कुछ लोगों को देखकर लगता है कि इनमें कला और कृति कूट-कूट कर भरी हुई है, रचनात्मकता इनका दूसरा नाम है। इनको देखकर लगता है कि ये न हों तो देश में कला ही न रहे, परंतु जब आप इनकी वास्तविकता से परिचित होंगे तो मन में प्रश्न उठेगा कि क्या ये सच में इतनी प्रशंसा के योग्य भी थे?
इस लेख में बात सात बार के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता विशाल भारद्वाज की होगी जिनकी कला के पुजारी तो सभी हैं परंतु इसकी वास्तविकता जानकर आप हैरान रह जाएंगे।
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विशाल भारद्वाज एक यूनिक पीस रहे हैं
कुछ लोगों के चेहरे पर प्रोपेगेंडा पुता हुआ होता है, कुछ लोग बातों से तो कुछ लोग संवादों से प्रोपेगेंडा सिद्ध करते हैं। परंतु विशाल भारद्वाज एक यूनिक पीस रहे हैं। वे न तो अनुभव सिन्हा या अनुराग कश्यप थे, जो चिंघाड़-चिंघाड़ कर कहते थे कि हां हम वामपंथी हैं और हम भारत का अहित चाहते हैं, और न ही हंसल मेहता थे जो हिपोक्रेसी की चलती फिरती दुकान हैं। संगीतज्ञ के रूप में अपना करियर प्रारंभ करने वाले इस व्यक्ति ने देखते ही देखते कब भारतीय सिनेमा के नैरेटिव में अपनी पैठ बना ली, पता ही नहीं चला।
विशाल भारद्वाज का जन्म बिजनौर जिले के चांदपुर कस्बे में हुआ था। इनके पिता राम भारद्वाज, गन्ने के फैक्ट्री के निरीक्षक थे, कभी कभार हिन्दी फिल्मों को अपनी सेवाएं भी देते थे। प्रारंभ में विशाल का स्वप्न भारतीय क्रिकेट को अपनी सेवाएं देने का था, परंतु इनके पिता के आकस्मिक निधन के पश्चात वो स्वप्न स्वप्न ही रह गया। परंतु इन्हें भी अपने पिता के संगीत की प्रतिभा विरासत में मिली, और कुछ वर्ष के स्ट्रगल के पश्चात उन्हें भारतीय फिल्म उद्योग में ब्रेक मिला, जब उन्हें एक साथ दो प्रोजेक्ट मिले – एक बाल फिल्म अभय [1995] और धर्मेन्द्र की फिल्म फौजी [1995]। अगले ही वर्ष इन्हें गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ के लिए संगीत देने का अवसर मिला जो 1984 के सिख विरोधी दंगे और तद्पश्चात खालिस्तानी उग्रवाद पर आधारित थी और इनका संगीत इतना लोकप्रिय हुआ कि उसके पीछे सभी लोग पागलों की तरह दीवाने होने लगे। परंतु किसे पता था कि इसी लोकप्रिय संगीत से एक विषैले प्रोपेगेंडावादी की भी नींव पड़ चुकी थी।
परंतु यह सोशल मीडिया का युग नहीं था। जनता उस समय इतना परिचित नहीं हुआ करती थी कि क्या सही है और क्या गलत है, ऐसे में वो बन गयी विशाल भारद्वाज के प्रेमी। क्या आपको पता है विशाल ने ही ‘जंगल जंगल पता चला है’ जैसे प्रसिद्ध गीत को अपना संगीत दिया था? फिर ‘चाची 420’, ‘सत्या’ से इन्होंने लोगों को वैसे ही लुभाया, जैसे आखेटक अपने निशाने को लुभाता है। इसी बीच 2003 में इन्होंने निर्देशक की कुर्सी संभाली। पहले इन्होंने बनायी ‘मकड़ी’, फिर ले आए ‘मकबूल’, और फिर क्या था, क्रिटिक्स और सिस्टम का ऐसा मायाजाल रचा गया कि इनके इंद्रजाल को कोई समझ ही नहीं पाया।
