हिंदू राष्ट्र– एक ऐसा शब्द जिसे बोल-बोलकर वर्षों से इस देश के मुस्लिमों का तुष्टीकरण किया गया है. एक ऐसा शब्द जिसका डर दिखाकर वर्षों से राजनीतिक दलों ने अपना उल्लू सीधा किया है. क्या है हिंदू राष्ट्र? क्या भारत हिंदू राष्ट्र बनने जा रहा है? या फिर हिंदू राष्ट्र बन चुका है? हिंदू राष्ट्र की आड़ में जो डर का माहौल बनाया जाता है- उसकी सच्चाई क्या है?
एक पत्रकार के नाते राजनीति कई बार आपको वो लिखने का मौका नहीं देती- जो आप लिखना चाहते हैं, लेकिन हमारे ही पेशे के दूसरे लोग वो मौका दे देते हैं. हिंदू राष्ट्र की आड़ में जो भी कचरा इस देश के एजेंडाबाज बुद्धिजीवियों ने आपके अंदर भरा है- उसे डिटॉक्स करने की आवश्यकता है. मैं यह लेख इसी उम्मीद के साथ लिख रहा हूं कि आप इसको पूरा पढ़ेंगे और स्वयं को एकतरफा एजेंडे से डिटॉक्स करके सत्य को समझेंगे. हमेशा याद रखिए कि सत्य और तथ्य दो अलग-अलग चीज़ें हैं.
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हाल ही में बीबीसी ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. उस रिपोर्ट में बीबीसी ने यह बताने की कोशिश की है कि ‘भारत हिंदू राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है’. तो बीबीसी कहता है कि भारत हिंदू राष्ट्र बनने जा रहा है, बीबीसी के लेख का हम पोस्टमार्टम करेंगे लेकिन सबसे पहले चलिए आपको बताते हैं कि ‘हिंदू राष्ट्र’ में क्या-क्या हो रहा है?
हिंदू राष्ट्र’ में हिंदुओं की हत्या!
26 मई, 2022, अंग्रेजी चैनल टाइम्स नाउ (Times Now) पर ज्ञानवापी मामले को लेकर चर्चा हो रही थी. कथित ज्ञानवापी मस्जिद से शिवलिंग मिला था. इस शिवलिंग को फव्वारा बताकर मजाक उड़ाया जा रहा था. 26 मई को टीवी डिबेट में मौलाना तस्लीम रहमानी पर प्रतिक्रिया देते हुए नुपूर शर्मा ने हदीस से एक बात का उद्धरण दे दिया.
इसके बाद जो हुआ वो दुनिया जानती है. नुपूर शर्मा को हर तरह की धमकियां दी गईं. बलात्कार करने की- जान से मारने की- सिर कलम करने की- परिवार को मारने की. पूरे देश में हिंसा हुई. लाखों की संख्या में मुस्लिमों ने प्रदर्शन किया. नुपूर शर्मा के पुतले जलाए गए- उनके पुतलों को फांसी दी गई. डर था- चुप्पियां थी- खौफ़ था- माहौल में ‘सर तन से जुदा’ नारों की गूंज थी. हिंदू राष्ट्र में हिंदू कांप रहे थे.
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28 जून, 2022, राजस्थान के उदयपुर में एक मासूम व्यक्ति की बेरहमी से हत्या कर दी जाती है. दर्जी का काम करने वाले कन्हैया लाल को चाकुओं से गोदकर मार डाला जाता है. उनकी हत्या का वीडियो बनाया जाता है. उसे सोशल मीडिया पर वायरल किया जाता है. हत्यारे चाकुओं के साथ एक और वीडियो बनाते हैं और धमकी देते हैं कि जो भी नुपूर शर्मा के समर्थन में बोलेगा- उसका यही हाल होगा. इसके साथ ही वो पीएम मोदी को भी जान से मारने की धमकी देते हैं.
