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खालिस्तान : पाकिस्तान का एकमात्र सफल प्रोजेक्ट

यह योजना आज भी भारत के लिए है सरदर्द!

Animesh Pandey
द्वारा Animesh Pandey
25 March 2023
in मत, विश्व
0
खालिस्तान : पाकिस्तान का एकमात्र सफल प्रोजेक्ट
94
व्यूज़
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पाकिस्तान अपने आप में शोध का विषय है। ये वो देश है जो खुद तो बर्बाद हो जाएगा, परंतु भारत के विरुद्ध षड्यन्त्र रचना नहीं छोड़ेगा। लगभग हर मोर्चे पर भारत के हाथों पाकिस्तान ने मुंह की खाई है, परंतु एक मोर्चा ऐसा भी है, जहां पाकिस्तान ने अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की है।

कि कैसे खालिस्तान की योजना पाकिस्तान के अनेक षड्यंत्रों में से एकमात्र ऐसा सफल प्रोजेक्ट है, जो आज तक भारत को सरदर्द देता आ रहा है। तो अविलंब आरंभ करते हैं।

“भारत की बर्बादी” ही पाकिस्तान का अस्तित्व

कोई भी देश जब अस्तित्व में होता, तो उसके अपने कुछ लक्ष्य, कुछ आदर्श होते हैं। चाहे वहाँ लोकतंत्र हो या तानाशाही, परंतु हर राष्ट्र का अपना ध्येय, अपने सिद्धांत होते है। परंतु भीख  में मिले देश और दान में मिले हथियारों वाला पाकिस्तान इन सब नीतियों और विधानो से सदा से विभक्त रहा रहा है।

भारत की बर्बादी में कैसे पाकिस्तान को आनंद मिलता है, इसके लिए कोई विशेष शोध करने की आवश्यकता नहीं।

आधिकारिक तौर पर 4 बार और अनाधिकारिक रूप से प्रतिदिन युद्ध लड़ता पाकिस्तान निरंतर भारत को अनेक माध्यम से निशाना बनाता है।

चाहे 26/11 जैसे घिनौने हमले हो, सीज़फायर का उल्लंघन कर दिन प्रतिदिन भारतीय सैनिकों की हत्या करना हो, या फिर कूटनीतिक तौर पर भारत को ही “शोषक” सिद्ध करना हो, पाकिस्तान ने भारत को नीचा दिखाने हेतु किसी भी मौके को हाथ से जाने नहीं दिया है।

परंतु भारत भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठा रहा है, और ईंट का जवाब सीधा तोप के गोले समान दिया है, चाहे वह अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर पाकिस्तान को अलग थलग करना हो, या पाकिस्तान के आतंकी हमलों के उत्तर में सर्जिकल स्ट्राइक जैसा संदेश देना हो, भारत ने सदैव पाकिस्तान को धूल चटाई है।

और पढ़ें: भारत विरोधी अभियान: टूलकिट बिरादरी की तड़प और ट्विटर की मौज

परंतु पाकिस्तान वो देश है कि खुद बर्बाद हो जाए, परंतु भारत को प्रगति करते नहीं देख सकता। जब 14 अगस्त 1947 को ये देश अस्तित्व में आया था, तो उसका लक्ष्य एक ही था : भारत का विनाश। और यहि कारण है की समय बितेते बितते विश्व भर में साम्राज्यवाद का सबसे घिनौना रूप बना पाकिस्तान, जिसका प्रभाव आज भी भारत के कुछ हिस्सों में देखने को मिल सकता है।उदाहरण के लिए जब 1962 के भारत चीन युद्ध में भारत बुरी तरह से परास्त हुआ, और 1964 में जवाहरलाल नेहरू का निधन हुआ, तो पाकिस्तान खुशी से फूला न समा पाया। उन्हे ज्ञात था कि भारत इस समय अस्थिरता से जूझ रहा है, और उनका नेतृत्व करने के लिए कोई सशक्त व्यक्ति तैयार नहीं है।

उस समय पाकिस्तान एक “समृद्ध” राष्ट्र था, जिसके ऊपर अमेरिका की विशेष कृपा थी। इसी आत्मविश्वास के साथ पाकिस्तान ने “ऑपरेशन जिब्राल्टर” का खाका बुना।

अरबियों द्वारा स्पेन पर कब्जे से प्रेरित इस ऑपरेशन के दो प्रमुख उद्देश्य थे : कश्मीर को भारत से अलग करना और धीरे धीरे करके पंजाब समेत भारत के अधिकांश भागों को अपने नियंत्रण में लाना।

पाकिस्तान के प्रशासन को लग रहा था कि भारत कभी उनके योजनाओं का पता ही नहीं लगा पाएगा, जोकि तत्कालीन इंटेलिजेंस ब्यूरो के सुस्त रवैये को देखकर कुछ हद तक सही भी था। परंतु वे भूल गए थे कि इस बार जवाहरलाल नेहरू नहीं, प्रधानमंत्री के रूप में लाल बहादुर शास्त्री हैं। वे “शांतिप्रिय” अवश्य थे, परंतु इतने भी नहीं कि राष्ट्र के स्वाभिमान के साथ समझौता कर ले।

जैसे ही सैन्य प्रशासन को पाकिस्तान के योजनाओं की भनक लगी, उन्होंने प्रधानमंत्री शास्त्री को सूचित किया, और उन्होंने सेना को इस संकट से निपटने की खुली छूट दे दी। आगे क्या हुआ, इसे समझने हेतु विशेष शोध करने की आवश्यकता नहीं, परंतु जो पाकिस्तान कश्मीर समेत अधिकांश भारत पर कब्ज़ा जमाना चाहती थी, उसे लाहौर और सियालकोट का पुनः भारत में विलय होने से रोकने हेतु यूएन में सीज़फायर की गुहार लगानी पड़ी।

