श्रीलंका-चीन प्रकरण से सीख- पड़ोसी देश भारत के साथ रहेंगे तो बचेंगे वरना कुचल दिए जाएंगे

इकलौता भारत ही है, जो हर मोर्चे पर चीन की बैंड बजा सकता है!

श्रीलंका चीन कर्ज

Source- TFI

दीमक और चीन अब दुनिया की नजर में एक दूसरे के पर्याय हो गए हैं। जिस तरह से दीमक किसी भी चीज में लगकर उसे पूरी तरह से खोखला कर देता है, ठीक उसी तरह से अगर चीन किसी भी देश से चिपक जाए तो उस देश की आर्थिक स्थिति को जर्जर करके ही दम लेता है। पूरी दुनिया में चीन अपने डेब्ट एंड ट्रैप पॉलिसी के माया जाल के लिए कुख्यात है, जिसमें फंसकर कब कौन सा राष्ट्र तबाह और बर्बाद हो जाए, कहा नहीं जा सकता। इस समय उसके चंगुल में फंसा है भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका, जो चीन के कर्ज में इस कदर डूब गया है कि अपनी अर्थव्यवस्था को जीवित रखने लिए भी उसे चीन से सहायता लेनी पड़ रही है। इस आर्टिकल में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे चीन ने श्रीलंका को अपने कर्ज के जाल में फंसा कर लगभग दिवालिया बना दिया है और साथ ही इस बात पर भी नजर डालेंगे कि आखिर क्यो श्रीलंका-चीन प्रकरण से सबक लेते हुए पड़ोसी देशों को भारत के साथ आ जाना चाहिए, वरना वे कुचले जाएंगे या उन्हें चीन निगल लेगा।

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चीन के 5 बिलियन डॉलर के कर्ज तले दबा है श्रीलंका

आज श्रीलंका दिवालिया होने वाली स्थिति में जा पहुंचा है। भारत के इस पड़ोसी देश में आधारभूत वस्तुएं जैसे कि चीनी, चावल, दाल, दवाइयां, ट्रांसपोर्टेशन से जुड़ी चीजों के दाम आसमान छू रहे हैं। श्रीलंका इन चीजों के लिए आयात पर निर्भर है और परेशानी इस बात की है कि इन अतिआवश्यक चीजों के आयात के लिए उसके पास मात्र 15 दिन तक के ही पैसे बचे हैं। श्रीलंका में पेट्रोल की कीमत प्रति लीटर 50 रुपये बढ़कर 254 श्रीलंकाई रुपये और प्रति लीटर डीजल की कीमत 75 रुपये बढ़कर 176 रुपये हो गयी है। वहां भोजन पकाने के लिए लिए 20 फीसदी परिवार केरोसीन पर निर्भर है, लेकिन वहां केरोसिन की भी किल्लत पड़ी हुई है। श्रीलंका में फूड इन्फ्लेशन के बढ़ जाने से ये 25.7% तक जा पहुंचा है, जिससे आधारभूत दूध, ब्रेड जैसी चीजों के दाम कहीं अधिक हो गए हैं।

ये तो एक झलक है श्रीलंका की खराब होती आर्थिक स्थिति की, लेकिन श्रीलंका की ऐसी स्थिति का कारण चीन कैसे है, आइए समझते हैं। चीन के कर्ज में डूबकर श्रीलंका ने अपनी ऐसी स्थिति बना ली है। श्रीलंका ने चीन से कुल 5 बिलियन डॉलर का कर्ज लिया है और साथ ही वह भारत और जापान के कर्ज तले भी दबा हुआ है। हालांकि, श्रीलंका ने चीन से हाल ही में कर्ज की शर्तों में सरलता लाने की बात कही थी, पर चीन तो ठहरा चीन उसने तो साफ सीधा मना कर दिया।

