“शौर्यम, दक्षम, युध्धेय”
भारतीय सेना के पराक्रम के उल्लेख से ही हमारे मन मस्तिष्क में वीरता, शौर्य एवं साहस का संचार हो उठता है। भारत माता की जय अथवा वन्दे मातरम की हुंकार लगते ही प्रतीत होता है कि बस एक आह्वान होते ही अब मां भारती की सेवा में उपस्थित होने का अवसर मिल जाए और इस पराक्रम का सबसे उच्चतम प्रतीक हैं भारत के विशेष सशस्त्र बल यानी पैरा स्पेशल फोर्सेज़, जिन्हें हम पैरा SF के नाम से भी जानते हैं और जिनके नारे से हम भली भांति परिचित हैं – “बलिदान परम धर्म!”
परंतु क्या आपको ज्ञात है कि इसकी उत्पत्ति एक अफसर के साथ अन्याय से हुई थी? क्या आप इस बात से परिचित हैं कि हमारे देश पर एक ऐसा खतरा भी मंडरा रहा था जो न केवल 1962 के पश्चात भारत को नष्ट कर सकता था अपितु हमारे अस्तित्व का ही समूल विनाश कर सकता था? परंतु इस संकट का न केवल विनाश हुआ अपितु इससे एक ऐसी सेना उत्पन्न हुई जिसने भारतीय थलसेना के शौर्य को वैश्विक स्तर पर अंकित करने में सहायता प्रदान की। टीएफआई प्रीमियम में आपका स्वागत है। ये कथा है ऑपरेशन जिब्राल्टर की और उससे उत्पन्न हमारे भारत के विशेष सशस्त्र बलों की वीरता की।
एक षड्यंत्र से एक भव्य संस्थान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है? परंतु ऐसा ही है। भारत संकट में भी अवसर ढूंढ लेता है। यूं ही नहीं कहा जाता है –
“आदि काल से यही रही है परंपरा,
कायर भोगे दुख सदा, वीर भोग्य वसुंधरा”
इस कथन को एक योद्धा ने अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया था इतना कि जब उनके साथ अन्याय हुआ था तो उन्होंने पराजय स्वीकारने के बजाए उसे अवसर के रूप में लिया। इस व्यक्ति का नाम था मेघ सिंह राठौड़। तब वो 1 राजपूताना राइफल्स के साथ तैनात थे जो बाद में 3 ब्रिगेड ऑफ द गार्ड्स रेजीमेंट में सम्मिलित हुए। स्वभाव से आक्रामक एवं देशभक्त मेघ एक मिशन में स्थिति की चिंता किये बिना बॉर्डर पार कर गए और सफलतापूर्वक अपना उद्देश्य पूर्ण कर अपने पोस्ट पर लौटे। परंतु इसके लिए उन पर कार्रवाई की गई और उन्हें पदावनति का सामना करना पड़ा। लेफ्टिनेंट कर्नल से उन्हें मेजर के पद पर पटक दिया गया था।
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परंतु मेघ सिंह ने पराजय नहीं मानी। उन्होंने आपदा को अवसर में परिवर्तित करने का निर्णय किया। उन्होंने पराक्रमी अफसर लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह से वार्तालाप की जो तब भारतीय सेना के सबसे गणमान्य अफसरों में से एक थे और जिनके पराक्रम का अंश कई लोगों ने 1947-48 के भारत-पाक युद्ध में भी देखा जिसके लिए उन्हें वीर चक्र से भी सम्मानित किया गया था। अपनी पुस्तक ‘In The Line of Duty – A Soldier Remembers’ में लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह लिखते हैं कि मेजर मेघ सिंह ने उनके समक्ष प्रस्ताव रखा कि उन्हें एक ऐसी सेना तैयार करने की स्वतंत्रता दी जाए जो किसी भी स्थिति में सबसे कम समय में सबसे घातक प्रहार करने में सक्षम हो। वो एक ऐसी कमांडो सेना तैयार करना चाहते थे जिससे आने वाले समय में कोई भी राष्ट्र भारत पर आक्रमण करने से पूर्व हज़ार बार सोचे। हरबक्श सिंह ऐसे अनोखे विचारों को कभी भी अनदेखा नहीं करते थे और उन्होंने तुरंत इस प्रस्ताव को स्वीकार किया परंतु इस प्रस्ताव के पीछे एक और कारण भी था।
