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जब इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह के पीठ में छुरा घोंपा था

पहले साथ दिया और फिर विश्वासघात किया

Vaishali Shukla द्वारा Vaishali Shukla
10 February 2023
in इतिहास
इंदिरा गांधी चौधरी चरण सिंह

Source- TFI

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25 जून 1975 देश के लोकतंत्र पर एक बदनुमा दाग की तरह है। ये वो दिन था जब इंदिरा गांधी ने अपनी हार स्वीकारने की जगह देश पर आपातकाल थोप दिया था। स्वतंत्र भारत के इतिहास के पन्नों में ये सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल माना जाता था। जहां आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए थे तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके खूब मनमानी हुई थी। परंतु आपातकाल खत्म होने के बाद भी देश में काफी राजनीतिक ड्रामा चला। इस दौरान इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह को पहले प्रधानमंत्री बनाकर और फिर उनकी पीठ में छुरा घोंपकर एक अलग ही खेल खेला था।

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मोरारजी देसाई बने प्रधानमंत्री

21 महीने की अवधि के बाद देश पर 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटाया गया था। आपातकाल की समाप्ति के पश्चात देश में लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई। देश में इंदिरा गांधी के विरुद्ध आक्रोश अपने चरम पर था। इस दौरान बिखरी हुई छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टियां जनता पार्टी के बैनर तले एक हो गयी और इन्होंने मिलकर चुनाव लड़ा था। चुनाव में जनता पार्टी की जीत हुई और कांग्रेस और इंदिरा गांधी को अपने गलत निर्णय का परिणाम भुगतना पड़ा। खास बात ये थी इस दौरान जय प्रकाश नारायण इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व और चुनाव प्रसार किया था। जनता पार्टी की जीत के बाद मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बना दिया गया।

मोरारजी देसाई भारत के स्वाधीनता सेनानी, राजनेता और देश के चौथे प्रधानमंत्री बने थे। साथ ही वह प्रथम ऐसे प्रधानमंत्री थे, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बजाये दूसरे दल से थे। मोरारजी देसाई के मन में हमेशा से ही प्रधानमंत्री बनने की इच्छा थी। जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद मोरारजी देसाई उम्मीद लगाए बैठे थे कि वे प्रधानमंत्री बनेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। तब दूसरी ओर एक और राजनेता थे, जो कई वर्षों से प्रधानमंत्री बनने के सपने देख रहे थे। वह थे चौधरी चरण सिंह। लगातार 40 वर्षों तक कांग्रेस पार्टी का सदस्य रहने के बाद उन्होंने 1967 में इस पार्टी से इस्तीफ़ा दिया था। इसके एक साल बाद उन्होंने भारतीय क्रांति दल का गठन किया था।

चौधरी चरण सिंह एक ऐसे राजनेता थे, जिन्होंने हमेशा ही किसानों के हित में बात की थी। उन्हें किसानों का मसीहा भी कहा जाता है। वे अपने उसूलों और सिद्धांतों के बड़े ही पक्के थे। वर्ष 1978 की बात है जब चौधरी चरण सिंह के 76वें जन्मदिन पर दिल्ली के बोट क्लब में किसान सम्मेलन हुआ था। इस दौरान लाखों की संख्या में किसान देश की राजधानी दिल्ली में इकट्ठा हुए थे। इसके जरिए उन्होंने अपनी ताकत को प्रदर्शित किया था। तब से ही 23 दिसंबर को उनके जन्मदिन के अवसर को किसान दिवस के रूप में मनाना आरम्भ हुआ था।

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अनबन की आई खबरें

1977 में इंदिरा सरकार को हराने के बाद गठबंधन की सरकार तो बन गई थी, लेकिन कुछ ही समय में सरकार में खटपट की खबरें सामने आने लगीं। मोरारजी देसाई जब प्रधानमंत्री बने तो चरण सिंह का नाम गृह मंत्री के लिए सुझाया गया। वो बात अलग है कि चरण सिंह की जनता सरकार से अधिक समय तक नहीं बनी। खासकर मोरारजी देसाई और चरण सिंह में बिलकुल भी नहीं बन रही थी। मोरारजी देसाई के विषय में चरण सिंह की राय थी कि वे Do-Nothing प्राइम मिनिस्टर की तरह हैं। साथ ही उनका ऐसा ही कहना था कि मोरारजी स्वयं ही अपने निर्णय लेते थे और वह किसी की भी सुनते नहीं। जल्द ही चौधरी चरण सिंह ने जनता सरकार से इस्तीफा दे दिया। हालांकि समझौता होने के बाद वे देश के उप प्रधानमंत्री बने थे।

