देश घर हैं, यहां के 135 करोड़ नागरिक इस विशाल गृह निवास के सदस्य हैं। व्यक्तिगत रूप से सभी सदस्य इस विराट घर के इकाई का प्रतिबिम्ब हैं और एक राष्ट्रभक्त नागरिक के रूप में बाल्यकाल से ही हम सभी के मन में इस विराट घर का एक आदर्श प्रतिबिम्ब बना हुआ है।
हम सभी जानते हैं कि हमारे सपनों का आदर्श भारत पूर्ण रूप से रामराज्य की ही परिकल्पना है। किंतु, हम यह भी जानते हैं कि रामराज्य की संकल्पना का प्रथम आधार राम ही है, अतः यह अप्राप्य है। लेकिन, एक राष्ट्र के तौर पर हमारे मन की हमेशा से अभिलाषा रही है कि हम उसके जितना नजदीक पहुंच सके, उतना पहुंचे। इतिहास के पन्नों में अपने स्वर्ण काल से गुजरते हुए भारत इस्लामी आक्रमणकारियों के चंगुल में फंस गया और फिर यही दमन चक्र गोरों के औपनिवेशिक शासन तक भी चलता रहा। स्वतंत्रता पश्चात हम सभी भारतवासीयों को लेगा कि अब हमारे अपने राजनेता हमारा नेतृत्व करते हुए इस देश को हमारे सपनों के भारत में परिवर्तित कर देंगे, पर ऐसा हुआ नहीं।
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कांग्रेस पार्टी सिर्फ एक परिवार की निजी संस्था
जिस दल ने मुख्य रूप से स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था, अब वही कांग्रेस पार्टी सिर्फ एक परिवार की निजी संस्था बनकर रह गई। इस परिवार ने कांग्रेस और कांग्रेस के माध्यम से पूरे देश को अपनी निजी संपत्ति समझी और उसी के हिसाब से अन्य दलों नेताओं और यहां के देशवासियों से बर्ताव किया। इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है मानो स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीयों का नेतृत्व करने वाली यह पार्टी अंग्रेजों के ज्यादा करीब थी। सिद्धांत से लेकर राष्ट्र संचालन में भी उनकी औपनिवेशिक शासन से समानता और लगाव अत्यधिक प्रतीत होता है। नेहरू अंतरराष्ट्रीय राजनेता के रूप में अपने व्यक्तित्व को भारत के संप्रभुता से ज्यादा महत्व देते थे। शायद इसीलिए, उन्होंने जम्मू कश्मीर को भारत में मिलाकर उसके अखंडता सुनिश्चित करने के बजाय एक अंतरराष्ट्रीय राजनेता के रूप में अंतरराष्ट्रीय कानून को तरजीह देते हुए इस मामले का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया।
संप्रभुता तो छोड़िए, हमारे नागरिकों को माननीय सहायता भी नहीं मिलती थी। जब-जब भारत किसी अकाल-भूचाल, बाढ-तूफान या फिर किसी भी प्राकृतिक आपदा और प्रकोप का भुक्तभोगी बनता था तब-तब अंतरराष्ट्रीय समुदाय मदद करने के बजाय सिर्फ मुंह ताकते रहते थे। हमारे नागरिकों को खाने के लिए भी वह अनाज दिए जाते थे, जो विदेशों में उनके पाले हुए पशु खाते थे। एक राष्ट्र के तौर पर शक्ति, स्वाभिमान और स्वावलंबी के सबसे निचले पायदान पर हम खड़े थे और औपनिवेशिक सत्ता के बाद अब हम जिस चक्रव्यूह में जकड़े हुए थे उसका नाम था वंशवाद की राजनीति। गांधी परिवार के इसी वंशवादी राजनीति ने ना सिर्फ अंदर बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विदेश की छवि को धूमिल किया। राजनीतिक अक्षमता और वीरता की वजह से राज्य स्तर पर अलगाववाद का सृजन हुआ और इसके साथ-साथ राजनेताओं के लूट तथा भ्रष्टाचार की वजह से देश का आर्थिक हालात गर्त में गिरता चला गया। सेवा, सभ्यता, संस्कृति और सर्वांगीण विकास के उलट अलगाववाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, कुशासन और सत्ता प्राप्ति ही राष्ट्र संचालन का एकमात्र नींव बन गया।
कोई भी देश ना तो हमें महत्व देता था ना ही हमारे संबंधों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार करने के काबिल समझता था। हमारे संप्रभुता के स्वीकार्यता का स्तर इतना नीचे था कि कोई भी देश जब चाहे हमारी थल, वायु और जल सीमाओं का अतिक्रमण कर देता था। पकिस्तान का महत्व अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए अधिक था और हम चीन तथा अन्य समकालीन राष्ट्रों से आर्थिक विकास के मामले में नित नए दिन पिछड़ते जाते थे। आप भी सोच रहे होंगे की हमारे नेता क्या कर रहे थे इस समय?
