क्या आपको पता है कि अरब क्रांति का जनक कौन था? दरअसल, अफ्रीका के उत्तरी क्षेत्र में स्थित ट्यूनीशिया में जो क्रांति की लहर उठी, उसने धीरे-धीरे कई अरबी देशों को अपने लपेटे में लिया। इसका अनुचित लाभ कई अन्य देशों ने भी उठाने का प्रयास किया, परंतु जिस देश से यह प्रारंभ हुआ, वह अपने मूल उद्देश्य से तनिक भी नहीं भटका और परिणामस्वरूप आज वह पूर्णतया पंथनिरपेक्ष राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है। जी हां, हम बात कर रहे हैं ट्यूनीशिया की! इस आर्टिकल में हम विस्तार से जानेंगे कि कैसे ट्यूनीशिया ने अपने वर्तमान निर्णय से यह स्पष्ट कर दिया है कि उसके यहां इस्लाम के प्रभुत्व के लिए कोई स्थान ही नहीं है।
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चकित मत होइए, यही सत्य है। ट्यूनीशिया के वर्तमान राष्ट्रपति कैस सैयद ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा कि राष्ट्र के नवीन संविधान के ड्राफ्ट संस्करण में किसी राजधर्म के लिए कोई स्थान है, यानी ट्यूनीशिया प्रमुख रूप से इस्लाम बाहुल्य होकर भी एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र होगा, जहां कट्टरपंथ के लिए कोई स्थान नहीं होगा। इसका अनुमोदन करते हुए कानूनी एक्सपर्ट सदिक बेलाइड ने बताया है कि ऐसा करके वे ट्यूनीशिया के 2014 के संविधान के प्रथम आर्टिकल में संशोधन करने में सफल हो सकेंगे, जहां इस्लाम को राजधर्म और अरबी को राजभाषा बताया गया है।
ध्यान देने वाली बात है कि ज़िने अल अबिदिन बेन अली जैसे तानाशाह के नेतृत्व में ट्यूनीशिया का वही हाल था, जो आज तुर्की के इस्लामपरस्त तानाशाह एर्दोगन के नेतृत्व में है। परंतु, 2011 की क्रांति में ट्यूनीशिया की जनता ने ऐसा विद्रोह किया कि बेन अली को सत्ता छोड़िए, देश ही त्यागकर भागना पड़ा और फिर अरब क्रांति का वो युग प्रारंभ हुआ, जिसके कारण कई देशों में सत्ता परिवर्तन प्रारंभ हुआ। अब ये अलग बात है कि इससे ISIS नामक कोढ़ भी पैदा हुआ, लेकिन इसमें ट्यूनीशिया का कम और अमेरिका की भूमिका अधिक थी।
परंतु ट्यूनीशिया ऐसा क्रांतिकारी कदम उठाने वाली प्रथम देश नहीं है। आज से लगभग एक शताब्दी पूर्व, तुर्की में ऑटोमन साम्राज्य अपने पतन पर था, तो उद्भव हुआ था एक प्रभावशाली नेता का, जिनका नाम था – मुस्तफा कमाल अतातुर्क, जिन्हें कुछ लोग कमाल पाशा भी कहते हैं। उन्होंने तय कर लिया था कि अब उनके तुर्की में कट्टरपंथियों के लिए कोई स्थान नहीं होगा और वे जहां चाहे, वहां जा सकते हैं।
1920 से 1923 तक तुर्की पर आधिपत्य के लिए भीषण संग्राम हुआ, जिसमें अतातुर्क की विजय हुई। तत्पश्चात तुर्की का मानो कायापलट हो गया, जो तुर्की एक समय कट्टरपंथी इस्लाम का अभेद्य दुर्ग माना जाता था, वो पंथनिरपेक्षता का सरोवर बन गया, जिसपर किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था। परंतु ऐसे ही थे अतातुर्क। अब देखना यह होगा कि क्या ट्यूनीशिया उस समय के पंथनिरपेक्ष तुर्की का अनुसरण कर पाता है या नहीं।
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