अगर आप किसी चीज़ को जीत नहीं पाते तो क्या करते है? उसे क्षत-विक्षत करते है। उसे परेशान करते है। उसका अपमान करते है। नित नए स्वांग रचकर उसे झुकाने के लिए अनवरत युद्धरत रहते है। आप क्रिकेट खेलते कुछ बच्चों के झुंड से उदाहरण ले सकते है। जब कोई हठी और बदमाश बच्चा उन्हे सद्भावपूर्वक खेलने से नहीं रोक पाता तो क्या करता है? खेल बिगाड़ देता है। यही काम भारत और सनातन संस्कृति के संदर्भ में भी किया गया। विदेशी ताक़तें मिलकर भी जब सनातन संस्कृति की जड़ें नहीं हिला सकी तब वें इसकी शाखों को तोड़ने लगे। इसी कुत्सित और विकृत कृत्य का प्रथम और मानद उदाहरण है- पादरी रॉबर्ट डी नोबिली जब इन्हे लगा कि ये हिन्दू धर्म को झुका नहीं सकते तब ये उसे विकृत करने लगे।
उन्होने छल के माध्यम से सनतनियों को धर्मांतरित करने का कार्य किया और आज भी उनके इस धर्मांतरण प्रक्रिया को सनातन विरोधियों द्वारा एक मॉडल के रूप में देखा जाता है। उनका यह धार्मिक छल आज भी भारत में धर्मांतरण का आधार बना हुआ है। पूरे प्रकरण से अवगत करने से पहले आइये, हम पहले आपको इन महानुभाव से परिचित कराते है।
रॉबर्ट डी नोबिली एक इतालवी जेसुइट मिशनरी थे, जो ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए अपनी अनोखी और विकृत पद्धति के लिए जाने जाते हैं। उनका जन्म एक इतालवी कुलीन परिवार में हुआ था। बड़ा बेटा होने के कारण उनके परिवार को उनसे काफी उम्मीदें थीं। हालाँकि, उन्होंने परिवार के सपने को छोड़, पादरी के वेश में वो नेपल्स (Naples) भाग गए जहां उन्होने धार्मिक शिक्षा प्राप्त की।
इसके बाद वह “सोसाइटी ऑफ जीसस” में शामिल हो गए, जहां वे अफ्रीका और जापान कि मिशनरियों की कहानियों से प्रेरित हुए। इसके बाद उन्होने खुद को धर्मांतरण मिशन के लिए तैयार किया और भारतीय लोगों को धर्मांतरित करने की कुत्सित योजना बनाई।
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कई महीनों के बाद 1605 में डी नोबिली भारत पहुंचा। कुछ समय तक डी नोबिली ने वहाँ बसे हुए यूरोपीय लोगों के बीच काम करके भारतीयों की सामाजिक स्थिति और उनकी दुखती रगों की पहचान की। उसके बाद डी नोबिली को उसके वरिष्ठ धार्मिक पादरी ने आंतरिक भारत में धर्मांतरण का कार्यभार सौंपा। इसीलिए वो मदुरै (मदुरई) पहुंचने के बजाए कोचीन(कोची) चले गए।
उसने जल्द ही भाँप लिया कि भारत में धर्म कोई बंधन नहीं बल्कि एक जीवन शैली है। यहाँ की सनातन संस्कृति इतनी वृहद और विराट है कि समग्र यूरोपीय परंपरा और वैश्विक धर्मों को स्वयं में समाहित कर सकती है। इसके अलावा यहाँ के लोगों द्वारा यूरोपीय मिशनरियों को उनकी धार्मिक संकीर्णता के कारण अशुद्ध और निम्न बताकर उनके सिद्धांतों को खारिज कर दिया गया था। शंकरचार्य, पतंजलि और पाणिनी जैसे मुनियों से शिक्षित इस सभ्यता के लोगों ने मिशनरियों के साथ किसी भी धार्मिक बातचीत में शामिल होने से इनकार कर दिया था।
इसलिए डी नोबिली ने सभी प्रकार के लोगों तक पहुंचने के लिए संन्यासी बनने का फैसला किया। उन्होने भगवा चोला पहनकर भगवाधारियों को छलने की चाल चली क्योंकि भारत में ऋषि-मुनियों को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। लोगों का विश्वास दिलाने के लिए उसने मांस छोड़ दिया और हिंदू भिक्षुओं द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली छड़ी और कमंडल को धारण कर लिया। इतना ही नहीं उसने लोगों को बाइबिल समझाने के लिए संस्कृत, तमिल और तेलुगु में महारत भी हासिल की।
उसने कई ईसाई धर्मग्रंथों, सिद्धांतों और पुस्तकों का संस्कृत, तमिल और तेलुगु में अनुवाद भी किया। उसने ईसाईयत के धार्मिक शब्दों के लिए उपयुक्त तमिल शब्दावली प्रदान करने के लिए भी जाना जाता है जैसे पूजा स्थल के लिए “कोविल”, बाइबिल के लिए “वेदम”, मास के लिए “पूसाई।”
हालाँकि, उसके सहकर्मियों ने उनके प्रचार के तरीकों को स्वीकार नहीं किया क्योंकि एक हिन्दू में जब तक सनातन संस्कृति का एक भी अंश बचा हुआ होगा वो परिवर्तित होने के बजाए उस धर्म को ही परिष्कृत कर देगा। फिर भी, डी नोबिली उच्च जाति के ब्राह्मणों सहित कई लोगों को ईसाइयत में परिवर्तित करने में सफल रहे। 1610 तक उसने 60 लोगों को परिवर्तित किया और 1656 तक 4000 लोगों को। हालाँकि, कुछ जागरूक सनातनियों ने उसकी रणनीति को समझ लिया और 1640 में उसे जेल में डाल दिया गया।
16.01.1656 को टस्कनी में उसकी मृत्यु हो गयी। लेखक को स्वयं समझ में नहीं आ रहा है कि इस इंसान की प्रशंसा की जाये या आलोचना। स्वयं सोचिए, इस इंसान ने परिवार त्याग कर, समस्त प्राकृतिक विपदाओं को झेलते हुए, कठिन से कठिन भाषाओं को सीखते हुए और जेल की भयंकार यतनाओं को झेलकर भी ईसाइयत का ध्वज ऊंचा किया और एक हम है जो इतने उदार धर्म के संवाहक होते हुए भी अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए सनातन संस्कृति का त्याग कर देते है। ये ठग प्रशंसा का पात्र तो नहीं पर हमारी सीख अवश्य बन सकता है।