चंट कहें, धूर्त कहें या लोमड़ी की तरह चालाक कहें, ये सारे विशेषण भारत के पड़ोसी देश चीन के लिए उत्कृष्ट और उपयुक्त जान पड़ते हैं। जिस तरह से चीन भारत के विरुद्ध षड्यंत्र रचता है, जिस तरह से भारत के दुश्मन देश पाकिस्तान के भारत विरोधी मंसुबों को चीन शह देता है और जिस तरह से यह देश डेब्ट एंड ट्रैप नीति छोटे छोटे देशों पर आजमाता है, उससे कम से कम चीन की धूर्तपने की गहरायी को तो आंका ही जा सकता है। अब ऐसी सोच वाला देश जहां और जिस भी समूह में उपस्थिति रहेगा अपने रंग-ढंग तो दिखाएगा ही लेकिन दुनिया तो ऐसे नहीं चलती है न।
चीन है सबसे बड़ा बाधक
ब्रिक्स को ही ले लीजिए, वैसे तो ये समूह विश्व में अति शक्तिशाली समूह के रूप में उभर सकता है लेकिन इसका सबसे बड़ा बाधक अगर कोई है तो इस समूह का ही एक सदस्य देश चीन है और चीन की धूर्ततापूर्ण नीतियां और सोच है। प्रश्न उठता है कि भला वो कैसे? तो इस लेख में हम यही समझने का प्रयास करेंगे।
दुनिया में देशों के कई-कई समूह हैं जिसका अलग- अलग क्षेत्रों में वर्चस्व है। पांच देशों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका को मिलाकर बनाया गया एक ऐसा ही समूह है ब्रिक्स जो वैसे तो सबसे शक्तिशाली अंतरराष्ट्रीय समूह के रूप में उभरने की तरफ बढ़ रहा है लेकिन उसके उभार और अधिक से अधिक सशक्त होने में कोई वर्तमान में अगर सबसे बड़ी बाधा के रूप दिखायी देता है तो वो है चीन।
दरअसल, इस तरह की खबरें हैं कि ईरान और अर्जेंटीना ने ब्रिक्स फोरम में शामिल होने की इच्छा जतायी है और इसके लिए आधिकारिक रूप से आवेदन भी कर दिया है। इस संबंध में रूसी समाचार एजेंसी TASS द्वारा एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की गयी है जिसके बाद लोग इस बारे में जान पाए। इस रिपोर्ट में, रूसी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मारिया ज़खारोवा के द्वारा आवेदन की पुष्टि का हवाला दिया गया। बाद में ईरान और अर्जेंटीना की सरकारों ने इस खबर पर मुहर लगा दी।
ईरानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हैं सईद खतीबजादेह जिन्होंने कहा है कि ब्रिक्स की सदस्यता के लिए तेहरान ने आवेदन किया है। साथ ही राजनयिक को ये भी आशा है कि ब्रिक्स के संचालन में ईरान योगदान करने और संगठन को लाभ देने में सक्षम होगा। वहीं अर्जेंटीना के राष्ट्रपति अल्बर्टो फर्नांडीज की ओर से हाल ही में कहा गया कि उनका देश इस संघ का पूर्ण सदस्य बनने की इच्छा रखता है। ये बात ‘ब्रिक्स प्लस’के सम्मेलन में कही गयी। वहीं शिखर सम्मेलन से पहले ही समूह में शामिल होने की इच्छा सऊदी अरब ने भी व्यक्त की थी।
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ईरान और अर्जेंटीना के शामिल होने से हो सकता है लाभ
ईरान और अर्जेंटीना के बारे में अगर बात करें तो ध्यान देना होगा कि समूह में दोनों देशों को शामिल करने से भू-राजनीतिक समीकरण में भारी परिवर्तन देखने को मिल सकता है। ईरान के पास दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गैस भंडार है। रोचक बात यह है कि यह फोरम के प्रमुख सदस्य रूस के बाद दूसरे स्थान पर है।
इतना ही नहीं, इस बात की भी बहुत अधिक संभावना है कि परमाणु-सशस्त्र राज्य के रूप में ईरान स्थापित हो सकता है। यहां तक कि रूस की तरह ईरान भी अमेरिका के खोखलपन और निरर्थक प्रतिबंधों से तंग आ चुका है। रूस के साथ उसके ब्रिक्स के सहयोगी हैं तो वहीं अगर ईरान इस समूह में शामिल हो जाता है तो लाभार्थी बन सकता है। इससे भारत को कोई समस्या हो ऐसी स्थिति दिखायी नहीं पड़ती है क्योंकि शिया बहुल राष्ट्र के साथ उसकी कोई विशेष समस्या नहीं है।