दूसरी ओर इंदिरा गांधी दबे पांव सरकार में घुसने के रास्ते तलाश रही थी। तभी चौधरी चरण सिंह ने जनता पार्टी से सभी सांसदों को पार्टी से बाहर निकालते हुए स्वयं को अलग कर लिया। चरण सिंह के सामने ऐसी कठिन परिस्थितियां पैदा हो गयी थी जिससे उनके पास पार्टी तोड़ने के सिवा कोई चारा ही नहीं बचा था। चरण सिंह के जाते ही जनता पार्टी की जड़ें हिल गयी। बस फिर क्या था इंदिरा गांधी ऐसे ही अवसर की तलाश में थी और उन्होंने ये मौका अपनी हाथों से जाने नहीं दिया और इन्होंने चरण सिंह को अपना समर्थन दे दिया। चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री तो अवश्य बनें, परंतु अधिक समय तक वो इस पद पर रह न सकें।

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इंदिरा गांधी ने दिया समर्थन और फिर…

हुआ कुछ ऐसा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद अब इनको सदन में अपना बहुमत साबित करना था। कई दिनों तक इस पर बातचीत होती रही। उसके बाद इनको बहुमत साबित करने के लिए कहा गया तब इंदिरा गांधी ने अपना समर्थन ही वापस ले लिया, जिससे इनकी सरकार अल्पमत में आ गई और सरकार गिर गयी।

चौधरी चरण सिंह के प्रधानमंत्री बनने के समय हिम्मत नाम की मैगजीन में एक खबर आई थी कि इंदिरा गांधी मध्यावधि चुनाव चाहती हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें प्रतीत होता था कि इससे उन्हें अधिक लाभ होगा और ऐसा भी हो सकता है कि सिंह की सरकार दो-तीन महीने भी न रह पाए। हुआ भी ऐसा ही। एक महीने के अंदर ही कांग्रेस ने अपना समर्थन वापस ले लिया था। इस्तीफे देने के बाद चौधरी चरण सिंह ने कहा था कि वो इंदिरा गांधी से ब्लैकमेल नहीं होना चाहते थे। उनके अनुसार, इंदिरा गांधी ने यह शर्त रखी है कि आपातकाल के समय हुई ज्यादतियों से जुड़े जो भी केस उनके खिलाफ दर्ज किए गए हैं, उन्हें वापस ले लिया जाए। मुझे यह शर्त बिलकुल भी मंजूर नहीं है और इसलिए मैं प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे रहा हूं। चौधरी चरण सिंह ने ये भी कहा था, “हम ऐसे किसी व्यक्ति पर मामले कैसे हटा सकते हैं, जो इमरजेंसी के दौरान लोगों पर हुए उत्पीड़न का जिम्मेदार हो। यदि हम सत्ता में रहने के लिए ऐसा करते भी हैं तो फिर ये देश हमें कभी माफ नहीं करेगा।”

अब इस पूरे राजनीतिक घटनाक्रम ने यहीं पर दिलचस्प मोड़ ले लिया था। तब सरकार बनाने के लिए न तो न तो कांग्रेस के पास बहुमत था न जनता पार्टी के पास और न ही चरण सिंह के पास। इस तरह कि स्थिति का एक ही समाधान था कि मध्यावधि चुनाव हो। हालांकि इसके लिए चुनाव आयोग ने राष्ट्रपति से कुछ समय मांगा था और तब तक चरण सिंह ही कार्यवाहक प्रधानमंत्री बने रहे थे। लेकिन अगर देखा जाए तो सरकार गिरने से पहले चौधरी चरण सिंह केवल 23 दिनों तक ही प्रधानमंत्री के पद पर थे। चौधरी चरण सिंह को प्रधानमंत्री के पद से हटाने में सबसे बड़ा हाथ कांग्रेस पार्टी का था। पहले कांग्रेस पार्टी ने चौधरी चरण सिंह का समर्थन किया और फिर कुछ दिनों तक एक राजनीतिक ड्रामा खेला और आखिर में चौधरी चरण सिंह की पीठ में छुरा घोपा कर उनको प्रधानमंत्री के पद से रवाना करवा दिया। मध्यावधि चुनाव के बाद कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई और इंदिरा गांधी जो चाहती थीं उसमें सफल भी हुईं।

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संसद में पीएम मोदी के भाषण की लोग ऐसे प्रतीक्षा कर रहे थे, जैसे कभी रामायण-महाभारत के लिए होती थी

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