और पढ़ें: भारत हमेशा एक हिंदू राष्ट्र था, है और आगे भी रहेगा, यहां रहने वाले सभी लोगों के पूर्वज हिंदू ही थे
उमेश कोल्हे की हत्या, किशन भरवाड़ की बर्बर हत्या और कमलेश तिवारी की उनके आवास में घुसकर बर्बर हत्या क्यों हुई? किन लोगों ने की, जांच एजेंसियों ने इसकी सच्चाई देश के सामने रख दी है.
‘हिंदू राष्ट्र’ में हिंदू आस्था का मजाक!
लुडो:
अनुराग बसु की फिल्म लुडो में स्वांग रचने वाले तीन लोगों को ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में दिखाया गया. एक सीन में भगवान शंकर और महाकाली को गाड़ी में धक्का लगाते हुए भी दिखाया गया. आमिर खान की पीके फ़िल्में क्या दिखाया गया था, मुझे यकीन है वो बताने की ज़रुरत नहीं होगी. बार-बार लिखने में मुझे तक़लीफ़ होती है.
अरविंद केजरीवाल:
2019 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्विटर पर एक फ़ोटो शेयर की थी. इस फ़ोटो में एक शख्स अपने हाथ में झाड़ू के साथ ‘स्वास्तिक’ को पीटकर दूर भगाने की कोशिश करता दिख रहा है.
महुआ मोइत्रा:
ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी की सांसद महुआ मोइत्रा ने ज्ञानवापी मस्जिद से मिले शिवलिंग का मजाक उड़ाया था। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (BARC) की एक फ़ोटो शेयर करते हुए उन्होंने उन पत्थरों की तुलना शिवलिंग से की थी.
सयानी घोष
बंगाली फिल्म एक्ट्रेस सायोनी घोष ने अपने ट्विटर भगवान शिव को लेकर एक बेहद आपत्तिजनक तस्वीर शेयर की थी. जब लोग इसे देखकर भड़के तो उन्होंने ट्विटर हैक होने का दावा किया.
मणिमेकलई:
फिल्मकार लीना मणिमेकलई ने ‘काली’ नाम से एक डॉक्यूमेंट्री बनाई. इस डॉक्यूमेंट्री में मां काली को सिगरेट पीते हुए दिखाया गया. तमाम विरोध के बावजूद मणिमेकलई ने अपनी इस घटिया हरकत के लिए माफी नहीं मांगी.
यह तो कुछ मुख्य घटनाएं हैं. इसके साथ-साथ ऐसी तमाम घटनाएं हर रोज हमें दिखती हैं- जिनमें हिंदू देवी-देवताओं का या फिर सनातन धर्म की परंपराओं का मजाक बनाया जाता है. चाहे स्टैंड-अप कॉमेडी में भगवान श्रीराम का मजाक उड़ाने की बात हो- चाहे तस्वीरों में देवी-देवताओं का मजाक बनाने की बात हो- हिंदुओं की आस्था पर निरंतर हमले होते ही रहते हैं.
‘हिंदू राष्ट्र’ में हिंदुओं को डर!
पिछले कुछ वर्षों में भारत में बहुत बदलाव आया है. तमाम बदलावों में एक बदलाव ‘डर’ का भी है. भारत के बहुसंख्यकों को अपने ही देश में डर-सा लगने लगा है. डर कि कहीं किसी बात पर मज़हब विशेष के लोग सड़कों पर आ गए तो उनका क्या होगा? यह डर यूं ही नहीं बना है. दरअसल, CAA से हिंसा का जो ‘प्रयोग’ शुरू हुआ- वो आगे बढ़ता ही गया. पहले CAA के नाम पर देश के कई हिस्सों में हिंसा हुई. सरकारी संपत्ति को जलाया गया. बसों में तोड़फोड़ की गई. जमकर हिंसा हुई. इसके बाद जो सिलसिला शुरू हुआ वो नुपूर शर्मा के मामले तक हमने देखा.
