किसी समय लॉर्ड मैकाले नामक एक अंग्रेज़ अफसर ने कहा था कि यदि भारत में अपना राज स्थापित करना है तो एक ऐसी नीति का सृजन करना होगा, जिसमें भारतवासी चाहे जो पढ़ें लिखें, लेकिन मन से वे हमारे [अंग्रेज़ों] दास रहें। अब इन्होंने तो अपनी बात कह दी, परंतु इसके पश्चात जो हुआ उसका दुष्परिणाम हम भारतीय आज भी भुगत रहे हैं। आज के इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे मिशनरी संचालित स्कूलों ने भारतीयों को पढ़े लिखे गंवारों में परिवर्तित कर दिया।
कुछ पढ़ें लिखे गंवार कहेंगे कि समस्या क्या है? अंग्रेज़ों ने हमें आधुनिक शिक्षा एवं पाश्चात्य संस्कृति से ही तो अवगत कराया है, उन्होंने तो हमें कूप मंडूक वाला जीवन जीने से बचाया, उन्होंने हमारी आंखें खोल दीं। ये हम नहीं कहते, अपितु उस शैक्षणिक पद्धति का बचाव करने वाला हर व्यक्ति कहता है, जिसे मैकाले और उसके द्वारा सुझाई गई शैक्षणिक पद्धति में कोई कमी नहीं दिखती। इस पूरे प्रणाली के द्वारा ऐसे ही जाल तो फैलाया जाते हैं- जो अपने मूल आदर्शों को हीन और विदेश से आए कबाड़ को भी रत्न मानने के लिए हमें प्रेरित करता है। 17वीं शताब्दी से भारत में उत्पन्न हुए मिशनरी संचालित स्कूलों ने भी यही किया जिसके कारण आज अनेक भारतीय न तो पूर्णत्या शिक्षित कहे जा सकते हैं और न ही सशक्त मनुष्य। दूसरे शब्दों में अधिकांश भारतीय पढ़े लिखे गंवारों से अधिक कुछ नहीं है। इस और अच्छे से समझने के लिए हमे कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डालना होगा।
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प्रथम बिंदु- भारतीय भाषाओं को हीन सिद्ध करना
मिशनरी स्कूलों ने जो सर्वप्रथम क्षति पहुंचाई वह था भारतीय भाषाओं का दमन। देखिए, अंग्रेज़ी या कोई अन्य पाश्चात्य भाषा पढ़ना या पढ़ाना अपराध नहीं था और न कभी है, परंतु उसे सर्वोपरि मानकर अन्य भाषाओं को तुच्छ बताना एक जघन्य अपराध है।
वो मैकाले ही था जिसने भारत में उच्च शिक्षा के लिए अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने में भूमिका निभायी और फिर सबकुछ बदल गया। भारतीयों के दिमाग में ठूसा जाने लगा कि यदि वे अंग्रेजी नहीं जानते तो वो तुच्छ हैं। भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेन्टिंक ने मैकाले की नीतियों का पूरी तरह पालन करते हुए पाश्चात्य सभ्यता को इस देश पर थोपने का प्रयास किया, जिससे हम अपनी भारतीय सभ्यता और संस्कृति को तिरस्कृत दृष्टि से देखें और हममें हीन भावना व्याप्त हो जाए।
इतना ही नहीं, अंग्रेजी को सरकारी कार्यों की भाषा घोषित कर दिया गया और कंपनी की सरकार ने एक आदेश पत्र में निर्देश दिया गया कि सरकारी नौकरी में अंग्रेजी का ज्ञान रखने वालों को वरीयता दी जाएगी। अब जो संस्कृत या अन्य भारतीय भाषाओं में पारंगत हो, उसका क्या मोल? जिन संस्कृत के जानकारों को राजा की सभा में अलग-अलग मंत्रालयों में काम मिल जाता था, उनके पास काम ही नहीं था। ऐसे में जीविकोपार्जन के लिए अंग्रेजी जानना होता था और आज भी वहीं चलता आ रहा है।
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मॉरल साइंस का ढोंग
ये मिशनरियां और इनके द्वारा चलाए जाने वाले मिशनरी स्कूलों में मॉरल साइंस अर्थात नैतिक शिक्षा का ज्ञान बहुत दिया जाता था। यदि आपने किसी कॉन्वेन्ट स्कूल में पढ़ाई की हो तो “Lord’s Prayer” जैसी बातें तो अवश्य सुनी होंगी। सोचिए कि जो देश पहले से ही नैतिकता को संस्कृति का आधारस्तम्भ मानता हो उसे बाहर से आए लोग क्या मॉरल साइंस का ज्ञान देंगे। इस पर से इन मिशनरी स्कूलों में दिए जाने वाले इनके मोरल वाले ज्ञान से उस एक धर्म को ही अच्छा मानने लगते थे या ये कहे की उनके मस्तिष्क के साथ ऐसा खेला जाता था कि वे धर्मांतरण कर लेते थे लेकिन जो धर्मांतरण नहीं कर पाते थे उन्हें सेक्युलरिज़्म नाम की बीमारी हो जाती थी। आज भी आपको ऐसे लोग भारत में दिख जाएंगे। ध्यान दीजिए कि जिस देश में ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ अधिकांश भारतीयों के लिए मूल मंत्र हो, जहां हर मानव और उसके विचारों का सम्मान करना नैतिक संस्कारों में हो, उन्हें ही आप सेक्युलरिज़्म और मोरल साइंस का पाठ पढ़ा रहे हैं?
