आजकल के हमारे युवाओं से अगर कोई पूछे कि लोकतंत्र क्या है, तो ‘टप्प-से’ उनके मुख से अब्राहम लिंकन की “…of the people, by the people, For the people” वाली परिभाषा की अमृतवाणी झड़ने लगती है। परंतु अगर इसी अवधारणा के उत्कृष्टतम उद्देश्यों को परिभाषित करने वाली ‘स्वराज’ के अवधारणा के बारे में प्रश्न किया जाए, तो वे निरुत्तर मिलेंगे। हालांकि, उनके उत्तर न दे पाने के पीछे अपने राजनैतिक और ऐतिहासिक कारण है, परंतु हम अपनी सांस्कृतिक अज्ञानता से भी मुंह नहीं मोड़ सकते। स्वराज का अर्थ होता है ‘स्वयं का शासन’। आधुनिक भारत में इस सिद्धांत को महर्षि दयानंद सरस्वती ने प्रतिपादित किया था, जिसे बाद में महात्मा गांधी द्वारा अपना लिया गया। यह सहयोगी समुदाय के निर्माण और राजनीतिक विकेंद्रीकरण पर स्थापित एक व्यवस्था है। शासन हेतु यह लोकतंत्र से भी उत्कृष्ट सिद्धांत है। दादा भाई नौरोजी भी यह स्वीकार करते थे कि उन्होंने स्वराज शब्द और उसकी अवधारणा को सत्यार्थ प्रकाश से सीखा ।
परंतु आपको क्या लगता है, स्वराज क्या सिर्फ भारत की आधुनिक राजनीति की उपज है? अगर आपको ऐसा लगता है, तो आप पूर्णत: गलत हैं। स्वराज की संस्कृति हमारे प्राचीन भारत की सभ्यता की जड़ों में बहुत अंदर तक धंसी हुई है। स्वराज का अर्थ एक ऐसे शासन से है, जो स्वयं का, स्वयं से, स्वयं के लिए हो और इस सिद्धांत के प्रथम प्रतिपादक शिवाजी राजे थे, जिन्होंने मुगलिया हुकूमत और विदेशी आक्रांताओं के शासन के खिलाफ स्वराज के लिए आवाज बुलंद की और उनके परम भक्त बाल गंगाधर तिलक ने नारा दिया स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
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हालांकि, महात्मा गांधी ने अपने स्वराज में स्वयं के आध्यात्मिक और आत्मिक शुद्धिकरण के साथ-साथ आर्थिक समानता को भी सन्निहित किया। परंतु विशेष रूप से कांग्रेस पार्टी के लिए यह सिर्फ उस पत्र के समान था, जिससे ब्रिटिश साम्राज्यवाद और औपनिवेशिक सत्ता को भारत के बाहर धकेला जा सकता था। कांग्रेस के लिए स्वराज का संकल्प 750 शब्दों का एक छोटा दस्तावेज़ था, जिसका कोई कानूनी/संवैधानिक ढांचा नहीं था। यह स्वराज के पवित्र उद्घोष से अधिक यह कांग्रेसी घोषणापत्र ज्यादा लगता था। इसने ब्रिटिश शासन पर आरोप लगाया और भारतीयों पर होने वाले आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अन्याय को संक्षेप में व्यक्त किया। दस्तावेज़ ने भारतीयों की ओर से बात की और सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने के अपने इरादे को स्पष्ट किया। पर, भारत के स्वतंत्रता संग्राम में यह अवधारण उपजी कैसे और आखिर उपजी ही क्यों? आइए, इसकी एक तथ्यात्मक और सिलसिलेवार पड़ताल करते है।
1907 से ही भड़क उठी थी चिंगारी
बात तब की है, जब संपूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु 26 जनवरी 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा पूर्ण स्वराज के अवधारणा को प्रख्यापित किया गया था, जिसमें कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रवादियों ने एकजुट होकर पूर्ण स्वराज हेतु ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़ने का संकल्प लिया था। जवाहरलाल नेहरू ने 31 दिसंबर 1929 को लाहौर में रावी नदी के तट पर भारत का झंडा फहराया था। तब कांग्रेस ने सभी भारतवासियों से 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने के लिए कहा। भारत का झंडा कांग्रेस के स्वयंसेवकों, नेहरू, राष्ट्रवादियों और जनता द्वारा पूरे भारत में सार्वजनिक रूप से फहराया गया।
