एक तरफ जहां रेप यानी दुष्कर्म करने वाले व्यक्ति के प्रति लोगों के मन में आक्रोश भर जाता है वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे मामले सामने आते हैं जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि- क्या देश के न्यायालय बलात्कारियों के प्रति दयालुता का भाव दिखा रहे हैं? बलात्कारी चाहे कोई भी हो हम अपने देश के कानून से सख्त से सख्त सजा देने की उम्मीद करते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि न्यायालय द्वारा दोषियों को ऐसा दंड दिया जाये जो उदाहरण बने और कोई भी उस तरह के कृत्यों को दोहराने से पहले सौ बार सोचे। परंतु अभी हाल ही में एक ऐसा मामला सामने आया है जिसे जानने के बाद कोई भी सोच में पड़ सकता है कि क्या भारत के न्यायालय बलात्कार के आरोपियों के प्रति दयालुता दिखा रहे हैं? जी हां, हम छावला गैंगरेप केस की ही बात कर रहे हैं।
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छावला गैंगरेप केस
बीते दिन साल 2012 में दिल्ली के छावला गैंगरेप केस के तीनों आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बरी कर दिया गया है। साल 2014 में निचली अदालत ने इस केस को ‘दुर्लभ से दुर्लभतम’ कहते हुए तीनों आरोपियों को दोषी पाया था और मौत की सजा सुनाई थी। इसके बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने भी इस केस में फांसी की सजा को बरकरार रखा था। हाई कोर्ट ने तो यहां तक कहा था कि “ये वे हिंसक जानवर हैं जो सड़कों पर शिकार ढूंढते हैं।” वहीं दूसरी तरफ अब इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट कर इन आरोपियों को बरी कर दिया है। आखिर इतने भयानक मामले के आरोपियों को जोकि पहले ही निचले न्यायालय के द्वारा दोषी करार दिए जा चुके थे इनके प्रति न्यायालय इस तरह का दयालुता भरा भाव क्यों दिखा रहा है? क्या हो गया है हमारी कानून व्यवस्था को? क्या न्यायालय के इस तरह के फैसलों के बाद रेप जैसे कृत्यों को बढ़ावा नहीं मिलेगा?
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दिल्ली में साल 2012 में उत्तराखंड की लड़की के साथ बड़ी ही हैवानियत के साथ गैंगरेप किया गया था। जहां पर पीड़िता और उसके परिवार को पूरी उम्मीद थी कि उन्हें न्याय जरूर मिलेगा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने तो इसके विपरीत तीनों आरोपियों को बरी करने का फैसला सुना दिया। सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, अभियोजन आरोपियों के खिलाफ इस अपराध से जुड़े ठोस साक्ष्यों को पेश करने में असफल रहा, इसीलिए इस न्यायालय के पास जघन्य अपराध से जुड़े इस मामले में आरोपियों को बरी करने के सिवा और कोई भी विकल्प शेष नहीं रह गया।
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सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने इसके ऊपर टिप्पणी करते हुए कहा है कि ऐसा हो सकता है कि इस जघन्य अपराध में शामिल अभियुक्त को सजा न देने या उनके बरी होने पर समाज और पीड़िता के परिवार के अंदर दुख और निराशा पैदा हो। लेकिन कानून न्यायालय को नैतिक या केवल संदेह के आधार पर दोषियों को सजा देने की अनुमति नहीं देता है। कोई भी दोषसिद्धि सिर्फ उस फैसले का विरोध या निंदा की आशंका के आधार पर नहीं किया जा सकता है। अदालतों को हर एक मामले का फैसला किसी भी तरह के बाहरी नैतिकता या दबाव से प्रभावित हुए बिना कानून के मुताबिक और उनके गुण-दोष के आधार पर ही करना चाहिए। सभी आरोपियों के बरी होने पर पीड़िता के पिता ने कहा-‘ऐसा लग रहा है जैसे हमारे केस में इंसाफ बिक गया…।’ वहीं पीड़िता की मां को इससे बहुत ही ज्यादा सदमा लगा है।
यह पहली बार नहीं है जब देश के न्यायालय के फैसले अविश्वासनीय रहे हों और ऐसा प्रतीत होता हो कि किसी बलात्कारी के प्रति दयालुता का भाव दिखाया गया है। मध्य प्रदेश में हाई कोर्ट ने एक 4 वर्ष की बच्ची के साथ रेप करने वाले शख्स की आजीवन कारावास की सजा को 20 साल की सज़ा में बदल दिया था। इतना ही नहीं यहां पर खंडपीठ के द्वारा दोषी की आजीवन कारावास की सजा इस आधार के चलते कम की गयी थी कि दोषी ने चार वर्षीय मासूम पीड़िता के साथ दुष्कर्म करने के बाद उसे जिंदा छोड़ दिया। वाकई कारण अविश्वासनीय है।
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निर्भया कांड
आपको याद दिला दें कि छावला रेप केस वही दर्दनाक रेप केस था जिसके होने के 10 महीने बाद यानी 16 दिसंबर 2012 को निर्भया कांड हुआ था। दिल्ली में चलती बस में 23 साल की लड़की के साथ दुष्कर्म किया गया था। इस घिनौने और अमानवीय गैंगरेप ने लोगों के मन मस्तिष्क को झकझोर कर रख दिया था। इस मामले में कुल 6 दोषियों को पकड़ा गया था। जिनमें से एक दोषी के नाबालिग होने पर उसे तीन साल की सजा सुनाई गयी थी। वहीं चार अपराधियों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा फांसी की सजा सुनाई गयी थी और बाकी बचे एक दोषी ने खुद ही फांसी लगा ली थी। लेकिन फिर देश की सर्वोच्च अदालत के द्वारा छावला गैंगरेप के तीनों दोषियों को किस बिनाह पर रिहाई दे दी गयी। ये अविश्वासनीय फैसला हमारे देश के न्यायालयों पर एक प्रश्न चिह्न खड़ा करता है।
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