काफी समय पूर्व, जब औरंगज़ेब के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर कोने कोने से विद्रोह प्रारंभ हुआ था, तो एक व्यक्ति ने इस अवसर का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने न केवल इस युद्ध में भाग लिया, अपितु संकल्प भी लिया, “हे हिंदवी स्वराज्य श्री हरीची इच्छा!”, अर्थात भारतवर्ष की स्वतंत्रता ही ईश्वर की श्रेष्ठ इच्छा है। परंतु ये संकल्प लेते हुए छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि उनके वंशजों में एक ऐसा अंतरयुद्ध होगा, जो महाभारत समान होगा, और जिसमें केवल भारतवर्ष का स्वाभिमान पराजित होगा। इस लेख में पढिये कथा रघुनाथ राव और माधवराव के बीच उस अंतरयुद्ध की, जिसे रोका जा सकता था, परंतु वही मराठा साम्राज्य को लील गया। तो अविलंब आरंभ करते हैं।
कभी मराठा साम्राज्य का गौरव थे रघुनाथ राव
आज मराठवाड़ा के इतिहास में रघुनाथ राव को कोई भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता। सब उन्हे उस क्षण के लिए जानते हैं, जब सत्ता पाने की लालसा में उन्होंने अपने ही भतीजे नारायणराव की हत्या करा दी।
परंतु क्या रघुनाथ राव प्रारंभ से इतने कुटिल थे? शायद नहीं, क्योंकि जब बाजीराव की 1740 में असामयिक मृत्यु हुई, तो मराठा साम्राज्य के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न था : अब उनकी विरासत को कौन बढ़ाएगा? स्वाभाविक तौर पर उनके ज्येष्ठ पुत्र, बालाजी बाजीराव को चुना गया, और जो काम बाजीराव के लिए उनके अनुज चिमाजीराव करते थे, वही बालाजी बाजीराव यानि नानासाहेब पेशवा के लिए उनके अनुज रघुनाथ राव करने लगे।
परंतु रघुनाथ राव कूटनीति और युद्धनीति में अपने पिता और चाचा, दोनों से ही दस कदम आगे थे। उन्होंने अखंड भारत को पुनर्जीवित करने की ओर सशक्त कदम बढ़ाए, और बंगाल में उनके नेतृत्व में सेनाओं ने वहाँ के इस्लामिक आक्रान्ताओं में त्राहिमाम मचा दिया था।
केवल इतना ही नहीं, जिन समुदायों से बात करना भी लगभग असंभव था, जैसे सिख और जाट, उनके साथ इन्होंने मित्रता का हाथ बढ़ाया। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब लाहौर पर अफ़गान आक्रान्ताओं ने नियंत्रण जमाया था, तो उसे छुड़ाने हेतु एक संयुक्त सेना ने धावा बोला, जिसमें सिख और मराठा दोनों सम्मिलित थे। यूं ही नहीं “कटक से अटक” तक रघुनाथ राव ने अखंड भारत को पुनः स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
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एक निर्णय ने सब नष्ट कर दिया ….
परंतु फिर इतना कुशल और बलशाली योद्धा अचानक से मराठा साम्राज्य का शत्रु कैसे बन गया? कारण थे नानासाहेब पेशवा। ये वो समय था, जब दिल्ली पर रुहिल्ला समुदाय ने आक्रमण किया था, और इसी प्रकरण में नानासहेब पेशवा ने मुगलों और रुहिल्लाओं की संयुक्त फौज को इतना कूटा कि उनके पास आत्मसमर्पण करने के सिवा कोई विकल्प न था। अब मराठा साम्राज्य ने लगभग सम्पूर्ण भारतवर्ष को अपना बना लिया था, और अगला निशाना थे अफ़गान।
परंतु ये लड़ाई इतनी सरल नहीं थी। रघुनाथ राव के जाते ही रुहिल्ला आक्रान्ताओं ने पुनः अपना विश्वासघाती रूप दिखाया, और 1760 में दत्ताजी शिंदे की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी। उन्होंने अफ़गान शासक अहमद शाह अबदाली को भारत पर आक्रमण करने का निमंत्रण दिया।
जैसे ही मराठाओं को इसकी सूचना लगी, उन्होंने अविलंब योजना बनानी प्रारंभ कर दी। रघुनाथ राव अपने अनुभव से जानते थे कि अबदाली को पराजित करने में काफी व्यवस्था करनी पड़ेगी, क्योंकि वह कोई मामूली आक्रांता नहीं।
परंतु पेशवा के तत्कालीन दीवान, सदाशिव राव “भाऊ” ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इतना ही नहीं, सदाशिवराव “भाऊ” को मराठा सेनाध्यक्ष भी बना दिया गया, जबकि उन्हे उत्तर भारत के भूगोल और राजनीतिक समीकरणों का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं था। नानासाहेब पेशवा की इसी नासमझी के कारण मराठा सेनाओं के पास अवसर होते हुए भी वह अपनी क्षमताओं का सम्पूर्ण प्रदर्शन नहीं कर पाए, और पानीपत के तीसरे युद्ध में उन्हे पराजय का सामना करना पड़ा।
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वहम की कोई दवा नहीं….
