‘अगर वो भी मुझसे प्यार करती है, तो वो मुझे पलटकर जरूर देखेगी। पलट, पलट, पलट….’
‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी ज़िंदगी’
अगर यह संवाद भूले से भी आपके मस्तिष्क में न आया हो, तो विश्वास मानिए, आप बॉलीवुड के क्षेत्र में अज्ञानी है। ये उस फिल्म के संवाद हैं, जिसपर अमेरिका के एक पूर्व राष्ट्रपति तक फिदा थे और ये वो फिल्म है, जिसके कारण एक थियेटर का खर्चा पानी आज तक चलता आ रहा है। यह संवाद वर्ष 1995 में प्रदर्शित फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ का है, जो अपने समय की सबसे सफलतम फिल्मों में से एक थी। इस आर्टिकल के माध्यम से हम आपको दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे की उस दुनिया से अवगत कराएंगे, जिसे आपने न देखा होगा और न ही कही सुना होगा।
जैसे हर चमकती वस्तु सोना नहीं होती, वैसे ही ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ की तारीफ में देश के कथित सिनेमा प्रेमी और क्रिटिक कुछ भी कहें, परंतु ये कथावाचन छोड़िए, मनोरंजन से भी इस फिल्म का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। वंशवाद, छेड़छाड़, नारी शोषण, भारतीय संस्कृति का उपहास, घटिया पैरेंटिंग, दकियानूसी विचार, आप जो भी सोच सकते हैं, इन सभी कुत्सित विचारों को इस फिल्म ने बढ़ावा दिया है। ‘कबीर सिंह’ जैसी फिल्मों को वामपंथियों ने फालतू में बदनाम कर रखा है, असल विष तो ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ में समाहित है।
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दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के राज मल्होत्रा और उनके ‘कूल डैड’
आप भी सोच रहे होंगे वो कैसे? बात करें नारीवाद की, तो अक्सर वामपंथियों की दलीलें सामने आती हैं कि कैसे ‘रहना है तेरे दिल में’, ‘कबीर सिंह’ जैसी फिल्मों ने कुत्सित विचार वाले, घृणित नारी विरोधी नायकों को बढ़ावा दिया है और कैसे उनके मुकाबले ‘दिल धड़कने दो’, ‘गली बॉय’ इत्यादि के पुरुष नायक समाज के लिए मिसाल है। लेकिन जब ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ का उल्लेख किया जाता है, तो इन्हीं वामपंथियों को सांप सूंघ जाता है। यदि ‘रहना है तेरे दिल में’ के मैडी या ‘कबीर सिंह’ के कबीर सही नहीं है, तो DDLJ के राज मल्होत्रा कौन से आदर्श पुरुष हैं?
आइए अब जरा DDLJ के राज मल्होत्रा की जन्म पत्री पर भी प्रकाश डालते हैं। ये संसार के ऐसे विचित्र प्राणी हैं, जिनके पिता इनके फेल होने पर इन्हें मारते या झिड़कते नहीं, बल्कि प्रशंसित करते हैं और उनके साथ पार्टी करते हैं। वास्तव में इतनी हेकड़ी से अगर हम लोगों ने कभी अपने छठी कक्षा का रिजल्ट भी अपने पिताजी को दिखाया होता, तो जमकर चप्पल वर्षा हो गई होती। लेकिन फिल्म में पिता-पुत्र के बीच के संबंध का ऐसा अतार्किक और अजीबो-गरीब चित्रण हुआ है, जिसे देखकर कोई भी अपना माथा पीट ले। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि फिल्म में पिता-पुत्र की इसी जोड़ी से प्रभावित होकर ‘कूल डैड’ का जो चित्रण फिल्म में किया गया, वही शाहरुख ने असल जीवन में अपनाया और आर्यन के ड्रग केस का मामला सबसे सामने है!
कैसे पसंद कर लिए गए ऐसे डायलॉग?
