भारत, एक स्वतंत्र देश है जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश, जहां सबको इतनी आजादी है कि वह सरकार के किसी भी फैसले पर प्रश्न उठा सकते हैं, किसी भी केस के बारे में जानने या नीति को समझने के लिए रिपोर्ट दायर कर सकते हैं। इसी पारदर्शिता के चलते किसी ने एक आरटीआई (राइट टू इंफॉर्मेशन) दायर की जिसमें पूछा गया कि जिस तरह भारत के संविधान में पारदर्शिता है।
जिससे यदि कोई मंत्री घोटाला करें तो उसकी जांच करने के लिए एक अलग समिति होती है। अगर प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार करें तो उसकी जांच की लिए एक अलग कमेटी होती है। इससे पूरे सिस्टम में हर कोई एक दूसरे का जवाबदेही जरुर होता है ताकि किसी के भी पास सिस्टम में इतनी शक्ति ना हो कि वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता रहे और कोई पूछने वाला ना हो। हर किसी को अपने किए कृत्यों का जवाब देना ही पड़ता है। लेकिन प्रश्न यह है कि न्यायपालिका किसे जवाब देती है? यदि न्यायपालिका में भ्रष्टाचार हो या कुछ गलत हो तो कौन उसकी जांच करता है?
कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने शुक्रवार को लोकसभा में इसका जवाब देते हुए कहा कि, “न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को रोकने के मुद्दे न्यायपालिका को स्वयं ही संबोधित करने होते है क्योंकि यह संविधान के तहत एक स्वतंत्र अंग है।“ उन्होंने कहा कि उच्च न्यायपालिका में जवाबदेही 7 मई, 1997 को हुई पूर्ण न्यायालय की बैठक में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई “इन-हाउस प्रक्रिया” के माध्यम से रखी जाती है। “इन-हाउस प्रक्रिया” के अनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और 25 उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के आचरण के खिलाफ शिकायतें प्राप्त करने के लिए सक्षम हैं।
ठीक इसी तरह, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के आचरण के खिलाफ शिकायतें प्राप्त करने के लिए सक्षम हैं। उन्होंने आगे बताया, “भारत के संविधान के अनुच्छेद 235 के अनुसार, जिला अदालतों और उसके अधीनस्थ अदालतों पर नियंत्रण (संबंधित) उच्च न्यायालयों में निहित है।“
भ्रष्टाचार के आरोपों के संबंध में प्राप्त शिकायतों और अभ्यावेदनों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश या संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, जैसा भी मामला हो, द्वारा उचित कार्रवाई के लिए कार्रवाई की जाती है। इसी तरह, अधीनस्थ न्यायपालिका के सदस्य के खिलाफ प्राप्त शिकायतों / अभ्यावेदन को संबंधित एचसी के रजिस्ट्रार जनरल को उचित कार्रवाई के लिए भेजा जाता है। आसान शब्दों में, यदि न्यायपालिका में कोई भ्रष्टाचार होता है तो उसकी जांच न्यायपालिका स्वयं करती है। इसके लिए सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती।
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इसके अलावा, जिस तरह से चुनाव में खड़े होने से पहले या कोई भी मंत्री पद ग्रहण करने से पहले व्यक्ति को अपनी संपत्ति की पूरी जानकारी देनी पड़ती है इसके ठीक विपरीत न्यायपालिका में ऐसा कुछ नहीं होता। किसी भी जज को संविधान उनकी संपत्ति बताने के लिए बाध्य नहीं करता।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, यह तीनों ही केंद्र सरकार के मुख्य रूप है जहां विधायिका संसद है और कार्यपालिका की शक्ति प्रधानमंत्री के अंतर्गत आती है, वहीं न्यायपालिका पर सर्वोच्च न्यायालय का आदेश चलता है। जहां विधायिका और कार्यपालिका एक दूसरे के फैसलों पर प्रश्न उठा सकते हैं जिससे कि सरकार में एक “चेक एंड बैलेंस” बना रहे इसके ठीक विपरीत न्यायपालिका पर किसी का जोर नहीं चलता न्यायपालिका किसी को जवाब देने के लिए बाध्य नहीं है। न्यायपालिका से कोई प्रश्न नहीं कर सकता। ऐसे में केवल एक ही सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका को इतनी ताकत मिलना सही है या फिर कोई ऐसा भी होना चाहिए जो न्यायपालिका से भी सवाल करने की ताकत रखता हो? क्या न्यायपालिका में कभी ‘चेक एंड बैलेंस’ जैसा कोई सिस्टम आएगा?
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