जैसे मछली जल के बिना और मनुष्य वायु के बिना अधूरा है वैसे ही भोजन नमक बिना अधूरा है। इस नमक के उत्पत्ति के लिए काफी प्रयास करना पड़ता है, तो क्या आपको पता है कि संसार का सबसे अधिक नमक उत्पादन कहां होता है? कहने को तो चीन सबसे अधिक नमक उत्पादन करता है परंतु उसके आंकड़े उतने ही सत्य है, जितने फ़ाइज़र वैक्सीन के असरदार होने के दावे। वास्तव में इस क्षेत्र में सबसे अग्रणी है भारत और उसमें भी सबसे अग्रणी है गुजरात, जो देश के लगभग 75 प्रतिशत नमक की आपूर्ति को पूरा करता है।
टीएफआई के प्रिमियम में आपका स्वागत है। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे गुजरात के अगरिया समुदाय आपके निवास तक नमक पहुंचाते हैं परंतु इसके लिए उन्हें बहुत भारी मूल्य चुकाना पड़ता है।
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नमक बनाने में लगता है अथाह परिश्रम
अब नमक भी एक नहीं बल्कि अनेक प्रकार के होते हैं परंतु उनकी उत्पत्ति और उनकी आपूर्ति हेतु जो परिश्रम, जो अनकहे साधन लगते हैं, उसकी ओर तो किसी का ध्यान नहीं जाता है। ये कथा है उस समुदाय की, जिनके कारण हमारे भोजन में युगों-युगों से स्वाद आता रहा है परंतु जिनके योगदानों को न कभी सम्मान दिया गया और न ही उन्हें कभी मूलभूत सुविधाएं मिल पायीं। ये कथा है अगरिया समुदाय की जो आज भी अपने नमक दोहन के लिए एक बहुत भारी मूल्य चुकाते हैं।
परंतु ये अगरिया समुदाय रहते कहां हैं? ये हैं कौन? ये गुजरात के कच्छ का रण क्षेत्र से आते हैं। कच्छ के रण में बनने वाला नमक देश की करीब 75 फीसदी नमक की जरूरत को पूरा करता है, लेकिन बहुत कम लोगों को इस कारोबार में लगे अगरिया समुदाय के नमक मजदूरों की त्रासदी का भान है। ये मजदूर जिंदगी भर नमक बनाते हैं और अंत में मौत के बाद इन्हें नमक में ही दफन कर दिया जाता है।
इनके लिए बिजली कनेक्शन, पीने का साफ पानी, टेलीफोन, चिकित्सीय सेवा, पक्के मकान, रेलवे, एसटी, स्कूल जैसी तमाम सुविधाएं शून्य हैं। इनकी जिंदगी का सफर दर्दनाक तरीके से ही शुरू होता है और उसी रूप में खत्म भी हो जाता है।
अगरिया समुदाय की आजीविका सदियों से नमक बनाने की है। इनके जीवन का मतलब सिर्फ नमक बनाना है। इनके द्वारा बनाया गया नमक देश की 75 फीसदी आबादी खाती है। अगरिया समुदाय के लोग अपनी पूरी जिंदगी कच्छ का रण के खेतों में अथाह परिश्रम करके गुजार देते हैं। पूरे देश को नमक खिलाने वाले इस समुदाय के लोग इसके एवज में बड़ी कीमत चुकाने को मजबूर हैं। नमक बनाने के दौरान इनके पैर असाधारण रूप से पतले और कठोर हो जाते हैं। अत्यधिक कष्टदायक जीवन जीने को ये मजदूर मजबूर हैं। स्थिति यह है कि मरने के बाद इनका पूरा शरीर जल तो जाता है लेकिन इनके पैर को दफनाना पड़ता है।
अब ये नमक कैसे उत्पन्न होता है? कच्छ के दोनों रण भारत की पश्चिमी सीमा पर कच्छ की खाड़ी और दक्षिणी पाकिस्तान में सिंधु नदी के मुहाने के बीच स्थित हैं। बड़ा रण भुज शहर से करीब 100 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में है। इसे भारत का अंतहीन ‘सफे़द रेगिस्तान’ कहा जाता है। इसमें वन्य जीवन न के बराबर है। छोटा रण बड़े रण के दक्षिण-पूर्व में है। यह अप्रवासी पक्षियों और वन्य जीवों के लिए अभयारण्य की तरह है। इसके बावजूद दोनों रण में बहुत समानताएं हैं।
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किसान चौकोर खेत बनाकर नमक की खेती करते हैं
जून के आखिर में यहां मूसलाधार बारिश शुरू हो जाती है। अक्टूबर तक यहां बाढ़ के हालात रहते हैं। फिर धीरे-धीरे पानी भाप बनकर उड़ने लगता है और अपने पीछे नमक के क्रिस्टल छोड़ जाता है। पानी घटने पर प्रवासी किसान चौकोर खेत बनाकर नमक की खेती शुरू करते हैं। सर्दियों से लेकर अगले जून तक वे जितना ज्यादा नमक निकाल सकते हैं, उतना नमक निकालते हैं।
