ड्यूल सर्कुलेशन मॉडल: कहते हैं कि नकल के लिए भी अक्ल चाहिए होती है, परंतु यह बात चीन को कहां मालूम है। पूरी दुनिया के सामने स्वयं को सर्वशक्तिशाली दिखाना परंतु असल में खोखला होना, वर्तमान समय में चीन की स्थिति कुछ ऐसी ही है। चीन यह दिखाने के प्रयास करता है कि वो महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। परंतु हकीकत यह है कि उसी चीन की हालत आज बेहद ही खराब है और वो अभी अपने सबसे बुरे आर्थिक दौर का सामना रहा है।
कोरोना के बाद से ही चीन की आर्थिक हालत बिगड़ती चली आ रही है। ऐसे में चीन स्वयं को संभालने के लिए भारत के आत्मनिर्भर अभियान की नकल करने के प्रयास कर रहा है। शी जिनपिंग ने कॉपी-पेस्ट करते हुए ‘आत्मनिर्भर भारत’ की सस्ती कॉपी बनानी चाही लेकिन उनका यह दांव एकदम फुस्स हो गया और जिनपिंग का यह कदम उन्हीं पर भारी पड़ गया।
देखा जाए तो पिछले ढाई से तीन सालों का समय पूरी दुनिया के लिए काफी अस्त-व्यस्त भरा रहा हैं। पहले कोरोना महामारी ने विश्व को जकड़ा और तमाम तरह की परेशानियां खड़ी की। कोरोना थमा तो रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध आरंभ हो गया, जिसने रही-सही कसर को पूरा कर दिया। रूस-यूक्रेन युद्ध का प्रभाव वैश्विक स्तर पर पड़ता दिखा। दुनिया मंदी की ओर जाने लगी हैं। हालांकि भारत पर इसका कुछ खास असर नहीं पड़ा और हम इस मुश्किल घड़ी में भी मजबूत से खड़े हुए हैं।
चीन का ‘ड्यूल सर्कुलेशन’ मॉडल
वहीं बात चीन की करें तो उसकी आर्थिक हालत लगातार खराब होती नजर आ रही है। कोरोना वायरस के दौरान चीन को बड़े आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ा। चीन की सप्लाई चेन लगभग ठप पड़ गयी। एक तरफ चीनी कंपनियों की तरफ से लगातार यह दावे किए जाते रहे कि वह बढ़िया क्वालिटी का माल पूरी दुनिया को उपलब्ध कराती आ रही हैं, परंतु चीनी सामानों की गुणवत्ता से अब हर कोई अच्छे से वाकिफ हो ही चुका है। यही कारण है कि पश्चिमी देशों का चीन से मोहभंग होने लगा। ऐसे में चीनी अर्थव्यवस्था, सप्लाई चेन पर निर्भर होने के चलते प्रभावित होने लगी।
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इन बीच अपनी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए शी जिनपिंग ने भारत के आत्मनिर्भर मॉडल को कॉपी करने का प्रयास किया और ड्यूल सर्कुलेशन की नीति अपनाई थी। 14 मई 2020 को चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इसका प्रस्ताव रखा था। इसका सीधा अर्थ यह था कि चीनी नागरिक चीन में ही वस्तुओं का उत्पादन कर उन्हें चीन में ही बेचे अर्थात चीन स्वयं सामान बनाए और इसका उपयोग भी करें।
अब इस मामले में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि एक पुरानी सभ्यता होने के बावजूद माओ के शासनकाल से चीन की कार्यशैली बदल गयी। खेतीबाड़ी से अधिक मैन्युफैक्चरिंग पर जोर दिया, जिसका परिणाम नतीजा यह हुआ कि तकनीक से जुड़े मामले में तो चीन आगे निकल गया है लेकिन आज की चीनी युवा पीढ़ी को खेती, पोल्ट्री जैसे कामों में कोई रुचि नहीं रही है।
इसके अलावा चीन की जो सबसे बड़ी समस्या रही है वो यह कि सभी को मालूम है कि चीन अपना खराब गुणवत्ता वाला माल पूरी दुनिया में बेचता आया है जबकि बदले में चीनी नागरिक उच्च गुणवत्ता वाली चीजों का उपयोग करते आ रहे थे। वहीं, सप्लाई चेन ठप होने के कारण जब चीन के उच्च श्रेणी के लोगों को चीन का ही पुराना घिसा पिटा और निम्न गुणवत्ता वाला सामान उपयोग करना पड़ा, तो उनका भी मोह इससे भंग हो गया। चीन में ही चीन का बना सामान निम्न गुणवत्ता वाला साबित हुआ जिसका परिणाम यह हुआ कि चीन का ड्यूल सर्कुलेशन वाला मॉडल पूरी तरह विफल साबित हुआ है।
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आत्मनिर्भर भारत को कॉपी-पेस्ट करना नहीं आया काम
अब प्रश्न यह उठता है कि चीन यह ड्यूल सर्कुलेशन का मॉडल कहां से लाया? तो आपको बता दें कि ये भारत से चोरी किया हुआ कॉपी पेस्ट मॉडल है, जिसे वर्ष 2020 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत का नाम दिया था। भारत पहले से ही इस कथित ड्यूल सर्कुलेशन वाले मॉडल को फॉलो करता रहा है, जहां एक राज्य की चीज दूसरे राज्य की जरूरतों को पूरी करती है तो वहीं किसी अन्य राज्य का का सामान पूरे देश के लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करता है।
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इसे सीधे तौर पर समझे तो बिहार और उत्तर प्रदेश में पैदा होने वाले चावल गुजरात और महाराष्ट्र में चाव से खाया जाता है, तो वहीं गुजरात महाराष्ट्र आदि के इलाकों से आने वाला कपास लोगों के कपड़ों की आवश्यकता को पूरा करता है। दक्षिण भारत के मसाले पूरे देश के भोजन में स्वाद लाते हैं, तो वहीं उत्तर भारत की दालें और चावल दक्षिण भारत के लोगों के भोजन का मुख्य सामग्री बनते हैं। जम्मू-कश्मीर और हिमाचल का सेब पूरे भारत में खाया जाता है। दार्जिलिंग और असम की चाय भारत के अलावा विदेशों तक में लोकप्रिय है।