दादाभाई नौरोजी ने सन् 1886 में कांग्रेस के कलकत्ता बैठक में दिए अपने अध्यक्षीय भाषण में कनाडा और आस्ट्रेलिया की तर्ज पर स्वराज को राष्ट्रवादी आंदोलन का एकमात्र उद्देश्य बताया। ध्यान देने वाली बात है कि उस समय इन दोनों ही देशों पर ब्रिटिश ताज के तहत औपनिवेशिक स्वशासन था। सन् 1907 में अरविंद घोष (Sir Aurobindo) ने अखबार वंदे मातरम के संपादक के रूप में लिखना शुरू किया। उन्होंने लिखा कि राष्ट्रवादियों की नई पीढ़ी पूर्ण स्वराज या पूर्ण स्वतंत्रता से कम कुछ भी स्वीकार नहीं करेगी, क्योंकि यही यूनाइटेड किंगडम की स्वयं हेतु व्यवस्था है। अपने लेखन और भाषणों के माध्यम से उन्होंने बाल गंगाधर तिलक के साथ इस विचार को लोकप्रिय बनाया, जिससे यह राष्ट्रवादी आंदोलन का एक मुख्य हिस्सा बन गया।
अलग ही बहने लगी थी बयार
सन् 1930 से पहले भारतीय राजनीतिक दलों ने यूनाइटेड किंगडम से राजनीतिक स्वतंत्रता के लक्ष्य को खुले तौर पर स्वीकार कर लिया था। ऑल इंडिया होम रूल लीग भारत के लिए होम रूल की वकालत कर रही थी, जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर संप्रभु और स्वायत्त दर्जा देने की मांग थी, जैसा कि ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, आयरिश फ्री स्टेट, न्यू फ़ाउंडलैंड, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका को ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने दिया था। ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने डोमिनियन स्टेट्स का समर्थन किया और पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता के आह्वान का विरोध किया। उस समय की सबसे बड़ी ब्रिटिश समर्थक पार्टी इंडियन लिबरल पार्टी ने स्पष्ट रूप से भारत की स्वतंत्रता और यहां तक कि प्रभुत्व और नाममात्र की संप्रभु स्थिति का विरोध किया। मुस्लिम लीग अंग्रेज परस्त थी, तो वही लिबरल पार्टी को लगता था कि पूर्ण स्वराज से भारत में अराजकता, निरंकुशता और गृह युद्ध की स्थिति आ जायेगी। यह स्थिति ब्रिटिश साम्राज्य के साथ भारत के संबंधों को भी कमजोर कर देगा।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस उस समय की सबसे बड़ी भारतीय राजनीतिक पार्टी थी और राष्ट्रीय बहस के शीर्ष पर थी। कांग्रेस नेता और प्रसिद्ध कवि हसरत मोहानी 1921 में अखिल भारतीय कांग्रेस फोरम के माध्यम से अंग्रेजों से पूर्ण स्वतंत्रता (पूर्ण स्वराज) की मांग करने वाले पहले कार्यकर्ता थे। बाल गंगाधर तिलक, अरविंद घोष और बिपिन चंद्र पाल जैसे वयोवृद्ध कांग्रेस नेताओं ने भी ब्रितानी साम्राज्य से स्पष्ट भारतीय स्वतंत्रता की वकालत की थी। सीताराम सेकसरिया ने अपनी पुस्तक में बताया है कि स्वराज की भावना इतनी प्रबल हो चुकी थी कि ऐसा लगा जैसे भारत ने अपना प्रथम स्वतंत्रता दिवस 1930 को मनाया हो।
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सन् 1919 के अमृतसर में जालियांवाला नरसंहार के बाद ब्रिटिश शासन के खिलाफ काफी सार्वजनिक आक्रोश था। जिसके बाद 1920 में महात्मा गांधी और कांग्रेस ने स्वराज के लिए खुद को प्रतिबद्ध किया, जिसे राजनीतिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता के रूप में वर्णित किया गया। उस समय, गांधी ने इसे सभी भारतीयों की मूल मांग के रूप में वर्णित किया। उन्होंने विशेष रूप से कहा कि भारत ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर रहेगा या इसे पूरी तरह से छोड़ देगा, इस सवाल का जवाब अंग्रेजों के व्यवहार और प्रतिक्रिया पर निर्भर करेगा। सन् 1920 और 1922 के बीच महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने रॉलेट एक्ट का विरोध करने के लिए राष्ट्रव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन के साथ-साथ सरकार से भारतीयों को निकालने और राजनीतिक तथा नागरिक स्वतंत्रता से इनकार करने पर राष्ट्रव्यापी आंदोलन छेड़े।
साइमन कमीशन और नेहरू रिपोर्ट
सन् 1927 में ब्रिटिश सरकार ने भारत के संवैधानिक और राजनीतिक सुधारों पर विचार-विमर्श करने के लिए सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक सात-सदस्यीय समिति की नियुक्ति करके पूरे भारत को नाराज कर दिया। उस दल में सात सदस्य थे, जो सभी ‘गोरी चमड़ी’ वाले थे और ब्रिटेन के संसद से मनोनीत सदस्य थे। भारतीय राजनीतिक दलों से न तो सलाह ली गई और न ही इस प्रक्रिया में खुद को शामिल करने के लिए कहा गया।