गुजरात के इस अनोखे क्षेत्र में ‘नमक की खेती’ एक लुभावना व्यापार है, परंतु कामगारों के लिए लाभ नगण्य है। इस अजीबोगरीब रचना का खेल निराला है। पिछले 200 साल में नमक की खेती रण में एक बड़ा उद्योग बन गयी है। अक्टूबर के महीने में पड़ोस के सुरेंद्रनगर जिले से या कोहली और अगरिया जनजातीय समुदाय के कई प्रवासी मजदूर इस जलमग्न रेगिस्तान में आते हैं। नमक की खेती अगले जून तक लगातार चलती रहती है। किसान भीषण गर्मी और कठोर परिस्थितियों में काम करते हैं। अक्टूबर-नवंबर में बारिश रुकने के बाद मजदूर नमक निकालने की प्रक्रिया शुरू करते हैं। वे बोरिंग करके धरती के नीचे से खारे पानी को निकालते हैं।
आयताकार खेतों में उस भूमिगत जल को फैला दिया जाता है। खेतों का बंटवारा नमक की सांद्रता के आधार पर होता है। खेतों में फैले पानी को भाप बनकर उड़ने में दो महीने लग सकते हैं। नमक के किसान उसमें रोजाना 10-12 बार पाल चलाते हैं जिससे शुद्ध साफ नमक बच जाता है। किसान एक सीजन में ऐसे 18 खेतों से नमक निकाल सकते हैं।
नमक के किसान ऋषिभाई कालूभाई कहते हैं, “हमारी पांचवी पीढ़ी नमक की खेती कर रही है। हर साल 9 महीने के लिए हम पूरे परिवार को नमक के खेतों में लाते हैं और बरसात में अपने घर चले जाते हैं।”
परंतु क्या इस समुदाय को उसके मूलभूत अधिकार मिल पाए हैं? शायद नहीं। दैनिक जागरण के एक रिपोर्ट की अंश अनुसार, “इस समुदाय की पहचान ही नमक बनाने से जुड़ी है। गुजरात के पर्यटन अधिकारी फारुख पठान के मुताबिक यहां का पानी अरब सागर से करीब दस गुना ज्यादा खारा है। जब यहां के पानी पर सूरज की किरणें पड़ती हैं तो वह धीरे-धीरे नमक के रूप में बदलता जाता है। हर 15 दिनों में प्रत्येक खेत से करीब 10 से 15 टन नमक पैदा होता है। पठान आगे बताते हैं कि हर घर करीब तीस से साठ खेतों का मालिक है। कष्टदायक वातावरण में प्रत्येक अगरिया कठोर परिश्रम करने के बाद इन्हें केवल 60 रुपये प्रति टन के हिसाब से पैसा मिलता है। भारत के सबसे गरीब समुदायों में से एक अगरिया समुदाय के बच्चे शायद ही स्कूल जा पाते हैं। करीब चार महीने जलमग्न होने की वजह से ये उन दिनों बेरोजगार रहते हैं”।
परंतु इस दिशा में भी अब परिवर्तन होने लगा है, हालांकि इसका असर बहुत देर से दिख रहा है। जून 2022 में कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं का उद्घाटन करते हुए मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल ने बोला,
“गुजरात में उच्च शिक्षा की तमाम सुविधाएं स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हैं। उन्होंने कहा कि अगरिया यानी नमक पकाने वाले श्रमिक तथा घुमंतू जाति के बच्चों की शिक्षा के लिए विशेष व्यवस्था कर इन समुदायों को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने का प्रयास किया जा रहा है। पाटड़ी सहित गुजरात के दूरदराज के क्षेत्रों में शिक्षा क्षेत्र में हर तरह की श्रेष्ठ सुविधाएं मुहैया करवाने को राज्य सरकार कटिबद्ध है। राज्य में शिक्षा के क्षेत्र में गुणोत्सव, प्रवेशोत्सव और कन्या केळवणी की पहल के जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो नयी राह दिखायी है उससे गुजरात शिक्षा क्षेत्र में अग्रसर था और आगे भी रहेगा।”
निस्संदेह ये योजना वर्षों से हो रहे अगरिया समुदाय के साथ अन्याय को थोड़ा कम करने में सहायता करेगी और उन्हें मूलभूत अधिकारों का भी वास्ता देगी, परंतु ये देश का दुर्भाग्य है कि जिस समुदाय ने युगों-युगों तक निस्वार्थ भाव से संसार की सेवा की, जिस समुदाय ने अपना सर्वस्व मानव सेवा में अर्पण कर दिया, उस समुदाय को अपने मूलभूत सुविधाओं के लिए सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़ी।
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