इसी तरह, अर्जेंटीना को ब्रिक्स में शामिल करना भी एक अच्छा कदम साबित हो सकता है। अर्जेंटीना के निर्यात में 54 प्रतिशत फसलें शामिल हैं, जबकि 31 प्रतिशत में औद्योगिक सामान शामिल हैं। यह अधिक से अधिक बाजार तक पहुंच प्रदान कर सकता है। बस शर्त ये है कि अर्जेंटीना का प्रतिद्वंद्वी ब्राजील कोई बाधा पैदा न करे जो कि ब्रिक्स का पहले से ही सदस्य है।
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भारत-चीन की तनातनी के बारे में दुनिया जानती है
इन जानकारियों से एक बात तो साफ हो जाती है कि आगे चलकर ब्रिक्स और सशक्त होने वाला है। ऐसे में अगर ब्रिक्स में सब ठीक है तो फिर बाधाएं क्या हैं? दरअसल, एक बड़ा मुद्दा है जिस पर ध्यान देना होगा। वह है भारत और चीन के बीच प्रतिद्वंद्विता। यह दुनिया जानती है कि देश के रूप में ये दोनों ही बड़े नाम हैं। देखने वाली बात है कि विशेषकर अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा किए गए सक्रिय पहल में भारत ने चीन के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया था। शी जिनपिंग ने तो भारत का दौरा भी किया लेकिन ये सब तभी तक सही दिखायी दिया जब तक चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएं उस पर हावी नहीं हो गयीं।
चीन ने धूर्तता का परिचय देते हुए गलवान घाटी पर आक्रमण किया। वैसे भारतीय सेना ने पीएलए को खदेड़ दिया लेकिन भारत-चीन के बीच गलवान को लेकर तनाव बरकरार रहा। 15 दौर की वार्ता के बाद भी चीन सीमा वार्ता के साझा आधार को मानने को तैयार ही नहीं है। बैकचैनल पर यह देश विश्वासघात करता रहा है।
ये तो रहा भारत के संदर्भ में चीन के धूर्तपने का उदाहरण लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति भी कम घातक नहीं है उन देशों के लिए जो छोटे हैं और अविकसित हैं। इस मामले में चीन का विश्वभर में चरित्र चित्रण बहुत ही बुरा है। चाहे बात श्रीलंका, भूटान, नेपाल या पाकिस्तान की हो, चीन के विस्तारवादी नीति के ये देश भुक्तभोगी हैं। पाकिस्तान की बात आयी ही है तो ये भी भूलना नहीं होगा कि चीन पाकिस्तान के भारत विरूद्ध किए गए नीच कार्यों का सबसे बड़ा समर्थक रहा है। पाकिस्तान आर्थिक रूप से इतना पंगु है कि चीन के आगे उसकी एक नहीं चलती है। चीन अपने भारत विरोधी रुख पर इस तरह से अड़ गया है कि वह इस क्षेत्र में आतंकवाद को प्रभावी ढंग से बढ़ावा देने में लगा है।
समाधान क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में ही सबकुछ समाहित है। चीन को बस इतना करना है कि वह भारत के साथ अपने सीमा विवादों को सुलझा ले और अतंकियों के पालक पाकिस्तान को अपना समर्थन देना बंद कर दे। चीन को अपनी बिना कारण वाली विस्तारवादी जिद और बिना कारण भारत के साथ कुत्सित भावना से युक्त प्रतियोगिता वाले भाव को छोड़ देना होगा। क्योंकि चीन की ऐसी भावना अब रूस समेत दूसरे देशों को भी नुकसान पहुंचा रही है। निश्चित रूप से चीन नहीं चाहेगा कि रूस पूरी तरह से भारत का साथ दे। चीन अगर वैश्विक मंच पर ब्रिक्स का वर्चस्व चाहता है, अगर वो इस समूह में शक्ति भरना चाहता है तो उसे नियमों और मानवता को ध्यान में रखना ही होगा। ये एक बड़ा सत्य है कि ब्रिक्स सबसे शक्तिशाली अंतरराष्ट्रीय समूह तभी बन सकता है जब चीन अपने तरीके सुधार ले।
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