इस हिंसा से इस्लामिस्टों ने क्या पाया- क्या नहीं पाया- वो एक अलग विषय है- लेकिन इतना तय है कि इस देश के हिंदुओं के मन में एक सवाल ज़रूर खड़ा हो गया. सवाल यह कि आखिरकार यह हिंसा कब तक बर्दाश्त की जाए? क्या यह लाखों लोगों की पागल भीड़ किसी दिन उनके घर को भी आग के हवाले नहीं कर देगी? हिंदुओं के बीच में डर पैदा होना स्वाभाविक था और वही हुआ. आज तमाम हिंदू इस बात से डरते हैं कि कहीं उसके आस-पास रहने वाले धर्म विशेष के लोग तोड़फोड़ शुरू ना कर दें. हिंसा शुरू ना कर दें. बवाल शुरू ना कर दें.
‘हिंदू राष्ट्र’ में फलते-फूलते मुस्लिम
भारत के पड़ोसी देशों में हिंदुओं की जनसंख्या 1947 के बाद से निरंतर कम हुई है. बंटवारे के बाद पाकिस्तान में बड़ी संख्या में हिंदू रहते थे. धीरे-धीरे उनकी जनसंख्या कम होती चली गई. दूसरी तरफ पूर्वी पाकिस्तान जोकि बाद में बांग्लादेश में परिवर्तित हो गया- वहां भी हिंदुओं की जनसंख्या निरंतर कम होती चली गई.
इसके बिल्कुल उलट, भारत में मुस्लिमों की जनसंख्या निरंतर बढ़ती चली गई. आज पूरी दुनिया में भारत दूसरा देश है जहां मुस्लिमों की इतनी बड़ी जनसंख्या रहती है.
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‘हिंदू राष्ट्र’ में मुस्लिमों के विशेष अधिकार!
तकरीबन 20 करोड़ जनसंख्या होने के बावजूद भारत में मुस्लिमों को अल्पसंख्यक का दर्जा हासिल है. भारत के कई जिले ऐसे हैं जिनमें मुस्लिम पूरी तरह से बहुसंख्यक की स्थिति में हैं. इसके बावजूद वो अल्पसंख्यक हैं. जम्मू और कश्मीर जैसे केंद्र शासित प्रदेशों में बहुसंख्यक होने के बाद भी मुस्लिमों को अल्पसंख्यक का दर्जा हासिल है. अल्पसंख्यक होने की सभी सुविधाएं उन्हें मिलती हैं. सरकारी योजनाओं में- तमाम तरह की नीतियों में अल्पसंख्यकों को विशेष प्राथमिकता दी जाती है.
यह तो कुछ भी नहीं है, अभी कुछ वर्ष पहले तक देश में एक ऐसी पार्टी की सरकार थी- जो कहती थी कि ‘संसाधनों पर पहला हक़ मुस्लिमों का है’. जी हां, प्रधानमंत्री रहते हुए स्वयं डॉ. मनमोहन सिंह ने यह बात संसद में कही थी.
इस तरह से आपने देखा कि हिंदू राष्ट्र भारत में इस वक्त हिंदुओं के साथ क्या हो रहा है? अकबरुद्दीन ओवैसी की 15 मिनट की चेतावनी हो- बॉलीवुड में ‘खान्स’ का कब्जा हो- उत्तर-पूर्वी दिल्ली का दंगा हो या फिर शोभायात्रा पर पत्थर फेंकने की घटना हो- ऐसी तमाम घटनाएं अगर लिखने बैठ जाएं तो ‘हिंदू राष्ट्र’ पर एक किताब ही लिख जाएगी. इसलिए, इसे छोड़ते हैं और दोबारा से बीबीसी पर लौटते हैं.
बीबीसी की मक्कारी!