भारत आगमन पर इस समिति के अध्यक्ष सर जॉन साइमन और अन्य आयोग के सदस्यों को सार्वजनिक प्रदर्शनों का सामना करना पड़ा, जो हर जगह उनका पीछा करते थे और इसका नेतृत्व कर रहे थे ‘पंजाब केसरी’ लाला लाजपत राय। साइमन कमीशन का विरोध करने के दौरान अंग्रेजों ने लाला लाजपत राय पर जमकर लाठियां बरसाई थी, जिसके कारण उनकी मृत्यु हो गई। एक प्रमुख भारतीय नेता की ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों द्वारा गंभीर पिटाई से मृत्यु ने भारतीय जनमानस को और अधिक आक्रोशित कर दिया। भगत सिंह ने लाला लाजपत राय की मृत्यु को अंग्रेजों की ताबूत में आखिरी कील तक कहा था।
अंततः कांग्रेस ने भारत के संवैधानिक सुधारों पर प्रस्ताव निर्मित करने के लिए एक अखिल भारतीय आयोग नियुक्त किया। अन्य भारतीय राजनीतिक दलों के सदस्य तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व वाले इस आयोग में शामिल हुए। नेहरू रिपोर्ट ने मांग की कि साम्राज्य के भीतर प्रभुत्व की स्थिति के तहत भारत को स्वशासन प्रदान किया जाए। अधिकांश अन्य भारतीय राजनीतिक दलों ने नेहरू आयोग के काम का समर्थन किया, परंतु इंडियन लिबरल पार्टी और ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया। अंग्रेजों ने आयोग के इस रिपोर्ट की उपेक्षा की और इसके तहत राजनीतिक सुधार करने से इनकार कर दिया।
डोमिनियन या गणतंत्र?
नेहरू रिपोर्ट कांग्रेस के बाहर क्या भीतर भी विवादास्पद थी। वे स्वराज की अवधारणा को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने में असफल रहें। सुभाष चंद्र बोस जैसे युवा राष्ट्रवादी नेताओं ने मांग थी कि पहले कांग्रेस अंग्रेजों के साथ सभी संबंधों को पूर्ण और स्पष्ट रूप से तोड़ने का संकल्प ले। भगत सिंह के संपूर्ण स्वतंत्रता के विचार से पूरा देश प्रभावित था। भगत सिंह ने 1927 में स्वराज का एक प्रस्ताव पेश किया था, जिसे महात्मा गांधी के विरोध के कारण खारिज कर दिया गया था। बोस ने भी ब्रितानी प्रभुत्व वाले स्वराज का विरोध किया, जो यूनाइटेड किंगडम के सम्राट को भारत के राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में बनाए रखना चाहता था और भारतीय संवैधानिक मामलों में ब्रिटिश संसद के लिए राजनीतिक शक्तियों को संरक्षित करने की वकालत करता था। बड़ी संख्या में रैंक-एंड-फाइल कांग्रेसियों द्वारा बोस के रुख का समर्थन किया गया ।
दिसंबर 1928 में, कोलकाता में कांग्रेस का सत्र आयोजित किया गया था। उस सत्र में महात्मा गांधी ने एक प्रस्ताव प्रस्तावित किया, जिसमें अंग्रेजों से दो साल के भीतर भारत को संप्रभु दर्जा देने का आह्वान किया गया। कुछ समय बाद गांधी ने अंग्रेजों को दिए गए समय को दो वर्ष से घटाकर एक वर्ष कर एक और भिन्न समझौता किया। जवाहरलाल नेहरू ने नए प्रस्ताव के लिए मतदान किया, जबकि सुभाष चंद्र बोस ने अपने समर्थकों से कहा कि वे प्रस्ताव का विरोध नहीं करें और स्वयं मतदान से दूर रहे।
हालांकि, जब बोस ने कांग्रेस के खुले सत्र के दौरान गांधी के उस प्रस्ताव में एक संशोधन पेश किया, जिसमें अंग्रेजों के साथ पूर्ण संबंध विच्छेद और संघर्ष की मांग की गई थी, तो गांधी ने इस कदम की निंदा की। गांधी ने कहा, “आप अपने होठों पर आजादी का नाम ले सकते हैं, लेकिन अगर इसके पीछे कोई सम्मान नहीं है तो आपकी सारी बड़बड़ाहट एक खाली सूत्र होगी। अगर आप अपनी बात पर अडिग रहने को तैयार नहीं हैं, तो आजादी कहां होगी?” 1350: 973 के मत अनुपात से इस संशोधन को अस्वीकार कर दिया गया और संकल्प को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया गया था।
