आज विश्व में भारत का कद कितना ऊंचा हो गया है, यह किसी से छिपा नहीं है। भारत और रूस की मित्रता भी एक नई कहानी बयां कर रही है। वहीं, अमेरिका तक भारत से पंगा लेने से पूर्व अब तनिक सोचता है। यहां तक कि यूरोपीय संघ के देश एवं यूके भी भारत के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध ही चाहते हैं, जिसमें पीएम नरेंद्र मोदी और उनके विश्वासपात्र विदेश मंत्री, डॉ एस जयशंकर का एक महत्वपूर्ण हाथ है। परंतु क्या आपको पता है कि 1990 के दशक के अंत की ओर हमारे पास ठीक ऐसा ही एक अवसर था, जिसे एक गलत निर्णय के पीछे हमने गंवा दिया? इस लेख में हम आपको पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की उस एक भूल से अवगत कराएंगे, जिसके कारण हम 2000 के प्रारंभ में ही महाशक्ति बनते बनते रह गए और जसवंत सिंह के विदेश मंत्री बनने के कारण भारत ने कूटनीतिक स्तर पर काफी कुछ खोया।
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यहां समझिए पूरी कहानी
वर्ष था 1998 का। दो वर्ष तक एचडी देवेगौड़ा और इन्द्र कुमार गुजराल की अधपकी गठबंधन सरकार झेलने के बाद भारत ने चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले एनडीए को अपार समर्थन दिया। वाजपेयी ने भारत के 10वें प्रधानमंत्री के रूप में पुनः शपथ ली और उन्होंने साथ साथ विदेश मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी संभाला। यह इतिहास में नौवीं बार था कि कोई प्रधानमंत्री बनने के पूर्व या प्रधानमंत्री बनने के बाद अतिरिक्त विदेश मंत्रालय भी संभाले। इससे पूर्व 1977 में जनता पार्टी की सरकार में उन्होंने विदेश मंत्रालय का कार्यभार भी संभाला था।
ऐसे में सत्ता में आते ही अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘ऑपरेशन शक्ति’ पर कार्य प्रारंभ कर दिया, जिसके अंतर्गत भारत को पोखरण में 1974 के बाद पुनः परमाणु परीक्षण करना था। मार्च 1998 से दिसंबर 1998 तक उन्होंने ये कार्य बड़ी ही कुशलता से संभाला। इसके अतिरिक्त पोखरण परीक्षण के पश्चात उत्पन्न अमेरिका के ‘आक्रोश’ और उसके द्वारा आर्थिक प्रतिबंध की धमकियों का उन्होंने डटकर सामना किया। भारत पूरी तरह से आक्रामक था और बिल क्लिंटन को वैसे ही जवाब भी मिल रहा था। तो आखिर ऐसा क्या हुआ कि कभी पोखरण के बाद अमेरिका से दो दो हाथ करने को तैयार भारत, कंधार में फुस्स टायर की भांति तालिबानी आतंकियों के समक्ष ढीला पड़ गया?
जसवंत सिंह की नियुक्ति बड़ी भूल थी?
कारण थे सिर्फ एक – मेजर जसवंत सिंह राठौड़। जी हां, वही जसवंत सिंह, जो अपने कूटनीति के लिए कम और अपने विवादों के लिए अधिक चर्चा में रहे। दिसंबर 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी ने बतौर विदेश मंत्री जसवंत सिंह को नियुक्त किया और उसके बाद अगले 3.5 वर्षों में उनके कर्मकांडों ने भारत को ‘महाशक्ति’ बनने से रोक दिया।सर्वप्रथम तो कारगिल युद्ध से पूर्व जो मैत्री संबंध पाकिस्तान से बनाए गए और जिस प्रकार से पाकिस्तान पर भरोसा करने की भूल गई, उसमें जसवंत सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका थी। कारगिल युद्ध के बाद जिस प्रकार से 2001 में आगरा वार्ता हुई, उससे स्पष्ट होता है कि कूटनीति में जसवंत सिंह का हाथ काफी तंग था, अन्यथा वही भूल बार बार क्यों दोहराई जाती।
यह तो कुछ भी नहीं था। जब इंडियन एयरलाइंस का विमान हाइजैक हुआ तो भारत के पास एक सुअवसर था कि इज़रायल की भांति एक ताबड़तोड़ ऑपरेशन में आतंकियों को मारकर सभी यात्रियों को सुरक्षित निकाल लिया जाए। परंतु जसवंत सिंह के नेतृत्व में विदेश मंत्रालय ने हवाई जहाज IC 814 को न केवल भारत से निकलने दिया अपितु कंधार में अवसर होते हुए भी इंटेलिजेंस एजेंसियों को रोके रखा। स्वयं तत्कालीन आईबी ऑपरेशन्स प्रमुख और अब एनएसए अजीत डोभाल ने बताया था कि कैसे तत्कालीन विदेश मंत्रालय की अकर्मण्यता के कारण शेख मोहम्मद ज़रगर, मौलाना मसूद अज़हर जैसे दुर्दांत आतंकी छूट गए।
अब सोचिए, यदि चंद बुद्धिजीवियों के दबाव में न आकर कंधार वाले कांड को स्वयं अटल जी ने संभाला होता, तो? भारत पर 2000 के बाद आतंकी हमला तो छोड़िए, कोई पत्थर मारने से पूर्व भी हजार बार सोचता। परंतु एक भूल ने सारे किये कराए पर गुड़ गोबर कर दिया और वह भूल थी जसवंत सिंह की विदेश मंत्री के रूप में नियुक्ति।
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