बीबीसी ने अपने विशेष लेख के लिए हिंदू धर्म के विशेषज्ञ के तौर पर अमेरिकी स्कॉलर प्रोफ़ेसर वेंडी डोनिगर का चुनाव किया है. यह बहुत ही शातिराना किस्म की चालाकी है. जिसे समझने के लिए आपको इस फील्ड की मक्कारी को पहले समझना पड़ेगा. दरअसल, बीबीसी संवाददाता ज़ुबैर अहमद अपने विचार को लेकर स्पष्ट थे. उन्हें अपने लेख में कहीं भी यह नहीं दिखाना था कि वो कोई पक्ष ले रहे हैं (हालांकि इसमें वो सफल नहीं हुए) और इसके साथ ही अपने विचार को लेख में ठूंसना भी था.
ऐसे में ‘एजेंडाबाज़ संवाददाता’ उन विशेषज्ञों को चुनते हैं जो उन्हीं के शब्द बोलें- बस मुंह उनका ना हो. यही ज़ुबैर अहमद ने किया. प्रोफ़ेसर वेंडी डोनिगर हिंदू विरोधी हैं. इसके सिवाय उनकी कोई पहचान नहीं है. उनकी किताबें- उनकी रिसर्च- उनके लेख- सबकुछ हिंदू विरोधी है. हिंदू संस्कृति का विरोध कर करके ही उन्होंने अपनी पहचान बनाई है.
बीबीसी ने अपने लेख में एक जगह यह कहने की कोशिश की है कि भारत को वास्तव में अंग्रेजों ने ही गुलाम बनाया, मुग़लों ने तो गुलाम बनाया ही नहीं. कई बार चीज़ों को अच्छे से देखने के बाद- परिप्रेक्ष्य में समझने के बाद भी यह समझना मुश्किल हो जाता है कि भारत के वामपंथियों को- भारत के कथित उदारवादियों को मुग़लों के प्रति इतनी सहानुभूति क्यों है? आखिरकार क्यों, यह लोग हर वक्त मुग़ल-मुग़ल करते रहते हैं?
जबकि सत्य यह है कि मुग़लों ने भारत में क्रूरता के साथ शासन किया. उन्होंने हिंदुओं के मंदिर तोड़े- हिंदुओं के ऊपर तमाम तरह के कर लगाए- उनकी धार्मिक आस्थाओं को चोट पहुंचाई- उन्होंने हिंदुस्तान को उतना लूटा, जितना वो लूट सकते थे. तो क्या वो ग़ुलामी का दौर नहीं था?
‘फेक न्यूज़’ का ख़िलाड़ी!
कई बार हम जो पढ़ते हैं- वो हमें बहुत अच्छा लगता है. पढ़ते वक्त मज़ा आ रहा होता है- इतना अच्छा लिखा होता है कि पढ़ते ही जाते हैं- हमें लग रहा होता है कि इसमें कोई एजेंडा नहीं हैं. यकीन कीजिए, हमारे पेश के धूर्त ख़िलाड़ी आपको ऐसे ही ठगते हैं. नदी के बहाव की तरह उनका लेखन बहता है- उसके पीछे-पीछे उनका एजेंडा चलता है. पूरी ईमानदारी से आप लेख को कंज्यूम करते हैं- लेकिन आप समझ ही नहीं पाते कि उस लेख के साथ-साथ आपने एजेंडा भी कंज्यूम कर लिया है.
अब बीबीसी के इसी लेख को ले लीजिए. इसमें एक जगह बीबीसी ने लिखा है-
विश्लेषकों की मानें तो कई संस्थान संघीय ढांचा, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक और आर्थिक असमानता जैसे मुद्दों पर समझौता करने के लिए तैयार हैं.