ऐसे में वैसे तो भारत बरसों से ही आत्मनिर्भर भारत नाम के मॉडल को अपनाता आया है परंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2020 में “आपदा में अवसर” की तरह उपयोग करते हुए एक अभियान बना दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि कोरोना वायरस की त्रासदी और रूस-यूक्रेन युद्ध के बावजूद भारत वैश्विक स्तर ऐसे समय में मजबूती से खड़ा रहा, जब विश्व की कथित महाशक्तियां आर्थिक मंदी के आगे दम तोड़ने लगी हैं। आज की स्थिति में भारत न केवल अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर रहा है, बल्कि जरूरतमंद देशों की सहायता करने के लिए तत्पर रहता है।
भारत ने रक्षा से लेकर तकनीक के क्षेत्र में अहम प्रगति हासिल की है। इसी के चलते चीन में बसी वैश्विक कंपनियों ने भारत में अपने स्थानांतरण की संभावनाएं तलाशना शुरू कर दिया। यह आत्मनिर्भर की क्रांति ही है कि आज भारत वैश्विक स्तर पर एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभरा है और हाल ही उसने ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को पछाड़ा है।
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भारत के लोग शुरू से इसी आत्मनिर्भर भारत के पैटर्न का पालन करते आए हैं इसलिए भारत में आत्मनिर्भर भारत सफल रहा। जबकि चीन द्वारा भारतीय मॉडल को कॉपी पेस्ट कर इसे ड्यूल सर्कुलेशन का नाम देना काम ना आया, क्योंकि वहां चीनी नागरिक अपनी सभ्यता से दूर जा चुके हैं और इसके चलते ही वहां शी जिनपिंग का ड्यूल सर्कुलेशन मॉडल बुरी तरह से विफल साबित हो गया।
चीनी अर्थव्यवस्था की हालत खराब
चीन की आर्थिक हालत खराब हो रही है, यह तो मालूम चल ही गया। इसके साथ ही चीनी कंपनियों को लोन लेने में भी समस्याओं का सामना करना पड़ा रहा है। क्योंकि पहले से ही जिन अमेरिकी कंपनियों ने चीनी कंपनियों को कर्ज दिया हैं उन्हें अपने पैसे फंसे होने की चिंता सताने लगी है। रूस यूक्रेन युद्ध के कारण पहले ही लाखों डॉलर के घाटे में चल रहे अमेरिकी वित्तीय कंपनियों को ताइवान के मुद्दे को लेकर अमेरिका और चीन के बीच टकराव की स्थिति बनने की संभावनाएं है और वे लगातार चीन में फंसे अपने पैसे को लेकर चिंता जाहिर कर रहे हैं। इस मामले से परिचित लोगों के अनुसार सोसाइटी जेनरल एसए, जेपी मॉर्गन चेस एंड कंपनी और यूबीएस ग्रुप एजी सहित ऋणदाताओं ने अपने कर्मचारियों को जोखिम प्रबंधन के लिए आकस्मिक योजनाओं की समीक्षा करने के लिए कहा।
इस बीच वैश्विक बीमाकर्ता चीन और ताइवान में निवेश करने वाली फर्मों को बीमा देने में पीछे हट रहे हैं क्योंकि उन्हें चीन और अमेरिका के बीच टकराव की आशंकाएं हैं। ऐसे में इन कंपनियों का जोखिम कवरेज 60 फीसदी से अधिक हो गया है। कहा जा रहा है कि अमेरिका से चीन का टकराव होने की स्थिति में चीन को लोन और चीन में काम करने वाली कंपनियों को बीमा कवर देने वाली संस्थाएं पीछे हट सकती है, जिससे चीन को एक बड़ा आर्थिक झटका लग सकता है।
इस मुद्दे पर चीन के ग्लोबल टाइम्स अखबार ने पिछले हफ्ते रिपोर्ट किया था कि चीन में किसी भी तरह की कमी से इन फर्मों को ही नुकसान होगा। कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार ने कहा- “अमेरिकी राजनेता चीनी बाजार को अलग-थलग करने के लिए शीर्ष अमेरिकी वित्तीय संगठनों पर दबाव बनाना चाहते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन के वित्तीय बाजारों में कुछ पूंजी खो सकती है लेकिन वाशिंगटन के जहरीले फैसले के परिणामस्वरूप अमेरिकी बैंकों को भी बदतर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ सकता है।”
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ग्लोबल टाइम्स का यह बयान दर्शाता है कि चीन अपने आर्थिक ढांचे को अभी भी मजबूत दिखाने की कोशिश कर रहा है, जबकि ऐसा है नहीं। ख़बरें हैं कि चीन से शिपिंग माल की लागत दो साल से अधिक समय में सबसे निचले स्तर पर आ गई है क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई है। दूसरी ओर देखा जाए तो चीन का निर्यात भी लगातार घट रहा है। अनेकों मल्टीनेशनल कंपनियों ने चीन का साथ छोड़ दिया। इसकी वजह चीन के प्रति नकारात्मक छवि रही। इन सबसे स्पष्ट होता है कि चीन की हालत खस्ता है और इन सबके बीच वो स्वयं को मजबूत दिखाने का केवल ढोंग ही रच रहा है।
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