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क्या रघुराम राजन चाहते हैं कि भारत वोकवाद के लिए आर्थिक प्रगति को त्याग दें?

अपनी गुफा से बाहर निकलकर फिर बकवास बिखेरने लगे रघुराम राजन

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
16 October 2022
in अर्थव्यवस्था
raghuram rajan
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लुक माई सन, यू शुड नॉट ग्रो लाइक दिस, बीकॉज़ द वर्ल्ड विल फॉल अपार्ट। वी नीड अ क्लीन एण्ड ग्रीन वर्ल्ड, इंडिया कैनोट ग्रो द वे इट वान्ट्स टू।

अब आप भी सोचते होंगे कि ऐसे मखनचू वचन किस परिप्रेक्ष्य में, अंग्रेजी में एतना ज्ञान क्यों, तो बंधु मामला रघुराम राजन से संबंधित है। भाईसाब अपनी गुफा से बाहर निकलकर फिर बकवास बिखेरने आए हैं क्योंकि बंधुवर को भारत की प्रगति कैसे भी करके रोकनी है, चाहे स्वयं इस प्रयास में मर्कट सिद्ध हो जाएं।

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इस लेख में जानेंगे कि कैसे रघुराम राजन चाहते हैं कि भारत आर्थिक प्रगति की बलि चढ़ा दे, क्योंकि ये पर्यावरण विशेषकर वोक संस्कृति के लिए हानिकारक है।

और पढ़ें- रघुराम राजन से लेकर अरविंद सुब्रमण्यम तक – तमिलनाडु के CM स्टालिन ने आर्थिक सलाहकार परिषद बना, खुद को दिया उपहार

भारत की आर्थिक व्यवस्था पर व्याख्यान

हाल ही में भारत की आर्थिक व्यवस्था पर व्याख्यान देते हुए रघुराम राजन ने बताया कि निस्संदेह भारत की प्रगति प्रशंसनीय है, परंतु अभी समय नहीं आया है कि हम औद्योगिक इन्टेन्सिव अर्थव्यवस्था/एक्सपोर्ट आधारित सर्विस अर्थव्यवस्था पर ध्यान दें। उन्होंने कहा है कि हमें चीन आधारित मैन्युफैक्चरिंग मॉडल का अंधानुकरण करने से बचना चाहिए।

अच्छा जी, अच्छा विचार है, परंतु ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए? इस पर इनका लाजवाब तर्क सुनिए, ऐसा इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि ये पाश्चात्य संस्कृति और पर्यावरण के विरुद्ध है। इसके अतिरिक्त हमें शिक्षा और युवाओं के कौशल विकास पर अतिरिक्त ध्यान देना चाहिए –

सुनो भाई अमर्त्य सेन की आधार कार्ड कॉपी, मैंने एकोनॉमिक्स 12वीं में ही पढ़नी छोड़ दी थी। परंतु अगर ये आपका आर्थिक दृष्टिकोण है तो हमारी 12वीं की बेसिक्स आपसे कहीं अधिक स्ट्रॉंग है और ये आपके लिए शर्म की बात होनी चाहिए। पर छोड़िए, रघुराम राजन और शर्म एक लाइन में फिट नहीं बैठते हैं। ये एक टर्म और टिकते तो देश की अर्थव्यवस्था का इतना सत्यानाश करते जितना मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने भी मिलकर नहीं किया।

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अनेक उदाहरण हैं

उदाहरण के लिए रघुराम राजन ने अक्टूबर 2003 से दिसंबर 2006 तक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुख्य अर्थशास्त्री के रूप में कार्य किया। 2008 में, भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने रघुराम राजन को अपना आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया। उसी वर्ष, रघुराम राजन को योजना आयोग के आर्थिक सुधारों पर एक उच्च स्तरीय समिति का प्रमुख बनाया गया था। इस समिति ने रघुराम राजन की देखरेख में आर्थिक सुधारों से संबंधित रिपोर्ट को पूरा किया।

परंतु अर्थशास्त्री के तौर पर उनकी कुछ खास सफलता नहीं रही। रघुराम ने केंद्रीय बैंकर के रूप में निर्णय की अक्षम्य त्रुटियां कीं और बार-बार ऐसा किया। उनका कार्य इस तथ्य की व्याख्या करता है कि सितंबर 2013 में राजन के RBI गवर्नर के रूप में पदभार संभालने के बाद रेपो दर 7.5% थी। तेल की कीमतें 112 डॉलर प्रति बैरल और तीन साल बाद 2016 में, तेल के साथ 50 डॉलर से कम, रेपो तब भी 6.5% नीचे था। 2013 में राजन के कार्यभार संभालने के बाद थोक मूल्य सूचकांक (WPI) 7.5%, खुदरा मुद्रास्फीति 11.47%, खाद्य मुद्रास्फीति 14.72% और बॉन्ड यील्ड 8.5% थी।

और पढ़ें- आर्थिक मंदी की नींव डालने वाले रघुराम राजन आज सरकार को ही इसके लिए कोस रहे हैं