अब इसको समझने की कोशिश करते हैं. कौन-से विश्लेषक इस बात को कहते हैं? विश्लेषक हैं, सूत्र तो हैं नहीं जो नाम छिपाया जा रहा है? उस विश्लेषक का नाम दीजिए- जब आप सरकार के ऊपर, देश की संस्थाओं के ऊपर इतना गंभीर आरोप लगाते हैं- तो वो यूं ही नहीं लगा सकते. जब आप कहते हैं कि कई संस्थान संघीय ढांचा, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक और आर्थिक असमानता जैसे मुद्दों पर समझौता करने के लिए तैयार हैं. तो आपको बताना पड़ेगा कि यह लिखने के पीछे आधार क्या है? अगर आप नहीं बता सकते तो हम साफ तौर पर कहते हैं कि यह ‘फ़ेक न्यूज़’ है.
संकेत का गणित
बीबीसी ने जो लेख लिखा है- उसकी प्रत्येक लाइन एजेंडा के तहत लिखी गई है. प्रत्येक शब्द के पीछे मानो कोई षड्यंत्र छिपा हो. अब आप कहेंगे कि हम क्यों उस लेख को इतना भाव दे रहे हैं. उनके पास इंटरनेट है- उनके पास लैपटॉप है- उन्हें हिंदी टाइपिंग भी आती है- कुछ भी लिखें- लिखने दीजिए. आप सही कह रहे हैं-
लेकिन यहां एक सवाल है. यह लोग वर्षों से ऐसे ही लिखते आ रहे हैं. हम और आप ऐसे ही पढ़ते आ रहे हैं. धीरे-धीरे इन लोगों ने हमारे दिमागों में अपनी ही संस्कृति, अपनी ही परंपराओं और अपने ही देश के विरुद्ध नफरत भर दी. इसलिए ऐसे लेखों का विरोध आवश्यक है.
आगे बढ़ते हैं, बीबीसी ने कुछ संकेत चुने हैं- उसका कहना है कि इन संकेतों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत हिंदू राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है.
पहला संकेत
मुसलमान शासकों के इतिहास और शहरों, गलियों के नाम बदलने से लेकर किताबों में बदलाव का काम बदस्तूर जारी है.
बीबीसी को अपने संवाददाताओं की अच्छी ट्रेनिंग करवानी चाहिए. हम जानते हैं यह ट्रेनिंग लंदन में होती है- लेकिन अच्छी नहीं होती. अगर अच्छी ट्रेनिंग होती तो संवाददाता महोदय, इसके साथ आंकड़े भी डालते, और बताते कि किस सरकार में कितने शहरों और गलियों के नाम बदले गए. सिर्फ उत्तर-प्रदेश की ही बात करें तो हाल ही में एक रिपोर्ट सामने आई थी. जिसमें खुलासा हुआ था कि सीएम योगी आदित्यनाथ से कहीं ज्यादा नामों का बदलाव अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री रहते हुए किया था.
दूसरा संकेत
पिछले साल दिसंबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने “हर हर महादेव” के उद्घोष के बीच काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर का उद्घाटन किया था. गेरुआ भेस में एक साधु की तरह उन्होंने गंगा में डुबकी लगाई थी और काल भैरव मंदिर में पूजा-अर्चना की थी.
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इसके ज़रिए बीबीसी कहना चाहती है कि पीएम मोदी हिंदू मंदिरों में पूजा करते हैं- हिंदू संतों की तरह कपड़े पहनते हैं- हर-हर महादेव बोलते हैं- इसलिए, यह भी हिंदू राष्ट्र का एक संकेत है.
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सच में? देश का प्रधानमंत्री, अपने कपड़ों से जज किया जाएगा या फिर अपने कार्यों से? देश का प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ एक मनुष्य है- उसकी कुछ निजी मान्यताएं हैं- उसका अपने धर्म के साथ निजी रिश्ता है- वो अपने धर्म को धारण करता है- वो अपनी परंपराओं को मानता है. इससे किसी को क्या समस्या है?
