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गोर्बाचेव की कमजोर नीतियों और ‘घटिया नेतृत्व’ के कारण हुआ था USSR का विघटन, समझिए कैसे?

रूसियों के लिए 'खलनायक' क्यों बन गए थे गोर्बाचेव ?

Ruchi Mehra द्वारा Ruchi Mehra
1 September 2022
in समीक्षा
मिखाइल गोर्बाचेव

Source- TFI

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‘पश्चिमी देशों के नायक और अपने देश के खलनायक’ सोवियत संघ के आखिरी राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव के लिए यह शब्द एकदम सटीक बैठते हैं। शीत युद्ध समाप्त करने के कारण कई देश उन्हें एक हीरो की तरह देखते आ रहे हैं। परंतु गोर्बाचेव ही हैं, जिन्हें सोवियत संघ के 15 टुकड़े करने का जिम्मेदार ठहराया जाता है। उन्हीं गोर्बाचेव का हाल ही में निधन हो गया। मंगलवार रात को 91 वर्ष की आयु में वो दुनिया छोड़ गए। कुछ नेता ऐसे होते हैं, जो वैश्विक राजनीति पर बड़ा प्रभाव डालते हैं और गोर्बाचेव उन्हीं में से एक थे। एक तरफ शीत युद्ध खत्म करने के लिए वो नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए गए। इसके अलावा दूसरी ओर कुछ निर्णयों और कमजोर नेतृत्व के कारण USSR का विघटन करने के पीछे उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाता है।

और पढ़ें: हिंद महासागर में अंतत: भारत ने अपना कब्जा जमा ही लिया

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यहां समझिए पूरा मामला

ध्यान देने वाली बात है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ शीत युद्ध में उलझ पड़े थे। असल में सोवियत संघ वर्ष 1917 में बना था, जब बोल्शेविक की क्रांति हुई। इस क्रांति के द्वारा जार निकोलस द्वितीय को सत्ता से बाहर किया गया और रूसी साम्राज्य का अंत हुआ। इसके बाद व्लादिमीर लेनिन ने सत्ता अपने हाथों में लेकर वर्ष 1922 में दूर दराज के इलाकों को रूस में मिलाया। कुछ इस तरह आधिकारिक तौर पर सोवियत संघ यानी USSR बना था। हालांकि, इसके बाद भी वहां तानाशाही ही बनी रही और वहां के सबसे बड़े तानाशाह बनकर उभरे जोसेफ स्टालिन। सारे निर्णय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा ही लिए जाते रहे। स्टालिन के शासन से ही सोवियत संघ में राजनीति, अर्थव्यवस्था और आम जीवन पर पार्टी का नियंत्रण बना रहा।

हालांकि, फिर सोवियत संघ की सत्ता में आए मिखाइल गोर्बाचेव और वो वर्ष 1985 से लेकर 1991 तक राष्ट्रपति रहे। उन्हें राष्ट्र के कई सुधारों का जनक माना जाता है। गोर्बाचेव ने सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था को खोलने के साथ ही वहां के लोगों और प्रेस को आजादी देने के प्रयास शुरू किए। पहले सोवियत संघ को दूसरे देशों के साथ व्यापार करने की छूट नहीं हुआ करती थी। उसके बाद गोर्बाचेव नीतियां लेकर आए, जिन्हें नाम दिया पेरेस्त्राइंका और ग्लासनोस्त। पेरेस्त्राइंका का अर्थ था लोगों को काम करने की आजादी और ग्लासनोस्त का मतलब राजनीतिक और अर्थव्यवस्था में खुलापन।

हालांकि, जिन लोगों ने स्टालिन की तानाशाही देखी थी, उनके लिए यह बदलाव काफी चौंकाने वाले थे। धीरे-धीरे लोगों में खुलापन आने लगा, सरकार की दखलअंदाजी कम हुई और लोग व्यापार करने लगे। परंतु इसके साथ ही भ्रष्टाचार भी बढ़ गया। गोर्बाचेव को लेकर लोगों का नजरिया बदलने लगा था। सरकार की नीतियों के विरुद्ध लोग खुलकर विरोध करने लगे थे।