अब रघुराम राजन ये भूल गए हैं कि मौद्रिक नीति, सार्वजनिक नीति और वैश्विक वातावरण से अलग है। मुख्य मुद्रास्फीति (inflation) में गिरावट के बावजूद राजन ने मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाकर चुना। राजन ने अनिच्छा से एनपीए मान्यता मानदंडों में मामूली बदलाव किया पर उस समय बहुत देर हो चुकी थी। इसके अलावा जब राजन 2013 में RBI गवर्नर बने तो 2008 और 2013 के बीच मनमोहन सिंह की कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के आर्थिक सलाहकार के रूप में उनका पर्याप्त दबदबा था। NPA समस्या की जड़ वास्तव में 2008 में शुरू हुई, जिसमें 2013 में NPA 53000 करोड़ रुपये से बढ़कर 2.4 लाख करोड़ रुपये हो गया, वो भी 352% की भारी उछाल के साथ।

तत्कालीन यूपीए सरकार के आर्थिक सलाहकार के रूप में राजन को एनपीए गड़बड़ी की उत्पत्ति के लिए दोष देना चाहिए, जो उनके सामने आया था। 2008 में बैंकिंग प्रणाली के भीतर तनावग्रस्त इकॉनमी एक बड़ी समस्या थी। हम यह समझने में विफल रहे हैं कि राजन ने 2012-2013 तक इंतजार क्यों किया? 2013 तक, दबाव वाली संपत्ति (stressed asset ) पहले से ही बैंकिंग प्रणाली में कुल बकाया ऋणों का 9.2% थी, लेकिन राजन ने इस मुद्दे पर बिना किसी स्पष्ट एनपीए समाधान योजना के साथ काम करना जारी रखा।

और पढ़ें: भारत ने नकली पर्यावरणविदों के मुंह पर जड़ा तमाचा, वन क्षेत्र में दर्ज की जबरदस्त वृद्धि

पाश्चात्य जगत के दोहरे मापदंड

इसके अतिरिक्त पूर्व में भारत ने पाश्चात्य जगत को उनके दोहरे मापदंडों पर आड़े हाथ लेने से भी पीछे नहीं रहा है। कुछ ही माह पूर्व पीएम मोदी ने जलवायु परिवर्तन पर बोलते हुए पश्चिमी देशों के झूठे प्रचार पर भी हमला बोला। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस तरह के खराब जलवायु परिदृश्य की जिम्मेदारी निष्पक्ष और पूरी तरह से पश्चिमी देशों पर है। पश्चिमी प्रचार तंत्र का तथ्यात्मक खंडन करते हुए पीएम मोदी ने कहा, “दुनिया के बड़े आधुनिक देश (समृद्ध राष्ट्र) न केवल पृथ्वी के अधिक से अधिक संसाधनों का दोहन कर रहे हैं, बल्कि वे अधिकतम (संचयी) कार्बन उत्सर्जन के लिए भी जिम्मेदार हैं। विश्व का औसत कार्बन फुटप्रिंट लगभग चार टन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है जबकि भारत में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष केवल 0.5 टन है।”

पश्चिमी देशों के लिए पीएम मोदी का जोरदार खंडन इस विश्वास से उपजा है कि उनके पास एक जिम्मेदार महाशक्ति के रूप में उभरने की क्षमता है। पिछले कुछ वर्षों में, भारत ने हरित ऊर्जा क्षेत्र में कुछ बड़े कदम उठाए हैं। पेरिस में COP21 सम्मेलन के दौरान, भारत ने ऊर्जा के गैर-नवीकरणीय स्रोतों पर अपनी निर्भरता को काफी कम करने के लिए प्रतिबद्ध था।

इससे पूर्व में भी उन्होंने एक भाषण में बताया था कि कैसे सरदार सरोवर बांध को पूरा करने से रोकने हेतु न्यायपालिका और पर्यावरण संरक्षण के सिपाही अवरोध उत्पन्न करते रहे। न्यायपालिका उस समय एक ठोस निर्णय लेने से कतराती रही थी। पर्यावरण क्रांतिकारियों के चलते विश्व बैंक ने भी पैसा नहीं दिया था। इतने सालों बाद उसी बांध के चलते कच्छ में जो विकास हुआ है, जो एग्रो एक्सपोर्ट में झंडे गाड़े गए है, उसपर कोई ध्यान नहीं देता है।

और पढ़ें: राकेश टिकैत ने स्पष्ट कर दिया – कृषि कानून तो एजेंडा था ही नहीं

लिपस्टिक आंदोलनकारी

प्रधानमंत्री ने यह भी बताया कि ऐसे लिपस्टिक आंदोलनकारियों से नुकसान गरीबों का हुआ है। सड़के नहीं है तो अस्पताल, स्कूल दूर है। बिजली नहीं है तो आर्थिक और बौद्धिक विकास दूर है। कुछ चंद लोगों की हठधर्मिता के कारण सभी लोगों का नुकसान नहीं होने दिया जा सकता है। यह असहनीय है कि कुछ लोग जिनके पक्ष को आसानी से दरकिनार किया जा सकता था, लेकिन तार्किकता को एक किनारे रखकर भारतीय लोकतंत्र में एक वक्त ऐसे लोगों की पूजा की गई है।

भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस अंदाज में ऐसे छद्म और दोगले लोगों को फटकार लगाई है, वह भी समझ गए होंगे कि विदेशी पैमाने पर भारतीय पर्यावरण को नापना मूर्खता होगी। ये निहायती मूर्खों का कार्य है कि वह अपने देश की विरासत को विदेशी कौड़ियों में बेचना चाहते है। प्रधानमंत्री ने ऐसे ही लोगों को उपनिवेशवाद मानसिकता में जकड़ा हुआ समूह बताया है। इसके बाद भी रघुराम राजन जैसे लोग हैं, जो चाहते हैं कि भारत निरंतर गरीब बना रहे, ताकि उनके आका को कुछ न हो।

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