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दक्षिण कन्नड़ की संस्कृति अद्वितीय है और ‘कांतारा’ ने इसमें चार चांद लगा दिए हैं

संस्कृति को समर्पित है कांतारा!

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
19 October 2022
in चलचित्र, ज्ञान
Dakshina kannada

Source- TFIPOST

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“वराह रूपं, दैव वरिष्टम

वराह रूपं, दैव वरिष्टम!”

अगर यह संवाद नहीं सुने है, तो आप हैं किस लोक में? कांतारा ने जनमानस और बॉक्स ऑफिस, दोनों पर तहलका मचा रखा है। कभी जिस देश में ‘तुम्बाड़’ को 10 करोड़ कमाने के लाले पड़ते थे, वहां इस फिल्म ने न केवल 162 करोड़ से अधिक कमाए हैं अपितु हमारी संस्कृति, हमारे वैभव को अक्षुण्ण रखते हुए हमारे जनमानस के कुछ कथित ठेकेदारों को स्पष्ट संदेश दिया है- कथावाचन कुछ ऐसे भी होता है।

परंतु आपको क्या लगता है, कांतारा की कथा केवल बॉलीवुड पर एक और तमाचे तक ही सीमित है? नहीं, इसने हमारे देश की एक ऐसी संस्कृति पर प्रकाश डाला है, जिसपर हम सबको गर्व करना चाहिए परंतु जिससे हम सभी अनभिज्ञ हैं। दरअसल, दक्षिण कन्नड़ संस्कृति के तुलुवा जनजातियों की लोकरीतियों पर आधारित ‘कांतारा’ हाल ही में सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई, जिसे ऋषभ शेट्टी ने लिखा, निर्देशित किया एवं प्रमुख भूमिका भी उन्होंने ही निभाई है।

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‘कांतारा’ की कहानी वनवासियों के जमीनों को सरकार और जमींदारों द्वारा कब्जाने के इर्द-गिर्द घूमती है। क्या किसी जंगल क्षेत्र को रिजर्व घोषित करने से पहले सरकारें वहां के वनवासी समाज की संस्कृति और परंपराओं को ठेस पहुंचाए बिना उनके लिए वैकल्पिक व्यवस्थाएं करती हैं? क्या दंबंगों के अत्याचार से वनवासी समाज आज भी मुक्त है? ये वो प्रश्न हैं, जो इस फिल्म को देखने के बाद उठेंगे। इसमें ये भी दिखाया गया है कि कैसे आस्था के मामले में वनवासी समाज से पूरे हिन्दुओं को सीखना चाहिए और इससे कई वामपंथियों के स्थान विशेष में जबरदस्त ज्वाला भी सुलगी है!

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इस फिल्म की कहानी जल्लीकट्टू जैसे दक्षिण भारत के खेल पर आधारित है, जो आधुनिक और सांस्कृतिक विरासत के बीच एक टकराव को दिखाती है। फिल्म की कहानी में राजा ने देवता माने जाने वाले एक पत्थर के बदले अपनी कुछ जमीन गांव वालों को दे दी थी। राजा को देवता ने पहले ही बता दिया था कि अगर उसने जमीन वापस ली तो अनर्थ हो जाएगा। दूसरी तरफ वन विभाग के एक अधिकारी को लगता है कि गांव के लोग अंधविश्वास के कारण जंगल को नुकसान पहुंचा रहे हैं और पशुओं के साथ क्रूरता कर रहे हैं। यही टकराव फिल्म की कहानी है। फिल्म में गांव वालों के जंगल और जानवरों से जुड़े अपने विश्वास हैं और उनका मानना है कि जब वो जंगल की सेवा करते हैं तो जंगल पर सिर्फ उनका अधिकार है।

जो लोग पिछड़े वर्गों और वनवासियों को हिन्दुओं से अलग देखते हैं या फिर जानबूझ कर अलग करने की कोशिश करते हैं, उनके लिए यह फिल्म करारे तमाचे के समान है। इसे देखने के बाद उन्हें पता चलेगा कि कैसे वो वास्तविकता से कोसों दूर हैं। वनवासियों को भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा करते हुए दिखाया गया है। प्रोपेगेंडा चलाने वालों को ये भी समझना चाहिए कि शिव को ‘पशुपति’ कहा गया है। वनवासी समाज की उनमें आस्था के बिना यह शब्द आ ही नहीं सकता है।