इसके अलावा गोर्बाचेव ने एक और घातक फैसला लिया था, वो था वर्ष 1989 में सोवियत संघ की सेना को वापस बुला लेने का आदेश देना। 10 वर्ष पूर्व यानी वर्ष 1979 में अफगानिस्तान में स्थिरता लाने के लिए सोवियत संघ की सेना को वहां भेजा गया था। लंबे समय तक वहां संघर्ष चलता रहा परंतु 1989 में गोर्बाचेव ने सेना को वहां से वापस बुला लिया। उनके इस निर्णय की अमेरिका और यूरोप के देशों ने तो जमकर प्रशंसा की परंतु इससे सोवियत संघ के लोग नाराज हो गए और उन्हें अमेरिका का वफादार तक मानने लगे। इसके अतिरिक्त बर्लिन की दीवार का ध्वस्त होना भी सोवियत संघ के विघटन के प्रमुख कारणों में से एक था, जिसमें गोर्बाचेव की भूमिका महत्वपूर्ण थी।

सोवियत संघ के विघटन के जिम्मेदार

शीत युद्ध की समाप्ति और अफगानिस्तान से सेना की वापसी के बाद रूस में बगावत की सुगबुगाहट शुरू हो गई। जगह-जगह प्रदर्शन शुरू हो गए। 6 सितंबर 1991 को बाल्टिक स्टेट (एस्टोनिया, लिथुआनिया और लातविया) ने स्वयं को अलग कर दिया। फिर अजरबैजान, आर्मीनिया, यूक्रेन जैसे देशों में भी प्रदर्शन शुरू हुए। इन सबका एक ही लक्ष्य था सोवियत रूस से स्वयं को अलग करना। अंत में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए गए और 25 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ का विघटन हुआ यानी गोर्बाचेव ने अपने ही देश के टुकड़े टुकड़े कर दिए, जिसके लिए आज भी उन्हें जिम्मेदार ठहाराया जाता है।

सोवियत संघ से टूट कर 15 नए देश बने, जिसमें अजरबैजान, आर्मीनिया, बेलारूस, कजाकिस्तान, जॉर्जिया, लातविया, मालदोवा, रूस, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, लिथुआनिया, तुर्कमेनिस्तान, यूक्रेन और उज्बेकिस्तान शामिल थे। यह किसी और की नहीं मिखाइल गोर्बाचेव की कमजोर नीतियां ही थी, जिसने सोवियत संघ को तोड़ने का काम किया। यही कारण है कि वो पश्चिमी देशों के नायक हैं जबकि अपने ही देश में खलनायक बनकर रह गए।

सोवियत संघ टूटने के कारण भारत को भी नुकसान हुआ और हम सोवियत संघ से क्रायोजेनिक इंजन प्रौद्योगिकी हासिल करने में नाकामयाब हुए। 18 जनवरी 1991 को क्रायोजेनिक इंजन प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के लिए सोवियत संघ के साथ समझौता हुआ था। अमेरिका समेत कई देशों ने भारत के लिए इसे हासिल करने में रोड़ा अटकाया। फिर जब सोवियत संघ का विघटन हुआ तो अमेरिका ने रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति बोरिस येल्तिसिन पर दबाव डालकर भारत को क्रायोजेनिक इंजन प्रौद्योगिकी को लेकर समझौते से पीछे हटने पर मजबूर किया। तब तो भारत, रूस से क्रायोजेनिक इंजन प्रौद्योगिकी हासिल नहीं कर पाया परंतु बीस वर्षों की कड़ी मेहनत के दम पर स्वेदशी क्रायोजेनिक इंजन निर्मित किया।

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