क्रांति के चंदन में लिपटे हुए भुजंग की तरह थे यशपाल

जब भी कोई यशपाल का समर्थन करें तो समझ जाइए कि वो एक देशद्रोही का समर्थन कर रहा है, जिसके कारण चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी शहीद होने के लिए विवश हो गए।

Yashpal – The snake wrapped around the sandalwood of Kranti

Source- TFI

“विश्वासघात की सबसे बुरी बात क्या है? वो शत्रु नहीं देते!”

द गॉडफादर शृंखला में ये संवाद आज भी कई लोगों के मन मस्तिष्क में बैठ चुका है। इसका अर्थ स्पष्ट है और दुर्भाग्य की बात तो यह है कि ऐसे विश्वासघाती लोगों को न केवल सम्मान दिया गया, अपितु भारत में उच्च पदों पर आसीन भी किया गया। आज इन्हीं देशद्रोहियों का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है, जबकि जिन नायकों को इन्होंने मृत्युलोक पहुंचाया था, उन्हें आज भी उचित सम्मान नहीं मिल पाया। इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे यशपाल जैसे भुजंग क्रांति के चंदन समान वृक्ष से लिपट गए और कैसे उसने भारतवर्ष की स्वतंत्रता में बाधा डालने में कोई प्रयास अधूरा नहीं छोड़ा?

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यशपाल का बचपन

3 दिसंबर 1903 को यशपाल पंजाब प्रांत के फिरोजपुर छावनी में जन्में थे। अपने आप को अंग्रेज़ों के विरुद्ध दिखाने के लिए वे बताते थे कि कैसे उनका बचपन बड़ा कष्ट में बीता था, परंतु साथ ही साथ ये भी बताया कि कैसे उन्हें गुरुकुल कांगड़ी जहां उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की, वहां कि शैक्षणिक पद्वति नहीं भाई।

यशपाल की मां उन्हें स्वामी दयानंद के आदर्शों का एक तेजस्वी प्रचारक बनाना चाहती थीं। इसी उद्देश्य से उनकी आरंभिक शिक्षा गुरुकुल कांगड़ी में हुई। आर्य समाजी दमन के विरुद्ध उग्र प्रतिक्रिया के बीज उनके मन की धरती पर यहीं पड़े। यहीं उन्हें पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों को भी निकट से देखने-समझने का अवसर मिला। अपनी निर्धनता का कचोट-भरा अनुभव भी उन्हें यहीं हुआ। अपने बचपन में ग़रीब होने के अपराध के प्रति वे अपने को किसी प्रकार उत्तरदायी नहीं समझ पाते। इन्हीं संस्कारों के कारण वे ग़रीब के अपमान के प्रति कभी उदासीन नहीं हो सके।

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भगत सिंह-सुखदेव के बने साथी

अब यशपाल प्रारंभ में कांग्रेस के प्रति आकर्षित हुए, परंतु असहयोग आंदोलन से मोहभंग के कारण वे नेशनल कॉलेज से जुड़ गए, जहां उनका परिचय भगत सिंह, सुखदेव थापर जैसे युवाओं से हुआ। इनके विचारों से वे बड़े प्रेरित हुए और वे भी क्रांति के मार्ग पर चल पड़े। परंतु वे बाकियों की भांति उतने सक्रिय नहीं थे, जितने अन्य थे। कभी सोचा ऐसा क्यों?

यशपाल के समर्थक कहते थे कि जहां भगत सिंह, सुखदेव जैसे लोग मैदान पर मोर्चा संभालते थे, पर्दे के पीछे से चंद्रशेखर आज़ाद और यशपाल जैसे लोग हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन, जो बाद में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन बन गया, उसका कार्यभार संभालते थे। जब एक एक करके सब मारे गए, तो 1931 से 1936 में संगठन के भंग होने तक यशपाल ने कार्यभार संभाला। बाद में वे एक चर्चित लेखक बने, जिनकी आलोचनात्मक शैली ने कई लोगों का मन मोहा और उन्हें सरकार ने 1970 में पद्म भूषण से भी सम्मानित किया।

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चंद्रशेखर आजाद की दी थी खबर

परंतु हर चमकती चीज सोना नहीं होती। क्या आपको पता है कि यशपाल, चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु के दोषी थे? हम सभी को पता है कि कैसे वीरभद्र तिवारी द्वारा जानकारी दिए जाने पर पुलिस इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क जो कि अब चंद्रशेखर आजाद पार्क है, वहां पहुंची, जहां चंद्रशेखर आजाद ने 27 फरवरी 1931 को वीरगति प्राप्त की थी।

परंतु ये कैसे संभव है? प्रख्यात इतिहासकार और चर्चित आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल के ट्वीट अनुसार- “कहा जाता है कि यशपाल ही चंद्रशेखर आज़ाद की वीरगति का प्रमुख कारण थे। इसलिए कुछ क्रांतिकारी हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गए। उसे बचाने के लिए जेल में रखा गया और अंग्रेज़ों ने उसका भरपूर ख्याल रखा। इतना ही नहीं उसने आम क्रांतिकारियों की तुलना में अपना दंड केवल 6 वर्ष में पूरा किया और जेल में विवाह भी किया (जो अस्वाभाविक था)।

1946 में एक पत्र मिला कि कैसे यशपाल को एक ‘खबरी’ के रूप में हस्तांतरित किया गया। उसने फिर कम्युनिस्टों में भी सेंध लगाई और उसका समर्थन करने में सहारनपुर से मुस्लिम लीग का एक सदस्य और इलाहाबाद से कांग्रेस का एक सदस्य भी शामिल था।”

इतना ही नहीं, इस व्यक्ति ने ये भी आरोप लगाए कि वीर सावरकर ने चंद्रशेखर आजाद और उसके साथियों को मोहम्मद अली जिन्ना को मारने की सुपारी दी थी, जबकि सत्य तो यह था कि आज़ाद उनके वित्तीय सहायता और उपकार से चकित हुए, परंतु उनकी विचारधारा तनिक अलग थी और इसलिए वे पूर्णत्या सावरकर के समर्थन में नहीं आए। ऐसे में आज जब भी कोई यशपाल के समर्थन में आता है, तो समझिए वो एक देशद्रोही का समर्थन करता है, जिसके कारण चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी वीरगति को प्राप्त होने को विवश हुए।

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