड़ेगी। ‘सरदार उधम’ केवल सिनेमा के लिए ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक दृष्टि से स्वयं हुतात्मा उधम सिंह की विरासत पर भी कलंक समान है।

इसका प्रमाण स्वयं फिल्म सरदार उधम के निर्माताओं ने एक प्रोमोशनल वीडियो में दिया है, जहां वे बच्चों के साथ एक रोचक क्विज़ में भाग लेते हैं। ये कहने को एक हिस्ट्री क्विज़ है, परंतु इसमें प्रश्न वैसे ही पूछे जाते हैं, जैसे वामपंथियों को प्रिय हो – डिस्कवरी ऑफ इंडिया किसने लिखी, भारत के संविधान के रचयिता कौन थे, इत्यादि। हालांकि, इनके इरादे तब उजागर हुए, जब वीडियो में लाल-बाल-पाल का संधि विच्छेद करने को कहा गया। इस प्रश्न में ये पूछा गया कि लाल बाल पाल के नाम से किन स्वतंत्रता सेनानियों को संबोधित किया जाता है। बच्चों ने बाल और पाल तो सही बता दिए, पर लाल के तौर पर लाल बहादुर शास्त्री को संबोधित किया गया, और इस त्रुटि को सुधार कर लाला लाजपत राय [सही उत्तर] का नाम लेने के बजाए विकी कौशल और सह निर्माता रॉनी लाहिड़ी ने उन बच्चों को सही ठहराया।

ये तो मात्र झलक है, क्योंकि ‘सरदार उधम’ ने इतिहास के साथ जो खिलवाड़ किया है, उसकी निंदा के लिए कोई भी शब्द कम पड़ेगा। ये फिल्म बुरी तो बिल्कुल नहीं है। इसमें विकी कौशल के उत्कृष्ट अभिनय के अलावा कुछ तकनीकी खूबियाँ हैं, जिन्हें आप नज़रअंदाज नहीं कर सकते। जलियाँवाला बाग नरसंहार को जिस तरह चित्रित किया गया, वो भले देर से आया, परंतु उसे देखकर कोई भी सिहर उठेगा। इसके अलावा जो चित्रांकन यानि Cinematography है, उसे देखकर आपको पूर्ण विश्वास होगा कि आप वास्तव में उस कालखंड में हैं जिसमें मूवी सेट है।

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हालांकि, इन सभी गुणों पर पानी फेरने के लिए दो बातें पर्याप्त हैं – तथ्यों के साथ खिलवाड़ और फिल्म की लंबाई। फिल्म की पटकथा ‘शेरशाह’ की भांति non-linear पद्वति में रखी गई है, यानि कुछ भी Chronology के अनुसार नहीं होगा, परंतु कुछ दृश्यों में इतना अधिक समय व्यर्थ गंवा दिया कि जब मूल दृश्य आए, तब तक लोगों की आधी रुचि ही खत्म हो जाएगी।

सत्य और तथ्यों से इस फिल्म का नहीं है नाता

एक बार को ये सब फिर भी अनदेखा किया जा सकता है, यदि फिल्म ने ‘शेरशाह’ की भांति स्पष्ट रूप से सत्य को पेश किया होता, लेकिन सत्य और तथ्यों का इस फिल्म से उतना ही नाता है, जितना पाकिस्तान का धार्मिक सद्भाव से। सर्वप्रथम उदाहरण तो उधम सिंह की विचारधारा से ही है। मूल रूप से उधम सिंह एक राष्ट्रवादी क्रांतिकारी थे, जो गदर पार्टी के प्रमुख सदस्य थे, लेकिन उन्हें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य के रूप में दिखाया गया है, जिसकी स्थापना वास्तव में 1928 में हुई थी, जब उधम स्वयं अवैध हथियार रखने के आरोप में जेल में बंद थे।

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ये तो केवल प्रारंभ था। वीर उधम सिंह के जीवन पर गदर पार्टी और उसके क्रांतिकारियों ने क्या प्रभाव डाला था, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। पूरी फिल्म में केवल मार्क्सवादियों का ही गुणगान किया गया है, मानो स्वतंत्रता की लड़ाई केवल उन्होंने ही लड़ी थी, और लाला हरदयाल, वीर सावरकर, चापेकर बंधु, मास्टरदा सूर्यकुमार सेन, नेताजी सुभाष चंद्र बोस इत्यादि तो मटर छील रहे थे। केवल इतना ही नहीं, 1920 से लेकर 1926 के बीच उधम सिंह किस प्रकार से गदर पार्टी की सेवा विदेश में कर रहे थे, और कैसे वे राम प्रसाद बिस्मिल के विचारों से प्रभावित हुए, इसका भी कोई उल्लेख नहीं किया गया है।

‘सरदार उधम’ फिल्म में यहाँ तक दिखाया गया है कि उधम सोता रहा, इसलिए वह जलियाँवाला बाग का शिकार होने से बच गया, जबकि वास्तव में वह घटनास्थल पर अपने मित्रों के साथ वहाँ एकत्रित लोगों को पानी पिलाने में लगा हुआ था। वह उन बेहद कम भाग्यवान लोगों में सम्मिलित था, जिन्होंने उस भीषण त्रासदी को अपनी आँखों से देखा था, और इसके बाद भी वह किसी तरह बच गया। इतिहास के नाम पर थोड़ी रचनात्मकता स्वीकार की जा सकती है, परंतु वास्तविक तथ्यों से मुंह मोड़ना कदापि नहीं।

ऐसे में ‘सरदार उधम’ फिल्म मार्क्सवादियों को प्रसन्न करने का एक बड़ा अच्छा प्रयास था, जिसे बड़ी सफाई से पेश किया गया है, लेकिन इस दिशा में न केवल हुतात्मा उधम सिंह, अपितु जलियाँवाला बाग में मारे गए हजारों निर्दोष लोगों की विरासत पर भी एक प्रकार से कीचड़ उछाला गया है। यह सोचने वाली बात है कि जिन्हें ये तक न पता हो कि लाला लाजपत राय कौन थे, वो हमें बताएंगे कि हमारा इतिहास क्या है और कैसा होना चाहिए?

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