निस्संदेह रघुनाथ राव के साथ अन्याय हुआ था, परंतु ये अन्याय कब कुंठा में परिवर्तित हुई, किसी को पता नहीं चला। रघुनाथ राव ने सम्पूर्ण मराठा साम्राज्य को अपना शत्रु मान लिया, और धीरे धीरे उसे हथियाने के षड्यन्त्र रचने लगे। लेकिन ये बात एक व्यक्ति को बहुत कष्ट दे रही थी, और वे थे माधवराव भट्ट, उनके अपने भतीजे।
माधवराव न तो बहुत प्रभावशाली थे, और न ही उन्हे शासन का बहुत अधिक ज्ञान था। वे तो सत्ता के लिए कोई लालसा भी नहीं रखते थे। परंतु पानीपत के तीसरे युद्ध ने सब कुछ बदलकर रख दिया।
सदाशिव राव भाऊ के साथ उनके अपने ज्येष्ठ भ्राता, विश्वासराव भी वीरगति को प्राप्त हुए, और मात्र 16 वर्ष की आयु में पेशवा माधवराव को मराठा साम्राज्य का शासन अपने हाथ में लेना पड़ा।
माधवराव अपने पूर्वज पेशवा बाजीराव बल्लाड़ की भांति परिपक्व एवं कुशल नेतृत्व से परिपूर्ण थे। वे भली-भांति परिचित थे कि योग्य नेतृत्व ही हिंदवी स्वराज्य को उसका खोया हुआ सम्मान पुनः दिला सकता है।
उनके नेतृत्व में सर्वप्रथम ये अधिनियम स्थापित किया गया कि जो भी अपने कार्यों में भ्रष्ट सिद्ध हुआ या जिसने भी राष्ट्रद्रोह किया, उसे सार्वजनिक दंड दिया जाएगा, चाहे वह कितना भी प्रभावशाली और शक्तिशाली क्यों न हो। इसका उदाहरण उन्होंने अपने ही परिवार के माध्यम से दिया जब उन्होंने आवश्यकता पड़ने पर अपने ही काका रघुनाथ राव को कारावास में डालने का निर्णय भी किया।
अब पेशवा माधवराव के जीते जी रघुनाथ राव मराठा साम्राज्य का बाल भी बांका न कर पाए। इसमें महादजी शिंदे एवं नाना फड़नवीस जैसे सलाहकारों ने उनका भरपूर साथ दिया। परंतु पेशवा माधवराव की असामयिक मृत्यु ने रघुनाथ राव को एक नई उम्मीद दी, और नारायणराव का उदार स्वभाव उन्ही को लील बैठा।
1773 में पेशवा पद पाने हेतु रघुनाथ राव ने षड्यन्त्र रचा, और पुणे में पेशवा के आधिकारिक निवास, शनिवार वाड़ा में नारायणराव की बर्बरतापूर्ण हत्या की। परंतु वह सत्ता का लाभ नहीं उठा पाए, क्यों जब महादजी शिंदे को यह बात पता चली, तो उन्होंने तत्काल प्रभाव से पुणे को अपने नियंत्रण में लेने का कदम उठाया।
रघुनाथ राव ने अंग्रेजों से सहायता मांगी, जिसके कारण प्रथम एंग्लो मराठा युद्ध हुआ, परंतु न केवल मराठा विजयी हुए, अपितु रघुनाथ राव को आजीवन कारावास का दंड मिला, और 1783 में अपना दंड भोगते भोगते उनकी मृत्यु हो गई। कहते हैं कि जिस स्थान पर उनकी मृत्यु, वहाँ आज भी उनकी आत्मा वास करती है, ठीक वैसे ही, जैसे शनिवार वाड़ा में नारायणराव की आत्मा भटकती है।
पेशवा माधवराव भट्ट के नेतृत्व में नाना फड़नवीस जैसे कूटनीतिज्ञ, राम शास्त्री प्रभुने जैसे न्यायाधीश एवं महड़जी शिंदे जैसे सेनापति को खूब शक्तियां दी गई, जिनके कारण कुछ ही वर्षों में माराठाओं ने फिर से अपना परचम लहराया। जितनी भूमि मराठा साम्राज्य ने खोई थी, पेशवा माधवराव भट्ट के शासनकाल में उन्होंने उससे ज्यादा पुन: प्राप्त कर ली। जब तक वे जीवित थे, तब तक ब्रिटिश साम्राज्य बंगाल से आगे अपने फन नहीं फैला पाया।
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अब कल्पना कीजिए, यदि अपने ही परिवार के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने के स्थान पर रघुनाथ राव ने चाणक्य की भांति युवा माधवराव को अपने विशाल अनुभव का ज्ञान, एवं युद्धनीति की दीक्षा दी होती, तो? शायद न अंग्रेज़ भारत में अपने पाँव जमा होता, और समय से पूर्व भारत एक जनतान्त्रिक देश भी होता, अखंड, और हर रूप में समृद्ध।
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