‘बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-मोटी बातें होती रहती हैं सेनोरिटा’ कोई रोमांटिक डायलॉग नहीं है, ये वास्तव में बॉलीवुड के चारित्रिक पतन का वो प्रतीक है, जिस पर लोगों ने तब ध्यान नहीं दिया था, लेकिन उसी के कारण भारतीय फिल्म उद्योग के पास पूरी क्षमता होते हुए भी वह विश्व का सबसे बेहतरीन फिल्म उद्योग नहीं बन पाया है। फिल्म में शाहरुख खान, काजोल से कहते हैं कि नशे में सिमरन (काजोल) ने उनके साथ शारीरिक संबंध बनाये, जिसके बाद काजोल रोने लगती हैं । फिल्म में राज का किरदार निभा रहे शाहरुख तब कहते हैं, ‘बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-मोटी बातें होती रहती हैं सेनोरिटा।’
इसके अलावा फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के एक दृश्य में सिमरन की मां उसके भाप लेने पर कहती हैं कि “इससे क्या होगा ? तुम्हारा रंग क्वीन एलीज़ाबेथ जैसा हो जाएगा?” गौर करने वाली बात है कि भारत में जहां कृष्ण की पूजा-अर्चना होती है, जहां के पुराणों में श्री राम से लेकर महादेव, श्री हरि विष्णु, श्री कृष्ण सबको मेघ वर्ण का बताया गया है, जहां माँ काली की पूजा की जाती है, वहां जनता द्वारा ऐसे डायलॉग कैसे पसंद कर लिए गए?
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इस पहलू पर भी ध्यान देना काफी जरुरी
अब बात चारित्रिक पतन पर आई है, तो दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के एक और खतरनाक पहलू पर भी प्रकाश डालते हैं। आजकल भारतीय संस्कृति को गाली देना, विदेशी संस्कृति को कूल ठहराना, ये काफी आम बात है, परंतु क्या आपको पता है कि दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे ने ही इस संस्कृति की नींव रखी थी? जी हां! क्योंकि इस फिल्म में ऐसी कई बातें हैं, जो वास्तव में चिंताजनक थी, लेकिन उन्हें ऐसे दरकिनार किया जाता है, जैसे चीन लोकतंत्र को और यूरोप आव्रजन से होने वाली समस्याओं को दरकिनार करते आया है।
उदाहरण के लिए फिल्म की नायिका एक ऐसे परिवार से आती है, जहां अपनी मर्जी से जीना तो दूर, एक छोटा सा काम करने के लिए भी याचना की दृष्टि से देखना पड़ता है। महिलाओं की इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह बचपन में ही तय कर दिया जाता है और भारतीय परिवार, विशेषकर चौधरी बलदेव सिंह जैसा परिवार तो इतना दकियानूस होता है कि वे विदेश के ‘कबूतरों तक को अपना नहीं मानते’। अंत में जब वे ‘जा सिमरन जा, जी ले अपनी ज़िंदगी’ कहते हैं, तो क्या वह नारीवादियों के किए Misogyny या नारीविरोधी मानसिकता का प्रतिबिंब नहीं था?
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यहां भी तो नायिका को अपने पिता यानी एक पुरुष से अपनी इच्छा से विवाह करने के लिए ‘आज्ञा’ लेनी पड़ी थी! माँ की स्वीकृति, उसकी इच्छा कोई मायने नहीं रखती। क्या इन्हीं आदर्शों के बल पर बॉलीवुड हमें ज्ञान देता आया है? अरे, ये तो वो बॉलीवुड है, जिसे यह तक नहीं पता कि लाल-बाल-पाल में लाल लाला लाजपत राय थे, लाल बहादुर शास्त्री नहीं! आखिर आज भी अगर सोचें, तो किसी न किसी फिल्म ने किसी न किसी रूप में समाज को कुछ सीख दी, पर DDLJ ने क्या दिया? अनेकों धारणाएं थोपी, भारतीयों को फिर से रूढ़ियों में जकड़ा, नारी विरोधियों का महिमामंडन किया और आपके जीवन को बर्बाद कर उसे एक खैरात की भांति कूल बना दिया और यह एक्सेप्टेबल नहीं है।
Sasta nasha karna chodh do, bas yahi keh sakta hu