31 अक्टूबर 1929 को भारत के वायसराय लॉर्ड इरविन ने घोषणा की, जिसमें कहा गया कि ब्रितानी सरकार एक गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन में भारतीय प्रतिनिधियों के साथ बैठक करेगी। भारतीय भागीदारी को सुविधाजनक बनाने हेतु वायसराय लॉर्ड इरविन ने बैठक पर चर्चा करने के लिए महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना और निवर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू से मुलाकात की। गांधी ने इरविन से पूछा कि क्या अधिराज्य की स्थिति (Dominion Status) के आधार पर ही सम्मेलन आगे बढ़ेगा, जिस पर इरविन ने कहा कि वो पूर्ण स्वराज का आश्वासन नहीं दे सकते, जिसके परिणामस्वरूप बैठक समाप्त हो गई।
पूर्ण स्वराज की घोषणा
अंग्रेजों को पूरी तरह से भारत से बाहर निकालने की इच्छा में पूरा देश एकीकृत हो चुका था। 26 जनवरी 1929 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वर्षिक अधिवेशन तत्कालीन पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में हुआ, जहां कांग्रेस के पूर्ण स्वराज का घोषणा-पत्र तैयार किया गया। नेहरू की अध्यक्षता वाले अधिवेशन के इस प्रस्ताव पूर्ण स्वराज को कांग्रेस का मुख्य लक्ष्य घोषित किया गया। प्रस्ताव में कहा गया था कि अगर अंग्रेजी हुकूमत 26 जनवरी 1930 तक भारत को उसका प्रभुत्व नहीं देती है, तो भारत खुद को स्वतंत्र घोषित कर देगा।
कांग्रेस ने 26 जनवरी की तारीख को पूर्ण स्वराज दिवस घोषित किया था। इस अधिवेशन में बड़ी संख्या में कांग्रेस के स्वयंसेवक, प्रतिनिधि, अन्य राजनीतिक दलों के सदस्यों ने विशेष रूप से एक बड़ी जनसभा में भाग लिया। कड़ाके की ठंड के बावजूद जनसभा में लोगों की उपस्थिति को लेकर कांग्रेस नेता पट्टाभि सीतारमैया ने कहा था कि “जोश और उत्साह की गर्मी, बातचीत के विफल होने पर आक्रोश, युद्ध के ढोल-नगाड़ों को सुनते ही चेहरे का लाल हो जाना- यह सब मौसम के विपरीत था।”
इस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष चुने गए और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी तथा सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे दिग्गज नेता कांग्रेस कार्य समिति में लौट आए। उन्होंने स्वतंत्रता की घोषणा को मंजूरी दी, जिसमें कहा गया था कि भारत में ब्रिटिश सरकार ने न केवल भारतीय लोगों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित किया है, बल्कि जनता के शोषण पर आधारित शासन ने आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से भारत को बर्बाद कर दिया है। पूर्ण स्वराज या पूर्ण स्वतंत्रता छीनकर प्राप्त करेंगे।
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नए साल की पूर्व संध्या पर जवाहरलाल नेहरू ने लाहौर में रावी के तट पर भारत का तिरंगा झंडा फहराया, जो बाद में पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा पढ़ी गई, जिसमें करों को वापस लेने की तैयारी शामिल थी। समारोह में भाग लेने वाली जनता की विशाल सभा से पूछा गया कि क्या वे इससे सहमत हैं, तब अधिकांश लोगों को अनुमोदन में हाथ उठाते देखा गया। केंद्रीय और प्रांतीय विधायिकाओं के 172 भारतीय सदस्यों ने प्रस्ताव के समर्थन में और भारतीय जनता की भावना के अनुसार इस्तीफा दे दिया।
स्वतंत्रता की घोषणा 26 जनवरी 1930 को आधिकारिक रूप से हो गई थी। महात्मा गांधी और अन्य भारतीय नेताओं ने तुरंत एक बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय अहिंसा मार्च की योजना बनानी शुरू कर दी, जिससे आम लोगों को अंग्रेजों पर हमला न करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। 12 मार्च 1930 को महात्मा गांधी द्वारा नमक सत्याग्रह की शुरुआत की गई। इसके बाद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को गति मिली और राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई। स्वराज का उद्देश्य कितना पूरा हुआ, यह तो अभी भविष्य के गर्भ में है, परंतु कांग्रेस द्वारा इस्तेमाल किए गए स्वराज के टूटे-फूटे स्वरूप ने भी आखिरकार स्वतंत्रता तो दिला ही दी!