कैसे खालिस्तान ने पाँव पसारे

धीरे धीरे 1970 के दशक का अंत आ चुका था, और अब भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र में परिवर्तित हो चुका था, जो कम से कम अपने आंतरिक विवादों को निपटाने में सक्षम था। परंतु 1978 में पाकिस्तान में जो हुआ, उसका कैसा असर भारत पर पड़ने वाला था, इसकी भनक भी किसी को न थी।

1960 के दशक में पंजाबी नेता जगजीत सिंह चौहान अपने विदेशी यात्राओं को बढ़ाने लगा। इसके पीछे उसका ध्येय स्पष्ट था: एक अलग सिख राज्य की मांग। वे पंजाब सूबा और आनंदपुर साहब रेसोल्यूशन से संतुष्ट नहीं थे और वे अलगाववाद को बढ़ावा देने लगे।

परंतु 1970 के दशक के पूर्व से उन्हे कोई समर्थन नहीं मिल रहा था। अधिकतम लोग उन्हे पागल कहते, और 1970 के प्रारंभ तक सिखों का भारत से अलग होना अपने आप में उपहास का विषय होता था।

लेकिन जब 1978 में जुल्फिकार अली भुट्टो को अपदस्थ किया गया, और जनरल ज़िया उल हक ने सत्ता संभाली, तो ISI ने अचानक से अपना ध्यान पंजाब की ओर मोड़ दिया।

अब पंजाब वो क्षेत्र हैं जिसका हमारे इतिहास से बहुत गहरा नाता है। आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होने के साथ ही स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण भाग यहीं से लड़ा गया। पंजाब की स्थिति ऐसी थी कि आप उसे कभी नकार ही नहीं सकते थे। इतना ही नहीं, हिंदुओं और सिखों में तब संबंध ऐसे थे, जैसे घर में रहे संयुक्त परिवार के दो भाई, साथ खेलते, साथ खाते और यहाँ तक कि हर उत्सव में साथ भाग लेते।

और पढ़ें: ISI के साथ यूके की आँख मिचौली और कैसे खालिस्तानी उग्रवाद पड़ सकता भारत यूके संबंधों पर भारी

आज भी भारत की नाक में दम करता है “खालिस्तान”

तो फिर इस मधुर संबंध को नज़र कैसे लग गई? 1978 के बाद से पाकिस्तान की ओर से जबरदस्त फंडिंग होने लगी। कई चरमपंथी संगठन, जिनका नाम तक शायद किसी ने सुना न हो, अब सशक्त पंजाब की मांग करने लगे। इन्ही में दो नेता प्रमुख थे: हरचंद सिंह लोंगोंवाल और जरनैल सिंह भिंडरावाले।

हरचंद सिंह लोंगोंवाल पंजाब के लिए अधिक अधिकारों, या यूं कहें स्पेशल स्टेटस की मांग कर रहे थे, और भिंडरावाले की ‘लोकप्रियता’ को देखते हुए उन्होंने उसे बढ़ावा देना प्रारंभ किया। दोनों के ही कांग्रेस से अच्छे संबंध भी थे, जो इन्हे अकाली दल के प्रभाव को समाप्त करने हेतु अपने प्रयोग में ला रहे थे।

परंतु धीरे धीरे भिंडरावाले की वास्तविकता जगज़ाहिर होने लगी। वह पाकिस्तान का खास बन चुका था, और अब उसकी मंशा थी पंजाब को भारत से अलग थलग करना। इसके लिए उसने सबसे पहले राज्य में हिंदुओं और सिखों के बीच अलगाव पैदा करने के प्रयास किये।

जो भी उसका विरोध करता या उसकी ओर उंगली उठाता, उसे समाप्त कर दिया जाता। जब तक हरचंद लोंगोंवाल को ये बात समझ में आई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी, और अब भिंडरावाले पूर्व सैनिकों को भी अपने पाले में लेने लगा।

जब कांग्रेस को लगा कि भिंडरावाले उन्ही को समाप्त करने में जुटा हुआ है, तो फिर उसे रोकने के लिए जुगत भिड़ाई गई। परंतु 1980 के दशक के प्रारंभ तक भिंडरावाले इतना प्रभावी बन चुका था कि उसके एक इशारे पर पंजाब में नरसंहार तक कराए जा सकते थे। अंत में इंदिरा गांधी के पास ऑपरेशन ब्लूस्टार को स्वीकृति देने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचा, परंतु इसने भिंडरावाले को वैसे ही “हीरो” बना दिया, जैसे नाथुराम गोडसे द्वारा वार करने के बाद मोहनदास गांधी को बनाया गया।

वो कहते हैं न, मरा हुआ शत्रु जीवित शत्रु से अधिक खतरनाक होता है। भिंडरावाले के साथ भी यही हुआ। आज भले ही सम्पूर्ण भारत में भिंडरावाले को एक आतंकी के रूप में देखा जाता है, परंतु यूके हो, यूएस हो या कनाडा, यहाँ रहने वाले सिख समुदाय के अधिकांश सदस्यों के लिए वह अब भी एक ‘संत’ है, जिसकी ‘भारत सरकार ने हत्या की’। भारत का दुर्भाग्य है कि इनका प्रभाव पंजाब में फिर से बढ़ने लगा है।

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