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अपनी राजनीति चमकाने में व्यस्त थे नेता
हम बताते हैं आपको। हमारे नेता अपनी छवि बनाने और विलासिता वाली जीवन जीने में व्यस्त थे। अपनी राजनीति चमकाने में व्यस्त थे। अपने को इतिहास में दर्ज करने और अंतररष्ट्रीय छवि बनाने में व्यस्त थे। आप स्वयं सोचिए, अगर ऐसी अवस्था में जब हमारे नागरिकों के पास खाने को लाले पड़े हों, चीन के सैनिक हमारे सीमा पर खड़े हों, उस समय नेहरु ने देश को “हिंदी चीनी भाई भाई” के भ्रमजाल में फंसाए रखा। सेना को लड़ने के लिए कोई संसाधन मुहैया नहीं करायी गयी। उनको सिर्फ उनके शौर्य के साथ युद्ध में झोंक दिया गया वो भी बिना मन से। हम ये युद्ध हार गए। इस अपमान का घाव लिए हम जीते रहे और टुच्चे से देश हम पर आक्रमण करते रहे। वो तो सेना का साहस था जो हमारी सीमाएं सुरक्षित रहीं अन्यथा।
सेना ने सीमा तो संभाल लिया लेकिन आर्थिक मोर्चे पर हमें इन नेताओं ने एक अंधकारमय गर्त में पंहुचा दिया। 1192 में हार्वर्ड से पढ़े मनमोहन सिंह ने हमारी आर्थिक संप्रभुता को भी गिरवी रख दिया। किन्तु, जब देश में कमल खिला तो देश उन्नति की ओर अग्रसर होने लगा। हम आर्थिक, सामरिक और सैन्य मोर्चे पर सशक्त होने लगे। मुस्कुराते हुए बुद्ध ने पोखरण में शक्ति का प्रदर्शन किया और 1999 में टुच्चे से पाकिस्तान को कारगिल में भारत के संप्रभुता से दुस्साहस करने का दंड दिया गया।
ऐसा लग रहा था मानों भारत फिर से उदित हो ही रहा है तब तक 2004 के आम चुनाव में कमल मुरझा गया और वंशवादी राजनीति की गर्मी इस देश में और बढ़ गयी। इस बार तो इस आग में ना सिर्फ देश के बहुसंख्यक समुदाय का दमन हुआ बल्कि मुस्लिमों का भरपूर तुष्टिकरण हुआ। राष्ट्र के आतंरिक सुरक्षा से समझौता किया गया। प्रधानमंत्री के पद को पुतला बना दिया गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी साख गिरती गयी। मुंबई हमला हुआ और कश्मीर का हमला आम बात हो गयी। नक्सलावाद बढ़ा, अलगाववाद बढ़ा और आतंकवाद बढ़ा और जो घटा वह था हमारा साख और हमारी महत्ता।
1990 के दशक के बच्चे देश की इस दुर्गति को देखकर दुखित थे। उन्हें अपने सपनों का भारत कभी वास्तविकता के धरातल पर उतरता हुआ प्रतीत नहीं हुआ, पर यह लोकतंत्र है। यहां पर अपमान और दमन की मियाद 5 साल में पूरी हो जाती है। भारत की जनता ने तो फिर भी 2014 तक झेल लिया किन्तु 2014 में उसे कमान दी जिसने सौगंध ली की वह देश को नहीं झुकने देगा। हमारे सपनों के भारत को एक और उम्मीद मिली। देश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी। अब हम सही मायनों में सिर्फ राज्यों के संघ से एक एकीकृत संप्रभु और शक्ति सम्पन्न राष्ट्र बनने की ओर उन्मुख हुआ। राम मंदिर बनना आरंभ हो गया और अनुच्छेद 370 समाप्त हो गया है जो कभी स्वप्न की बात थी। देश में ना सिर्फ एकीकृत कर व्यवस्था लागु हुई बल्कि आर्थिक रूप से एकीकरण कार्य भी प्रारंभ हुआ। सेना का आधुनिकरण अपने इस स्तर पर पंहुच गया की पाक को छोड़िये चीन की चल को नाकाम करने के लिए दुनिया भारत की ओर देखने लगी। अमेरिका मानवाधिकार के मुद्दे पर भारत से नसीहत लेने लगा और रूस भारत से राय। गेंहू से लेकर दवाई और टीके से लेकर स्टील तक