परंतु बात यहीं पर नहीं समाप्त होती। कांतारा में एक अभिन्न अंग है ‘भूत कोला’।  कर्नाटक स्थित तुलु नाडु के जंगलों में ‘भूत कोला’ पर्व के इर्द-गिर्द कहानी बुनी गई है। इसे ‘दैव कोला’ या फिर ‘नेमा’ भी कहते हैं। इसमें जो मुख्य नर्तक होता है, उसे वराह का चेहरा धारण करना होता है। इसके लिए एक खास मास्क तैयार किया जाता है। वराह के चेहरे वाले इस देवता का नाम ‘पंजूरी’ है। वराह अवतार भगवान विष्णु का तीसरा अवतार था, जब उन्होंने पृथ्वी को प्रलय से बचाया था। जगंली सूअर का वेश धारण कर उन्होंने हिरण्याक्ष का वध किया था। वेदों और पुराणों में भी वराह का जिक्र मिलता है।

संस्कृति को समर्पित है कांतारा

कर्नाटक का अति मनोरम यक्षगान नाटिका अथवा ‘यक्षगण’ थिएटर भी ‘भूत कोला’ से ही प्रेरित है। इसी से मिलता-जुलता नृत्य मलयालम भाषियों के बीच भी लोकप्रिय है, जिसे ‘थेय्यम’ कहते हैं। अब इसमें भी कई तरह के देवता हैं, जिनकी अलग-अलग वनवासी समाज पूजा करते हैं। इनमें से एक तो ऐसे हैं जिनका चेहरा मर्दों वाला और गर्दन के नीचे का शरीर स्त्री का है। उनके चेहरे पर घनी मूंछ होती है लेकिन उनके स्तन भी होते हैं। उन्हें ‘जुमड़ी’ कहा जाता है। ऐसे अनेकों देवता हैं, जिनका अध्ययन करने पर हमें उस खास समाज के इतिहास और संस्कृति के बारे में पता चलता है। हर गांव में आपको वहां अलग-अलग देवता मिल जाएंगे। नर्तकों का मेकअप भी अलग-अलग रीति-रिवाजों की प्रक्रिया के लिए अलग-अलग ही होता है। स्थानीय जमींदार, प्रधान या फिर जन-प्रतिनिधि को ‘भूत कोला’ के दौरान ‘दैव’ के सामने पेश होना पड़ता है क्योंकि वो उनके प्रति उत्तरदायी होते हैं।

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इसी प्रकार, अत्याचारी राजाओं को हराने के लिए एक ब्राह्मण ने न सिर्फ शस्त्र उठाया, बल्कि उन्हें परास्त कर उनकी जमीनें गरीबों को दे दी। यही गरीब ब्राह्मण कालांतर में याचक से जजमान बन गए और कई जमींदार भी हो गए। दक्षिण कन्नड़ जिले में कन्नड़ नहीं बल्कि तुलू भाषा बोली जाती है। इसीलिए, कई बार तुलु नाडु नाम से अलग राज्य बनाने की मांग भी होती रही है। हालाँकि, इस विवाद में हम नहीं पड़ेंगे। कहते हैं, भगवान परशुराम ने सह्याद्रि पर्वत (गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल और गोवा में फैली पश्चिमी घाट की पहाड़ियां) पर भगवान शिव की तपस्या के लिए चले गए। भगवान शिव ने प्रकट होकर उन्हें कदली वन जाने को कहा और बताया कि वो वहीं अवतार लेने वाले हैं। वहां पहुंच कर परशुराम ने समुद्र में समाए इलाकों को पानी से बाहर निकाला और वहां लोगों को बसाया। इन्हीं इलाकों को ‘परशुराम सृष्टि’ भी कहा गया।

कर्नाटक में आज भी भगवान परशुराम द्वारा स्थापित 7 मंदिर सामने हैं – कुक्के सुब्रह्मण्या (नाग मंदिर), उडुपी स्थित श्रीकृष्ण मंदिर, कुंभाषी स्थित विनायक मंदिर, कोटेश्वर स्थित शिव मंदिर, शंकरनारायण मंदिर, मूकाम्बिका मंदिर और गोकर्ण शिव मंदिर। कर्नाटक, केरल और गोवा के तटवर्ती इलाकों को ‘परशुराम क्षेत्र’ भी कहा जाता है। ऐसे में दक्षिण कन्नड़ संस्कृति को कांतारा ने अपने अद्भुत शैली में साष्टांग प्रणाम किया है। बहुत कम ऐसी फिल्में बनी है, जो न केवल हमारी संस्कृति को नमन करे अपितु उसकी भव्यता, उसके वैभव को भी अक्षुण्ण रखे। कांतारा ऐसी ही एक फिल्म है।

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Tags: कांतारादक्षिण कन्नड़दक्षिण कन्नड़ संस्कृति
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