क्या प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह ने सिख धर्म का पालन नहीं किया था? क्या उन्होंने पगड़ी पहनना छोड़ दिया था? क्या उन्होंने गुरुद्वारे में जाना छोड़ दिया था?
अगर नहीं तो फिर यही संकेत तब क्यों नहीं ढूंढ़ा गया कि देश ‘सिख राष्ट्र’ बनने की ओर अग्रसर है?
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मैं फिर से आपसे कहता हूं कि हमारे पेशे के अंदर मक्कारी करने का स्कोप बहुत होता है. पत्रकार, जैसे चाहे वैसे चीजों को पेश कर सकता है- बीबीसी भी इससे अलग नहीं है. आइए, इसी लेख में से कुछ उदाहरण उठाकर देखते हैं कि बीबीसी ने क्या लिखा है? और उन्हें क्या लिखना चाहिए था?
बीबीसी ने लिखा है
शाहबानो मामले को अक्सर मुस्लिम तुष्टीकरण के उदाहरण की तरह पेश किया जाता है.
सही क्या है?
शाहबानो मामले में राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम तुष्टीकरण के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला पल्टा था.
बीबीसी ने लिखा है
हिंदू तुष्टीकरण की चर्चा होने लगी है. उदाहरण के लिए, भारत की सर्वोच्च अदालत ने कोविड-19 महामारी की भयावहता के बीच जगन्नाथ यात्रा और अयोध्या में भूमि-पूजन की अनुमति दे दी.
सही क्या है?
हिंदू अब अपने लिए बोलने लगे हैं. अपने पूजा करने के अधिकार के लिए कोर्ट जाने लगे हैं. कोविड-19 महामारी में हिंदुओं को जगन्नाथ यात्रा और अयोध्या में भूमि-पूजन के लिए कोर्ट से अनुमति लेनी पड़ी लेकिन कई राज्यों में ईद मनाने की खुली छूट दी गई. केरल, इसका उदाहरण है.
बीबीसी ने लिखा है
ईसाई और मुसलमान धर्म प्रचारक कहते हैं उनका काम करना मुश्किल हो गया है.
सही क्या है?
ईसाई मिशनरियों और मुस्लिम मौलानाओं को अब धर्मांतरण की वैसी खुली छूट नहीं है. आज अगर वो जबरन धर्मांतरण या फिर लालच देकर धर्मांतरण करवाना चाहते हैं तो उनके सामने मुश्किलें आती हैं.
निष्कर्ष
कई बार हम चाहते हैं कि निष्कर्ष पर पहुंचे ही ना- क्योंकि इतना कुछ होता है कहने के लिए- लिखने के लिए कि सबकुछ कहने से पहले निष्कर्ष पर पहुंचना दुखद लगता है लेकिन पेशे की अपनी मज़बूरियां हैं- सभी लेखों की तरह, इस लेख को भी समाप्त करना पड़ेगा. लेकिन इस लेख के निष्कर्ष में एक बात अवश्य कहूंगा- आप जो भी पढ़ें उसके पीछे के एजेंडे को जरुर समझें- कुछ भी बिना एजेंडे के नहीं लिखा जाता- लेकिन जो लोग निष्पक्षता का लबादा ओढ़कर एजेंडा परोसते हैं उनसे बचकर रहना ज्यादा जरुरी हैं.
जो लोग खुले तौर पर एक तरफ खड़े हैं- उनका हमें पता होता है लेकिन निष्पक्षता, पत्रकारिता, समाज, देश, सिद्धांत, नैतिकता जैसी तमाम बातें करने वाले बहुत बुरी तरह से अपना एजेंडा कंटेट में डालते हैं. उससे आपको बचना है. जब आप बचेंगे तभी देश बचेगा- नहीं तो यह लोग हर तीसरे दिन इस देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करते रहेंगे और हर तीसरे दिन हिंदू इस देश में मरते रहेंगे. इसलिए छिपे हुए एजेंडाबाजों से सावधान रहिए.
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