भारत दुनिया के अन्य देशों को मुहैया करने लगा। परिवहन व्यवस्था सुधरी, सुरक्षा व्यवस्था सुदृढ़ हुई। देश सभी मायनों में अखंड हुआ। विदेशी मुद्रा कोष रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया और आतंकवादी थर्राने लगे। जो प्रधानमंत्री बिना पूछे बोल नहीं पाते थे वही इस बदले हुए भारत के प्रधानमंत्री विश्व के सबसे लोकप्रिय और एक्टिव अंतरराष्ट्रीय नेताओं में शामिल हो गए। भारत अब पुचकारा नहीं बल्कि घर में घुसकर मारने लगा और बालाकोट इसका उदहारण बना।
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सपनों का भारत अब आकार लेने लगा है
एक नागरिक के तौर पर हम ये दावे से कह सकते हैं की बालपन में जिस सपने के भारत के बारे में हमने सोचा था अब वह आकार लेने लगा है। यह भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का दौर है। इसी सांस्कृतिक पुनर्जागरण को प्राप्त करने के लिए जनता ने नरेंद्र मोदी को पुनः चुना। इस समर्थन से ना सिर्फ हमारे नेताओं का संबल बढ़ा बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की धमक भी मजबूत हुई।
विदेश मंत्रालय का जिम्मा राजनीतिक जनाधार वाले नेताओं से ज्यादा दक्ष और जानकार नेताओं को सौंपा जाने लगा। दिवंगत सुषमा स्वराज भी इसका उदाहरण रही और आज के समय में जयशंकार भी उदहारण हैं। इन्हीं के बलबूते हम अंतरराष्ट्रीय मंच से भारत के हित की आवाज उठा सके। अपनी कूटनीति और विदेश नीति को बिना किसी शक्तिशाली राष्ट्र के दबाव में लाये निष्पक्ष, संतुलित और राष्ट्रहित में रख सके। जब जरूरत पड़ी तब हमने ना सिर्फ दबाव डालने वाले देशों को आइना दिखाया बल्कि उन्हें मुहतोड़ जवाब भी दिया। विकासशील देशों के ना सिर्फ आर्थिक, सामरिक, रणनीतिक बल्कि निवेश के स्थान और बहुत बड़े बाज़ार भी बने। एक ऐसा बाज़ार जिसकी ताकत के आगे दुनिया सर झुकाए रहती है। हम अलग अलग देशों के समूहों में शामिल हुए, वो भी उनके निवेदन पर और अपनी शर्तों पर वो भी पूरी निष्पक्षता के साथ।
हाल की ही बात ले लीजिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो दिवसीय दौरे पर जापान गए जहां क्वाड समिट में भाग लेते हुए उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया और इस दौरान वे अलग ही आत्मविश्वास दिखायी दे रहा था। उनके हाव भाव और उनकी उपस्थिति से सशक्त भारत का चित्रण हुआ। पीएम फुमियो किशिदा को उनके बहुत अच्छे आतिथ्य के लिए पीएम मोदी ने शुभकामनाएं दी।
ध्यान देने वाली बात है कि हम सिर्फ आर्थिक, सामरिक और रणनीतिक सर्वोच्चता के बारे में ही क्यों बात करें? राष्ट्रीय और अंतररष्ट्रीय स्तर पर भी हमने झंडे गाड़े। योग से लेकर आयुर्वेद तक को दुनिया अपनाने लगी। हमारी सभ्यता और संस्कृति का वैश्वीकरण हुआ। हमने अपनी विरासत और सम्पदा को पुनः प्राप्त करने लगें और जिन महापुरुषों का इनमें योगदान था उन्हें उचित सम्मान भी देने लगे चाहे वो सरदार पटेल हों या फिर सुभाष चन्द्र बोस।
आज के परिदृश्य में देखें तो नरेंद्र मोदी और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में हमारे सपनों का भारत बनना आरम्भ हो चुका है। हालांकि, अभी हमें मीलों चलना है लेकिन हमने बहुत से मील के पत्थर भी स्थापित कर दिए हैं।