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भारद्वाज ने अपना काम सफाई से किया
आपको पता है विशाल भारद्वाज में ऐसा क्या था जो बाकी के वामपंथियों में नहीं? बाकी के वामपंथी अपने एजेंडे को या तो कभी न कभी खोल ही देते हैं या फिर उसका अंश दिखाते हैं। परंतु विशाल भारद्वाज ने अपना काम इतने सफाई से किया, जो बाकी कोई न कर पाया। उन्होंने देश की मिट्टी, जनता की पसंद, और ‘दमदार कहानी’ का ऐसा कॉकटेल बनाया कि जब तक बाकी उनका असल उद्देश्य समझते, वो अवार्ड्स और तालियां बटोर कर अपने अगले प्रोजेक्ट पर लग जाते। यूं ही नहीं महोदय ने ‘नो स्मोकिंग’, ‘कमीने’, ‘इश्किया’, ‘7 खून माफ’ जैसे प्रोजेक्ट्स’ एक के बाद एक किये, और कोई उसके पीछे छुपे वास्तविक एजेंडे को हाथ तक नहीं लगा पाया।
परंतु हर व्यक्ति की सीमा होती है और विशाल भारद्वाज भी कोई मंगल ग्रह से प्रकट तो भए नहीं। इनसे भी एक कांड हुआ और उस कांड का नाम था, ‘हैदर’। ये इनके बहुप्रतीक्षित ‘Shakesperean Trilogy’ की अंतिम फिल्म थी, जो Hamlet नाटक पर आधारित थी और काफी अलग भी। परंतु जहां पर ‘मकबूल’ और ‘ओंकारा’ में विशाल ने अपने एजेंडे को सफाई से बिना किसी को पता चले परोसा था, यहां तो एजेंडा ही एजेंडा पूरे परात पर स्पष्ट दिखायी दे रहा था। चाहे भारतीय सैन्य बलों को नीचा दिखाना हो या भारत की बहुमूल्य धरोहर, कश्मीर के मार्तंड सूर्य मंदिर को ‘शैतान का ठिकाना’ बताना हो, आप बोलते जाइए हम हैं कि हम नहीं की बकैती कौन भूल सकता है? अगर ‘कबीर सिंह’ और ‘जर्सी’ से प्रायश्चित न किये होते तो शाहिद भ्राता का हाल भी खान बिरादरी से कम खतरनाक न होता।
परंतु इसके बाद भी इन्हें नेशनल अवॉर्ड की कोई कमी नहीं हुई। लेकिन बंधु का एजेंडा आखिर कब तक चलेगा? इस एजेंडे का कभी न कभी तो अंत होगा और हुआ भी। ‘तलवार’ की पटकथा के पश्चात जब असहिष्णुता के विषय पर इन्होंने अवॉर्ड वापसी गैंग का खुलेआम समर्थन किय, तो लोगों को पता चला कि ये किस खेत की मूली हैं और 2017 में जिस गाजे बाजे से ‘रंगून’ आयी उतने ही गाजे बाजे से वह फ्लॉप भी हुईं और ‘कॉफी विद करण’ पर कंगना रनौत का वो आइकॉनिक इंटरव्यू भी फिल्म के किसी काम नहीं आया। पर बंधु ने हार नहीं मानी, अगले ही वर्ष लेकर आ गए ‘पटाखा’। ये आधारित थी एक लघु कथा ‘दो बहनें’ पर और इन्होंने सोचा कि चलो पुराने फॉर्मेट पर लोगों को लुभाते हैं, पर लगता है कि ये जनता को मूर्ख समझते हैं।
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आज विशाल भारद्वाज, जो कभी देश के सबसे जाने माने फ़िल्मकारों में से एक थे, उनकी अवस्था ऐसी है कि अब OTT पर फिल्में प्रदर्शित करने को विवश होना पड़ रहा है। एक समय था कि कोई उनके एजेंडे का ए भी नहीं पहचान पाता था, परंतु वो कहते हैं न कि सबका दिन आता है, इनका भी आ गया।
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