भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई ऐसी फिल्में बनी हैं, जो “मील का पत्थर” साबित हुई। लेकिन, गुजरात के 5 लाख किसानों द्वारा बनाई गई फिल्म सबसे अलग है। वर्ष 1976 में गुजरात के सिनेमाघर किसानों के बड़े-बड़े ट्रकों और ट्रैक्टरों से भर गए थे। ऐसा इसलिए नही था, क्योंकि वहां एक व्यावसायिक रूप से हिट फिल्म चल रही थी, बल्कि इसलिए क्योंकि वहां इन किसानों के जीवन को चित्रित करने वाली एक फिल्म प्रदर्शित हो रही थी। फिल्म का निर्माण दुनिया की सबसे बड़ी क्राउड फंडिंग से किया गया था। इस चलचित्र का नाम था- मंथन। मंथन भारत की पहली क्राउड फंडिंग फिल्म है। अनुभवी श्याम बेनेगल द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मंथन’ में भारत में श्वेत क्रांति के संवाहक भारतीय किसान और उनके सपनों के ब्रांड अमूल की कहानी बताई गई है। इसने न केवल एक कुशल उद्यमी डॉ. वर्गीज कुरियन की कहानी को विस्तृत किया, जिसने अमूल को एक बड़ी सफलता दिलाई, बल्कि मानवीय विशेषताओं के मिश्रित रंगों का भी खूबसूरती से वर्णन किया।
फिल्म की शुरुआत
साल 1949 में श्वेत क्रांति के जनक वर्गीज कुरियन, जब गुजरात के आणंद पहुंचे तो वो सिर्फ 28 साल के थे। उन्होंने किसानों को आश्वस्त किया कि उनके द्वारा उत्पादित दूध का स्वामित्व उनके पास ही रहेगा। अमूल सिर्फ उन्हें उनकी मेहनत का सही मूल्य दिलाएगी। हुआ भी यहीं, कंपनी और किसानों के समन्वय ने देश में दूध की नदियां बहा दी। एक दशक के भीतर 20,000 लीटर प्रतिदिन की उत्पादन क्षमता वाली एशिया की सबसे बड़ी डेयरी इकाई “अमूल” एक वास्तविकता बन गई। मंथन ने डॉ. कुरियन की उद्यम शीलता की यात्रा और किसानों के श्रम को उजागर किया है।
परिचयात्मक दृश्य के शुरुआत में गुजरात के अंदरूनी हिस्सों के एक ग्रामीण रेलवे स्टेशन पर एक ट्रेन पहुंचती है। डॉ. राव नाम का एक युवा डॉक्टर ट्रेन से उतरता है। इसी दृश्य से चलचित्र शुरू होता है, जो 1970 के दशक के एक भारतीय गांव को दर्शाता है। डॉ. राव उस गांव में प्रवेश करते हैं, जहां ज्यादातर दलित परिवार रहते हैं, जो दूध और अन्य उत्पाद बेचकर अपना जीवन यापन करते हैं। राव अपनी इच्छा शक्ति से दूध माफिया मिश्रा जी के अत्याचार का अंत करते हैं। उस फिल्म में अमरीश पुरी ‘मिश्रा’ के रूप में दिखाई देते हैं।
मंथन के कलाकार और सफलताएं
मंथन में गिरीश कर्नाड, नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी और अनंत नाग सहित उच्च स्तर के कलाकारों ने काम किया है। नाट्यकार विजय तेंदुलकर ने पटकथा लिखी थी, कवि कैफ़ी आज़मी ने संवाद लिखा था। प्रीति सागर ने बहुत लोकप्रिय गीत “मेरो गम कथा” गाया। मंथन ने हिंदी में सर्वश्रेष्ठ फीचर और सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए 1977 का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता।
मंथन का निर्माण गुजरात को-ऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड ने किया था। किसी को विश्वास नहीं होगा, लेकिन फिल्म को 5 लाख किसानों की मदद से बनाया गया था, जिन्होंने इसे बनाने में 2-2 रुपये का योगदान दिया था। हर मायने में मंथन एक प्रतिष्ठित फिल्म है। डॉ. कुरियन द्वारा निर्मित दुग्ध सहकारी समिति ने धार्मिक बाधाओं को तोड़कर और किसानों के शोषण को समाप्त कर समाज में श्वेत क्रांति की एक लहर पैदा की। कई राज्यों में फिल्म ने सहकारी समितियों को डेयरी क्षेत्र में उतरने के लिए प्रेरित किया।
फिल्म के वित्तपोषण की कहानी
निर्देशक श्याम बेनेगल बताते हैं- “हमने किसानों से कहा कि हम सभी आपके पास भीख का कटोरा लेकर आएंगे और कहेंगे कि हम आपके श्रम और समर्पण की कहानी दुनिया को दिखाना चाहते है। अतः आप हमें सिर्फ 2 रुपये दें। परंतु, अमूल के पास पहले से ही एक प्रणाली थी, जिससे वो किसानों से सुबह और शाम, साल के 365 दिन दूध एकत्र करते थे। हमने इसी संचार प्रणाली का उपयोग किया।”
डॉ. कुरियन ने किसानों से कहा, ‘हम हर दिन आपको ‘2 रुपये” कम देंगे। आपको अपने दूध 8 रुपये की जगह 6 रुपये में बेचने होंगे, क्योंकि हम आपकी कहानी में यह बताना चाहते हैं।‘ किसान राज़ी हो गए और इस तरह से इस फिल्म को वित्तपोषित किया गया। इस फिल्म में भोला (नसरुद्दीन शाह) की एक कालजयी पंक्ति है, जिसमे वो कहते हैं – “सिसोटी अपनी है, अपनी (यह हमारा समाज है)”। ऐसा माना जाता है कि मंथन ने ITC को ग्रामीण किसानों और कृषि सुधार को डिजिटल रूप से जोड़ने के लिए ई-चौपाल शुरू करने के लिए प्रेरित किया है।
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