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क्षत्रिय क्षमताओं को खत्म कर देना
क्षत्रिय क्षमताओं को खत्म करने वाले बिन्दु में केवल मिशनरी संगठनों का ही नहीं, अपितु गांधी जैसे व्यक्तियों का भी बराबर का योगदान है। यूरोपीय साम्राज्यवादियों के आगमन से पूर्व हमारे देश में चाहे कोई भी वर्ण हो सभी में एक बात समान थी। इन सबको प्रारंभ से ही शास्त्र के साथ शस्त्र की शिक्षा भी दी जाती थी। ये सभी अपने धर्म अपने राष्ट्र की रक्षा करने की क्षमता से भरे होते थे।
आज जिस प्रकार से हमें किसी भी झड़प में पड़ने से रोका जाता है या फिर हमें कहा जाता है कि प्रतिघात मत करो, तो ऐसा कर हमें अपने क्षत्रिय धर्म यानी मार्शल स्पिरिट से विमुख किया गया। ध्यान देना होगा कि हमारे क्षत्रिय धर्म में पारंगत होने का ही परिणाम था कि हम पर अनेकों आक्रमण– शक, हूण, अरब, तुर्क, अफ़गान, मंगोल, यहां तक कि मुगलों ने अक्रमण किया जिनसे लड़कर हमने उनका सामना किया, हम उन आक्रमणों के सामने डटकर खड़े रहे। वे तलवार के बल पर धर्मांतरण करते थे और हम लड़ने की कला जानते थे। इसके उलट इन मिशनरियों के स्कूलों ने हमारे मस्तिष्क के साथ खेला। हमारे मस्तिष्क में हमारे ही धर्म को लेकर बुरी बातों को भरना हो या फिर आधी जानकारी से युवाओं को भ्रमित करना हो, मुख पर माई चाइल्ड वाली मधुरता रखकर धर्मांतरण के लिए ऐसे ही रास्तों को इन मिशनरियों ने अपनाया।
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शिक्षा का वर्गीकरण
परंतु जो सबसे बड़ा आघात हमारी पारंपरिक व्यवस्था पर किया गया, वह था शिक्षा का वर्गीकरण। हमारे यहां विधा कोई भी हो – दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा इत्यादि, सभी को शास्त्र माना जाता था, यहां रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र है, यहां कला है और सबकुछ एक दूसरे से जुड़ा है। हमारे पूर्वज इस प्रकार शिक्षित किये जाते थे कि वे लगभग हर क्षेत्र के बारे में कुछ न कुछ जानते थे, और किसी एक विषय के विशेषज्ञ होते थे, वो उस उच्च स्तर के विशेषज्ञ होते थे जिसका तोड़ पूरे संसार में न हो। जो योद्धा है वह नर्तक भी है, जो बांसुरी बजाते हैं वो गीता का ज्ञान भी देते हैं और युद्ध भी कर सकते हैं। अर्जुन, श्री कृष्ण, भगवान शिव इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं, यहां तक कि साधारण मनुष्य भी ऐसे शिक्षित किया जाता था कि वह बहुमुखी प्रतीभा का धनी बन पाए।
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शैक्षणिक व्यवस्था में वर्गीकरण एक अभिशाप
परंतु पाश्चात्य शैक्षणिक व्यवस्था में वर्गीकरण का वो छीछालेदर किया गया, उस वार्गीकरण वाले अभिशाप से भारत आजतक नहीं उबर पाया है। जो जिस क्षेत्र से संबंधित नहीं, उसे भी उससे जोड़ दिया गया। अब उदाहरण के लिए, गणित और भौतिकी को ही देख लीजिए जिसे विज्ञान के खूंटे से बांध दिया गया, जबकि उसका अगर गहन अध्ययन करें तो इन दोनों विषयों में कला भी कूट-कूट के भरी है। भोजन जैसी कला में इतना विज्ञान समाहित है, जिसको लिखने के लिए शब्द कम पड़ जाएंगे। लेकिन हमें कूप मंडूक बनाए रखने के लिए विज्ञान, कला और वाणिज्य के तीन क्षेत्रों तक सीमित कर दिया गया, ताकि हमारा सर्वांगीण विकास हो ही न पाए।
परंतु ऐसा अब और नहीं होगा। वर्तमान शिक्षा नीति के अनुसार, बालक के सर्वांगीण विकास पर सम्पूर्ण ध्यान केंद्रित करना होगा जिससे जिस तरह से एक समय शास्त्रों के अंतर्गत सम्पूर्ण शिक्षा पर जोर दिया जाता था, वैसे ही हमारे देश के बालक हर विधा में विशेषज्ञ बनने की ओर अपने कदम बढ़ा सके। जो भूल हमसे मैकाले की नीतियों को समझने में हुई थी, वह आगे की पीढ़ियों को नहीं सहनी पड़े इसकी भी व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए, ताकि हमारी आने वाली पीढ़ियां सशक्त और समृद्ध भारत की ओर अपना योगदान देने में सक्षम हो सकें न कि पढ़े लिखे गंवार बनें।
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