उद्योग और कोलकाता, वो क्या होता है? आज के परिप्रेक्ष्य में ये चुटकुला आप बहुत सुनते होंगे परंतु वो क्या है न, एक समय वो भी था जब कोलकाता, कलकत्ता हुआ करता था और वह भारत की सांस्कृतिक एवं वित्तीय राजधानी हुआ करती थी। परंतु समय का ऐसा फेर चला कि कभी जो फिल्म उद्योग बंगाल या यूं कहें कि कलकत्ता के हृदय की धड़कन हुआ करती थी, वो बॉम्बे यानी मुंबई स्थानांतरित हो गई। इस लेख में हम विस्तार से समझेंगे कैसे कम्युनिस्टों के आगमन से पूर्व भारत का फिल्म उद्योग कलकत्ता से उड़नछू हो गया और कैसे इससे मुंबई को सर्वाधिक लाभ मिला।
7 जुलाई, 1896
बॉम्बे के टाइम्स ऑफ इंडिया संस्करण में एक विज्ञापन छपा, जिसमें शहरवासियों को वॉटसन होटल में “सदी की महानतम उपलब्धि और दुनिया के सबसे बड़े चमत्कार” को देखने के लिए आमंत्रित किया गया था। विज्ञापन के अनुसार, शाम को चार अलग-अलग समय पर इस चमत्कार को देखने वाली जनता को हॉल में आने की अनुमति थी और हर एक ‘शो’ का टिकट एक रुपया रखा गया था, जो उस समय के हिसाब से काफी अधिक था।
1896: This day 122 yrs ago, the 1st cinema show in India was held at Watson's Hotel, Bombay.
This ad appeared in Times of India pic.twitter.com/Y3gbNuy9el— Mumbai Heritage (@mumbaiheritage) July 8, 2018
परंतु बॉम्बे को अभी फिल्म नगरी बनने में काफी समय लगने वाला था। वो कैसे? असल में कलकत्ता भी ऐसे आविष्कारकों की रुचि का केंद्र बना, जहां प्रारम्भिक ‘Motion Pictures’ दिखाई जाती थी। फ़िरोज़ रंगूनवाला अपनी किताब ‘ए पिक्टोरियल हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन सिनेमा’ में लिखते हैं कि “जल्द ही इन फिल्मों में यानी Motion Pictures में नए बदलाव और अविष्कार भी किये गए। उदाहरण के लिए, ग्लैडस्टोन का अंतिम संस्कार, नेल्सन की मृत्यु, यूनान और तुर्की के बीच युद्ध और लंदन के फायर ब्रिगेड पर आधारित कुछ वृत्तचित्र और ऐतिहासिक फिल्में भी अब दिखाई जाने लगी थी। कुछ ऐसी फ़िल्में भी दिखाई गई जो उपमहाद्वीप में ही बनाई गई थीं।”
किसी जमाने में बंगाल ही गढ़ था
अब फिल्मांकन और फिल्म प्रदर्शन तो एक पाश्चात्य कला थी परंतु इसका स्वाद भारतीयों को भी लग गया और इसके पुरोधा बने दादासाहेब फाल्के। परंतु पुरोधा बनना एक बात है और उद्योग स्थापित करना दूसरी। वास्तविक फिल्म उद्योग की नींव बंगाल या कलकत्ता में पड़ना स्वाभाविक थी क्योंकि यहां संसाधन भी थे, धनबल भी और 1912 से पूर्व ये भारत की राजधानी भी थी। टीएम रामचंद्रन द्वारा संपादित पुस्तक ‘सेवेंटी इयर्स ऑफ इंडियन सिनेमा’ के अंश अनुसार, “वर्ष 1900 में एक अन्य फिल्म निर्माता चार्ल्स पाथे ने भी भारत में फिल्म व्यवसाय शुरू किया। उनकी फिल्मों की ख़ास बात यह थी कि इनमें भारतीय दृश्य भी दिखाए जाते थे।”
अब विदेशी फ़िल्मकारों की सफलता का अनुसरण करते हुए कुछ अन्य भारतीयों ने भी ऐसी फिल्में बनाने की ओर रुख किया, जिनमें एफबी थानावाला, हीरा लाल सेन और जेएफ मदन के नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं। एफबी थानावाला ने मुंबई के दृश्यों और मय्यत को ले जाते हुए लोगों का फिल्मांकन किया और उन्हें प्रदर्शनी के लिए प्रस्तुत किया, तो वहीं कलकत्ता के रहने वाले हीरा लाल सेन ने रॉयल बायोस्कोप के तहत सात लोकप्रिय बंगाली नाटकों के विभिन्न दृश्यों को फिल्माया। जेएफ मदन और उनकी एलफिंस्टन बायोस्कोप कंपनी (कलकत्ता) ने 1905 में नियमित रूप से फिल्में बनाना प्रारंभ कर दिया।