राजपक्षे बंधुओं ने चीन का बंटाधार कर दिया

श्रीलंका की पिछली सरकारें भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं। श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने अपने शासनकाल में चीन पर इतना अधिक विश्वास किया कि इससे श्रीलंका गर्त में चला गया। महिंदा राजपक्षे ने दो निर्णय लिए- एक तो कृषि क्षेत्र में केमिकल फर्टिलाइजर को बैन किया गया और 100 फीसदी ऑर्गेनिक खेती करने को कहा गया। उसके बाद चीन से आयातित घटिया खादों ने वहां की कृषि उत्पादन को बुरी तरह से प्रभावित किया, जिससे उत्पादन ही आधा हो गया। फिर हंबनटोटा जैसे बंदरगाहों को बनाने के लिए भारी भरकम कर्ज ने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी। जो कर्ज 2.5% की ब्याज दर से मिलते रहे हैं, उसके लिए चीन ने श्रीलंका के लिए 6.5% की उच्च ब्याज दर तय थी, ऐसे में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर भार तो पड़ना ही था। उसके बाद भी देश की अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे चीन से कर्ज पर कर्ज लेते गए। इन सारी गतिविधियों के बीच चीन को हंबनटोटा पोर्ट को लगभग एक हजार करोड़ रुपये में लीज पर दे देने का श्रीलंका का फैसला भी कम घातक नहीं है। ऐसे में यह तो स्पष्ट हो गया है कि चीन से दोस्ती ने श्रीलंका को बर्बाद करके रख दिया है।

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तो वहीं दूसरी तरफ श्रीलंका टूरिज्म पर काफी निर्भर है, लेकिन वर्ष 2019 में हुए सीरियल बम ब्लास्ट और कोरोना ने इस सेक्टर को खूब क्षति पहुंचाई। जिससे फॉरेन करेंसी बर्बाद हुआ और इससे आयात भी प्रभावित हुआ है जो सीधा श्रीलंका के लोगों को प्रभावित कर रहा है। इस स्थिति से निपटने के लिए श्रीलंका ने भारत और चीन से सहायता मांगी है। तो वहीं ताक पर बैठा चीन अभी विचार कर रहा है कि श्रीलंका को 2.5 बिलियन डॉलर कर्ज दे दिया जाए या रहने दिया जाए। हालांकि, ये कर्ज कोरोना में चीन के दिए 2.8 बिलियन डॉलर की सहायता से अलग होगा। एक तरफ चीन श्रीलंका को भीतर से खोखला कर चुका है तो वहीं दूसरी तरफ अभी भी भारत ने श्रीलंका को आश्वस्त किया है कि वो अपनी नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी के तहत श्रीलंका की सहायता करेगा। इसके अलावा इस संकट से निकलने के लिए श्रीलंका अन्तरर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) से भी सहायता की मांग कर रहा है।

भारत के साथ लौटना ही एकमात्र विकल्प

मौजूदा समय में चीन-श्रीलंका प्रकरण को देखते हुए एक चीज तो स्पष्ट हो गई है कि चीन जो अपनी खूंखार महत्वाकांक्षाओं के लिए बदनाम है, उस पर भरोसा करना किसी भी देश के लिए, खासकर छोटे देशों के लिए घातक साबित हो सकता है। चीन पहले छोटे देशों को कर्ज के जाल में फंसाता है और फिर धीरे-धीरे कर्ज नहीं चुकाने की स्थिति में उन पर कब्जा जमाना शुरू कर देता है। अभी तक दुनिया के कई देशों के साथ चीन ऐसा कांड कर चुका है। चाहे वो युगांडा हो या श्रीलंका, मौजूदा समय में चीन पर भरोसा करना यानी अपने काल को निमंत्रण देने के समान है।

दूसरी ओर कोरोना के बाद से ही चीन दुनिया में अलग थलग पड़ चुका है। दुनिया के कई देशों ने उसे बुरी तरह चोक कर दिया है, वो सप्लाई चेन से बाहर हो गया है। वहीं, भारत का कद दिन-प्रतिदिन बुलंदियों को छू रहा है, दुनिया भारत को चीन विकल्प के तौर पर देख रही है। इससे इतर भारत हमेशा से हर तरह से अपने पड़ोसियों की सहायता करते आया है। ऐसे में अब समय है कि भारत के पड़ोसी देश, जिन्हें चीन से कुछ ज्यादा ही लगाव है वो कैसे भी क्षमा याचना या मान मनौव्वल कर भारत के साथ लौट आए। क्योंकि मौजूदा हालात ऐसे हैं कि यदि ये छोटे देश भारत के साथ नहीं आए तो उन्हें चीन या चीन जैसी खतरनाक महत्वाकांक्षा रखने वाली महाशक्तियां बुरी तरह से निगल जाएंगी और कोई कुछ नहीं कर पाएगा।

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