ये समय बड़ा विकट था। वर्ष था 1965, अब न ‘हिन्दी चीनी भाई भाई’ थे और न ही ‘चाचा नेहरू’ का ‘आशीर्वाद’ भारत के सर पर था। भारत आर्थिक और सामरिक रूप से एक बिखरा हुआ और कुचला हुआ राष्ट्र बना हुआ था जिसकी कमान लाल बहादुर शास्त्री के हाथ में थी। परंतु इनकी परीक्षा होनी बाकी थी।शास्त्री जी इस पद के लिए तैयार नहीं थे परंतु जब उन्हें दायित्व सौंपा जा रहा था तब इस कर्तव्य से पीछे हटना भी किसी पाप से कम न होता। ऐसे में शास्त्री जी ने पद को संभाला परंतु इस पद पर रहते हुए कदम-कदम पर उन्हें अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा था। एक तरफ देश की अर्थव्यवस्था संकट में थी दूसरी ओर देश के समक्ष न कोई नीति थी न कोई विचार था- ऊपर से चीन और पाकिस्तान जैसे धूर्त शत्रु मुंह बाये खड़े थे।
इसी बीच पाकिस्तान ने एक नई युक्ति निकाली- 1965 में पाकिस्तान भारत पर छल से कब्जा करने को तैयार था। पाक अपने नापाक ऑपरेशन के अंतर्गत कश्मीर को रक्तरंजित करने के लिए पूरी तरह से तैयार था। अप्रैल में कच्छ में मिली एक कूटनीतिक विजय से उत्साहित होकर पाकिस्तान ने एक ‘नया षड्यन्त्र’ रचा – ऑपरेशन जिब्राल्टर। जब मध्य एशिया, विशेषकर मिडिल ईस्ट में इस्लाम की स्थापना हो चुकी थी तो अरब आक्रमणकारियों ने 8वीं सदी में Hispania Peninsula पर आक्रमण किया और अपना आधिपत्य जमाया जिसमें वर्तमान पुर्तगाल और स्पेन भी सम्मिलित हैं।
इसी भांति पाकिस्तान कश्मीर पर आधिपत्य स्थापित कर भारत को एक ऐसा घाव देना चाहता था जिससे वह कभी न उबर सके। यही कारण था कि इस ऑपरेशन का नाम ऑपरेशन जिब्राल्टर रखा गया जिसके अंतर्गत कश्मीरियों को ‘जिहाद’ के नाम पर उकसाया जाता और उन्हें भारतीय फौजों का सर्वनाश करने के लिए प्रेरित किया जाता।
उनकी योजना थी कि कश्मीर में हज़ारों की संख्या में आतंकियों के वेश में पाकिस्तानी सेना के जवानों को घुसाया जाए, कश्मीरियों को विद्रोह के लिए भड़काया जाए एवं सम्पूर्ण कश्मीर को भारत से अलग कर दिया जाए। इस कार्य के लिए राजा हबीबुर रहमान खान, मेजर मलिक मुनव्वर खान जैसे अफसरों को लगाया गया और अरब आक्रांताओं के सफलतम स्पेन अभियान के नाम पर इसका नाम ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ रखा गया। अब ये हबीबुर रहमान और मलिक मुनव्वर सुने-सुने से नहीं लगते हैं? कैसे नहीं लगेंगे, ये हमारे ही देश के तो थे और कभी यही व्यक्ति एक समय नेताजी के आज़ाद हिन्द फौज का अभिन्न अंग हुआ करते थे लेकिन धर्मांधता ने इन्हें अलग ही मार्ग दिखा दिया –
https://twitter.com/LaffajPanditIND/status/1426877337375698948
परंतु इस पूरे प्रकरण में उन्होंने न तो भारतीयों की शक्ति को आंकने की सोची और न ही ये जानने का प्रयास किया कि भारतीयों का सेनाध्यक्ष कौन है। उस समय भारत की थलसेना की कमान जनरल जयंतो नाथ चौधरी के हाथों में थी जिन्होंने मेजर जनरल के तौर पर न सिर्फ हैदराबाद में निज़ाम शाही और उसके रजाकारों के छक्के छुड़ाने में एक अहम भूमिका निभाई थी अपितु भारत का तीसरा विभाजन होने से भी बचाया था।
ये बात भारतीय सेना के विश्वसनीय सूत्रों को भी पता चली। जब पाकिस्तान ने भारत पर हवाई हमला किया तो परंपरानुसार राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुला ली जिसमें तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मंत्रिमंडल के सदस्य शामिल थे। प्रधानमंत्री उस बैठक में कुछ देर से पहुंचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ। जब प्रधानमंत्री को स्थिति का आभास हुआ तो उन्होंने आपातकालीन बैठक बुलाई। उन्होंने स्पष्ट कहा, “भारत केवल घुसपैठियों (पाकिस्तानियों) को अपने भूमि से हटा नहीं सकता। घुसपैठ यदि जारी रहती है तो हमें भी अपनी लड़ाई दूसरी ओर मोड़नी होगी।” शेखर कपूर और एबीपी न्यूज द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित वेब सीरीज़ ‘प्रधानमंत्री’ में लालबहादुर शास्त्री का किरदार इसी बात को स्पष्टता से रेखांकित करता है।
इसके अलावा कश्मीरियों ने भी पाकिस्तान की योजना में उनका कोई साथ नहीं दिया और उल्टे वे जहां भी गए उन्होंने खुलकर भारतीय सेनाओं की सहायता की और उन्हें पाकिस्तानी सेनाओं एवं मुजाहिद्दीनों के बारे में आवश्यक जानकारी दी। अब ये कैसे संभव होता यदि भारतीय सैनिकों ने अपना इंफॉर्मेशन नेटवर्क न तैयार किया होता?
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मेजर मेघ सिंह के ‘मेघदूतों’ ने इस जगह एक महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य निभाई होगी जिसके कारण ऑपरेशन जिब्राल्टर न केवल असफल हुआ अपितु भारत एक बार फिर एक बहुत बड़ी त्रासदी का शिकार होने से बच गया। अपने वचन अनुसार लेफ्टिनेंट जनरल हरबक्श सिंह ने मेजर मेघ सिंह को न केवल उनका खोया हुआ गौरव वापस दिया अपितु उन्हें पुनः पदोन्नत भी किया और उन्हें युद्ध में अपने पराक्रम के लिए वीर चक्र से सम्मानित भी किया गया। इसके पश्चात उन्होंने सेवानिवृत्ति लेते हुए बीएसएफ़ जॉइन की और डीआईजी के पद पर रिटायर हुए।
मेजर मेघ सिंह के प्रयासों का ही फल था कि भारत में PARA SF की स्थापना आधिकारिक रूप से 1 जुलाई 1966 में हुई थी जिन्हें सक्रिय रूप से 1971 के युद्ध में प्रयोग में लाया गया। यूं तो देश में हमारे यहां पैरा रेजीमेंट अवश्य थी परंतु PARA SF की बात ही कुछ और थी। धीरे-धीरे इनकी प्रेरणा से वायुसेना के गरुड़ कमांडो, नेवी के MARCOS, NSG के SAG कमांडो इत्यादि तैयार होने लगे और मेजर मेघ सिंह की यज्ञ आहुति सफल रही। धन्य है ये भारत, धन्य है इसकी सेना!
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