अब भारतीय फिल्म उद्योगों को स्थापित करने में एक नाम जे एफ मदान का भी है। वह मुंबई के एक पारसी परिवार से संबंधित थे परंतु थियेटर के प्रति उनका जुनून उन्हें कलकत्ता ले गया। यहां आकार उन्होंने कोरोनेशन हॉल में बेहद मामूली किरदारों के साथ अपने करियर की शुरुआत की और धीरे-धीरे एक प्रसिद्ध अभिनेता बन गए और फिर एक वो भी दिन आया, जब उन्होंने वो थियेटर कंपनी ही खरीद ली। जेएफ मदन थियेटर के अलावा, कई तरह के दूसरे कारोबार से भी जुड़े हुए थे, जिनमे खाने पीने की चीज़ें, शराब, दवा, बीमा और संपत्ति के लेन-देन जैसे व्यवसाय शामिल थे।
कलकत्ता से मुंबई स्थानांतरित होने के पीछे ये रहे कारण
कलकत्ता का फिल्म उद्योग कितना भव्य था, इसका एक अंश दिबाकर बनर्जी के ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी’ में भी दिखाया गया है। तो फिर ऐसा सम्पन्न उद्योग कलकत्ता से अचानक बॉम्बे में कैसे आ गया? इसके तीन प्रमुख कारण हैं, जिनका समान रूप से विश्लेषण करना आवश्यक है। सर्वप्रथम कारण तो विश्वयुद्ध हो सकता है, जिसने कलकत्ता की कमर ही तोड़ दी थी। निरंतर बमबारी और हमलों ने कलकत्ता को काफी अयोग्य बना दिया था। परंतु हमले मुंबई पर भी कम नहीं हुए थे तो ये तो एक कारण नहीं हो सकता। एक कारण ऐसा है, जो तनिक राजनीतिक भी है और सामाजिक भी।
अब जैसे 1912 में कलकत्ता से राजधानी दिल्ली की ओर स्थानान्तरित हुई, वैसे ही बॉम्बे में फिल्मांकन को बढ़ावा मिलने लगा। ऐसा इसलिए क्योंकि यहां पर क्षेत्रवाद भी कम था और यहां कलाकारों को अधिक अभिव्यक्ति (हां बंधु, ये उस समय हुआ करती थी) मिला करती थी, जबकि कलकत्ता में बांग्ला भाषियों का प्रभाव अधिक था, जिसके कारण के एल सहगल जैसे स्टार भी बॉम्बे स्थानान्तरित होने को विवश हो गए। इसके अतिरिक्त बॉम्बे एक पोर्ट नगरी थी, जो कलकत्ता से अधिक समुद्र के निकट थी और ऐसे में वह हर प्रकार से संसाधनों से सुसज्जित थी।
और पढ़ें: संजय खान – सौम्य से दिखने वाला वो व्यक्ति जिसके पीछे छिपा था ‘हैवान’
बंगाल फिल्म उद्योग – परंतु जिस कारण पर सबसे कम प्रकाश डाला गया है, वो है 1946 के डायरेक्ट एक्शन डे और उसके पश्चात का बंगाल। उससे पूर्व बंगाल एक समृद्ध, प्रगतिशील राज्य था, जहां संस्कृति और धनबल का आदान प्रदान खूब था परंतु जिन्ना और सुहरावर्दी की सनक ने सब नष्ट कर दिया और रक्तपात का जो तांडव मचा, उसे आज भी शब्दों में व्यक्त करना लगभग असंभव है।
भारत के विभाजन के बाद कलकत्ता और बंगाल बस नाममात्र का ही था और ऐसे में न वहां पर कोई सुरक्षित था, न ही कोई अपने फिल्म उद्योग को बसाने का खतरा मोल लेना चाहता था। परंतु बॉम्बे इन सबसे अछूता था और वह धीरे धीरे बढ़ता ही जा रहा था और शीघ्र ही बॉम्बे मायानगरी मुंबई बन गई और कलकत्ता के पास रह गए तो बस बंगाली सिनेमा के अवशेष, जिसके बल पर कुछ दशक तो खींच ले गए, परंतु आखिर कब तक?
TFI का समर्थन करें:
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें.