The Guruji Effect: एम एस गोलवलकर वह व्यक्ति जिनके कारण RSS अपने वर्तमान स्वरूप में विद्यमान है

विस्तार से जानिए इनके योगदान के बारे में

एम एस गोलवलकर

Source- Jansatta

किसी वस्तु या संस्थान का प्रारंभ करना एक बात है परंतु उसे आगे बढ़ाना और उसकी सशक्त नींव स्थापित करना बिल्कुल ही अलग। आज RSS जैसी भी हो, आपके जो भी विचार हों, परंतु आप इस बात को बिल्कुल भी अनदेखा नहीं कर सकते कि यह संस्थान हमारे इतिहास का एक महत्वपूर्ण अंग है। परंतु कौन थे वे लोग, जिन्होंने इस संस्था को इसका मूर्त रूप दिया? इस लेख में हम जानेंगे RSS के “गुरुजी” यानी एम एस गोलवलकर के बारे में जो स्वतंत्र भारत में RSS के प्रथम सरसंघचालक थे एवं जिनके कारण आज RSS अपने वर्तमान स्वरूप में विद्यमान है। तो अविलंब आरंभ करते हैं।

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कौन थे एम एस गोलवलकर? 

किसी आम नागरिक के मन में RSS की क्या छवि होगी? वह किस दृष्टिकोण से इसे देखेगा? उसके मन में RSS एक ऐसा संगठन होगा जो सनातन संस्कृति को प्राथमिकता देता है और राष्ट्रवाद को आक्रामक रूप से बढ़ावा देता है। अब आपके और मेरे इस मत और विचार भिन्न हो सकते हैं, परंतु राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मूल आधार ही यही है कि भारत और भारत की मूल संस्कृति सबसे सर्वोपरि है। इसी विचारधारा को सर्वप्रथम बढ़ावा दिया “गुरुजी” यानी एम एस गोलवलकर ने।

परंतु एम एस गोलवलकर थे कौन? माधवराव सदाशिव गोलवलकर यानी एम एस गोलवलकर का जन्म 19 फ़रवरी 1906 को महाराष्ट्र के रामटेक में हुआ था। इनके पिता सदाशिव राव प्रारंभ में डाक-तार विभाग में कार्यरत थे परन्तु बाद में उनकी नियुक्ति शिक्षा विभाग में 1908 में अध्यापक पद पर हुई।

घर में शास्त्र और नीति का ऐसा वातावरण था कि माधवराव प्रारंभ से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। एम एस गोलवलकर की प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा में उनके पिताजी का बहुत बड़ा हाथ था। 1919 में उन्होंने ‘हाई स्कूल की प्रवेश परीक्षा’ में उत्कृष्ट प्रदर्शन के बलबूते छात्रवृत्ति प्राप्त की। 1924 में इन्होंने नागपुर के ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित ‘हिस्लाप कॉलेज’ से विज्ञान विषय में इण्टरमीडिएट की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। अंग्रेजी विषय में उन्हें प्रथम पारितोषिक मिला। इसके अतिरिक्त व्यायाम का भी उन्हें शौक था। मलखम्ब के करतब, पकड़ एवं कूद आदि में वे काफी निपुण थे। विद्यार्थी जीवन में ही गोलवलकर ने बांसुरी एवं सितार वादन में भी प्रवीणता प्राप्त की थी।

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RSS को अपना सबकुछ समर्पित कर दिया

ऐसे में इतने बहुमुखी प्रतिभा का RSS में आगमन कैसे हुआ? जब 1925 में RSS की स्थापना हुई, तो गोलवलकर उन लोगों में से एक थे जिन्हें इसके सम्मेलनों में भाग लेने के बाद भी कोई विशेष रुचि नहीं उत्पन्न हुई। आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के द्वारा एम एस गोलवलकर संघ के सम्पर्क में आये और शीघ्र ही अपनी स्नातक की पढ़ाई पूर्ण कर वे नागपुर आ गए। “डॉ हेडगेवार” के सानिध्य में उन्होंने एक अत्यन्त प्रेरणादायक राष्ट्र समर्पित व्यक्तित्व को देखा। किसी आप्त व्यक्ति के द्वारा इस विषय पर पूछने पर उन्होंने कहा- “मेरा रुझान राष्ट्र संगठन के कार्य की ओर प्रारम्भ से है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक परिणामकारिता से मैं कर सकूंगा, ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए मैंने संघ-कार्य में ही स्वयं को समर्पित कर दिया। मुझे लगता है स्वामी विवेकानन्द के तत्वज्ञान और कार्यपद्धति से मेरा यह आचरण सर्वथा सुसंगत है।”

1938 के पश्चात संघ कार्य को ही उन्होंने अपना जीवन कार्य मान लिया। डॉ हेडगेवार के साथ निरन्तर रहते हुए अपना सारा ध्यान संघ कार्य पर ही केंद्रित किया। जब डॉ हेडगेवार का 1940 में असामयिक निधन हुआ, तो एम एस गोलवलकर ने कार्यभार संभाला और उन्होंने आरएसएस को उसका मूर्त स्वरूप देने में अपना तन मन धन समर्पित कर दिया।

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“गुरुजी” की उपाधि कैसे मिली?

कहते हैं कि एम एस गोलवलकर के अध्यापन का मूल विषय यद्यपि प्राणि-विज्ञान था, परंतु विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी प्रतिभा पहचान कर उन्हें बी.ए. की कक्षा के छात्रों को अंग्रेजी और राजनीति शास्त्र भी पढ़ाने का अवसर दिया। अध्यापक के नाते माधव राव अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में इतने अधिक अत्यन्त लोकप्रिय हो गये कि उनके छात्र उनको गुरुजी के नाम से सम्बोधित करने लगे। इसी नाम से वे आगे चलकर जीवन भर जाने गये। यदि उन्हें पुस्तकालय में पुस्तकें नहीं मिलती थीं, तो वे उन्हें खरीदकर और पढ़कर जिज्ञासी छात्रों एवं मित्रों की सहायता करते रहते थे। उनके वेतन का बहुतांश अपने होनहार छात्र-मित्रों की फीस भर देने अथवा उनकी पुस्तकें खरीदकर देने में ही व्यय हो जाया करता था।

तो फिर RSS को भारत विरोधी क्यों कहा जाने लगा? असल में एम एस गोलवलकर जी अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की भांति कम्युनिस्ट प्रेमी नहीं थे। उन्हें पता था कि कांग्रेस एवं कम्युनिस्टों का गठजोड़ आगे जाकर राष्ट्रनिर्माण में कैसे बाधक बन सकता था। इसलिए वे आरएसएस को सक्रिय राजनीति से दूर रखते थे ताकि उन्हें कांग्रेस की एक शाखा न समझा जाए। स्वयंसेवकों द्वारा व्यक्तिगत आंदोलन पर संघ की कोई रोक नहीं थी।

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RSS ने कई चुनौतियों का सामना किया

परंतु संघ को इस बीच कई चुनौतियों से गुज़रना पड़ा। 1948 में जब मोहनदास करमचंद गांधी को नाथूराम गोडसे ने गोली मारी, तो आरएसएस को बिना जांच पड़ताल अविलंब दोषी ठहराया गया और उस पर प्रतिबंध लगा दिया। कई स्वयंसेवकों को अकारण हिरासत में लिया गया, जिसमें गुरूजी भी सम्मिलित हुए। जेल में रहते हुए उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं का विस्तृत व्यक्तव्य भेजा जिसमें सरकार को मुंहतोड़ जवाब दिया गया था। आह्वान किया गया कि संघ पर आरोप सिद्ध करों या प्रतिबन्ध हटाओं।

परंतु धीरे धीरे आरएसएस का एक और रूप भी लोगों के समक्ष उभरने लगा। जब 1946 में मोहम्मद अली जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन डे की घोषणा की, तो पूर्वी भारत, विशेषकर अविभाजित बंगाल में त्राहिमाम मच गया। न गांधी और न नेहरू कट्टरपंथियों को नियंत्रण में लाने में सफल हुए। इसी बीच भारत का विभाजन तय हुआ, जिसे आरएसएस चाहकर भी नहीं रोक पाई।

इस कठिन समय में स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान वाले भाग से हिंदुओं को सुरक्षित भारत भेजना शुरू किया। संघ का आदेश था कि जब तक आखिरी हिन्दू सुरक्षित न आ जाए तब तक डटे रहना है। इन भीषण दिनों में स्वयंसेवकों का अतुलनीय पराक्रम, रणकुशलता, त्याग और बलिदान की गाथा भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से लिखने लायक है। पंजाब में 80 के दशक में खालिस्तानियों ने इसीलिए RSS को निशाना बनाया क्योंकि वे उनकी कुत्सित विचारधारा के विपरीत हिन्दू-सिख एकता में विश्वास रखते थे, जिसे अपनी आंखों से अनेकों लोगों ने 1947 में देखा भी था।

चाहे कश्मीर हो या हैदराबाद “गुरुजी” ने विपरीत परिस्थितियों में भी समूचे भारत की यात्रा की और सभी को एक होने का आह्वान दिया। यही नहीं, जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया, तो “गुरुजी” गोलवलकर के एक आह्वान पर स्वयंसेवक युद्ध प्रयत्नों में जनता का समर्थन जुटाने तथा उनका मनोबल दृढ करने में जुट गए। यदि ऐसा न होता और आरएसएस का ध्यान राष्ट्रीयता पर न होता तो 1948 में प्रतिबंध के केवल एक वर्ष बाद 1949 में उन पर से प्रतिबंध कैसे हटा? इसके अतिरिक्त यदि आरएसएस वास्तव में भारत विरोधी होती, तो 1963 में गणतंत्र दिवस के पथ संचलन में संघ के स्वयंसेवकों को भाग लेने हेतु आमंत्रण क्यों भिजवाया गया, जो पीएम नेहरू की स्वीकृति के बिना असंभव नहीं था? इसका स्पष्ट उत्तर है- एम एस गोलवलकर, जिनके नेतृत्व में RSS अपने नाम के अनुरूप सिद्ध हुआ।

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