चिमाजी राव अप्पा : जिनके साथ संजय लीला भंसाली ने किया घोर अन्याय

भारतवर्ष को इनके बारे में जानना चाहिए....

सिनेमा से आप शत प्रतिशत सटीकता यानि एक्युरेसी की आशा नहीं कर सकते। परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आप इतिहास के नाम पर कुछ भी दिखा दें। संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित “बाजीराव मस्तानी” के साथ यही समस्या थी। उन्होंने मराठा साम्राज्य का गौरव और वैभव दोनों दिखाया, परंतु पेशवा बाजीराव और उनके परिवार को व्यक्तित्व को ढंग से चित्रित नहीं किया। इतना ही नहीं, उन्होंने कुछ किरदारों को फर्जी में विलेन बना दिया, जिनका मूल व्यक्तित्व ही किरदार के ठीक विपरीत था।

इस लेख में पढिये चिमाजी राव अप्पा, कैसे “बाजीराव मस्तानी” सिनेमा में चित्रित के ठीक विपरीत वे एक प्रतिबद्ध योद्धा थे, जिन्होंने भारतवर्ष के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया।

बाजीराव के लिए “हनुमान” समान थे चिमाजी

बालाजी विश्वनाथ भट्ट के घर 1707 में पुनः किलकारियाँ गूंजी, जब चिमाजी राव का जन्म हुआ। उनके ज्येष्ठ भ्राता कोई और नहीं, हिंदवी स्वराज्य का विस्तार करने वाले, भारत के सबसे कुशल योद्धाओं में से एक, बाजीराव बल्लाड़ भट्ट थे, जिन्होंने पेशवा बनने के बाद केवल एक दशक में ही आधे से अधिक भारत पर नियंत्रण स्थापित कर लिया था, और मुगल साम्राज्य को केवल दिल्ली के आसपास ही सीमित कर दिया।

बाजीराव और चिमाजी एक ही सिक्के के दो पहलू समान थे। जैसे श्रीराम के लिए हनुमान थे, वैसे ही बाजीराव के लिए चिमाजी थे, जो युद्धनीति से लेकर कूटनीति में उन्हे सुझाव देते थे और युद्ध की रूपरेखा तय करते थे। 1720 में जब बालाजी विश्वनाथ का निधन हुआ, तो बाजीराव पेशवा के रूप में नियुक्त हुए, और चिमाजी अनाधिकारिक रूप से उनके रक्षा सलाहकार बन गए।

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इनके नाम से ही मच जाता पुर्तगालियों में त्राहिमाम

परंतु चिमाजी राव उन लोगों में से नहीं थे, जो बैठे बैठे लोगों को आदेश देते थे। बाजीराव की भांति उनमें भी नेतृत्व कूटकूटकर भरा हुआ था, और जब उन्हें पता चला कि पुर्तगाली मराठा साम्राज्य पे आक्रमण करने की योजना बना रहे हैं, और गोवा में असंख्य हिंदुओं को असीमित यातना दे रहे हैं, तो उन्होंने पुर्तगालियों को उनकी औकात बताने का संकल्प लिया।

जब भारत में अंग्रेज, फ्रांस और डच लोग नावों द्वारा धीरे धीरे आ रहे थे, तब पुर्तगाली सेना भी भारत के गुजरात में पश्चिमी तट पर अपनी विशाल सेना के साथ थी और उससे युद्ध करना कठिन था। साथ ही वसई किले के कारण उनकी शक्ति और बढ़ गई थी। फिर भी चिमाजी राव “अप्पा” ने अपनी सेना के साथ पुर्तगाली सेना पर हमला कर उन लोगों को हटा दिया और पश्चिमी तट को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराया।

सन 1739 में जब पेशवा बाजीराव ने चिमाजी अप्पा को पुर्तगालियों को बेसीन [Bassein] से हटाने का आदेश दिया, तो प्रारंभ में चिमाजी अप्पा ने पुर्तगालियों को कई पत्र लिखे  परंतु उत्तर में उनका उपहास उड़ाया गया। ऐसे में चिमाजी राव ने आंग्रे परिवार की सहायता ली, जो अपने नौसैनिक बल के लिए प्रख्यात थे, और जिनके प्रमुख कोई और नहीं, मराठा योद्धा एवं नौसेना के “सारखेल” कान्होजी आंग्रे थे। इन्ही के पुत्र शंभूजी आंग्रे और अन्य मराठा सरदारों को एकत्रित कर बेसिन के किले पर घेरा डाल दिया अंततः पुर्तगालियों को 1739 में अपने आप को आत्मसमर्पण करना पड़ा और बेसिन मराठो को दे दिया गया।

पुर्तगलियों के अत्याचारों से मराठा अनभिज्ञ नहीं थे, और इसीलिए चिमाजी ने इन्हे ऐसा सबक सिखाया, जिससे आज भी कई भारतीय अपरिचित है। जब पुर्तगाली पराजित हुए, तो न केवल उनकी संपत्तियाँ ज़ब्त हुई, अपितु उनके गिरजाघरों यानि चर्चों में निर्मित घंटों को निकलवाकर चिमाजी ने कई मंदिरों में उन्हे स्थापित किया।

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नहीं हुआ इनके साथ सम्पूर्ण न्याय

इसके अतिरिक्त इसके अलावा चिमाजी अप्पा ने 1736 में जंजीरा के सिद्दियो को भी पराजित किया और एक और सफल अभियान में अपनी भूमिका अदा की। सिद्दी समुदाय द्वारा प्रशासित ये दुर्ग चारों ओर से जल से घिरा होता था, और इसकी निर्माण शैली ऐसी थी कि इसपर आक्रमण करने की सोचने वाला भी सिहर जाता, क्योंकि इसके द्वार से लेकर इसके जलस्त्रोत तक आक्रमण करने वालों के लिए मृत्यु का निमंत्रण देने समान थे।

वो अलग बात थी कि एक संधि के पश्चात इस दुर्ग पर पुनः सिद्दी समुदाय का अधिकार हो गया। इसी बीच 1740 में बाजीराव पेशवा के असामयिक निधन ने मराठा साम्राज्य को झकझोर कर रख दिया, और कुछ ही माह बाद दिसंबर में मात्र 32 से 33 वर्ष की आयु में चिमाजी राव भी परलोक सिधार गए।

चिमाजी वो व्यक्ति थे, जिन्होंने भारतीय संस्कृति के पुनःस्थापना और मराठा साम्राज्य के विस्तार में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जो अपने भ्राता के साथ अधिकतम युद्धभूमि में ही समय बिताए हों, उनके पास छल प्रपंच के लिए कहाँ से समय बचेगा? परंतु “बाजीराव मस्तानी” में जिस तरह उन्हे चित्रित किया गया, उसके लिए फिल्म उद्योग और दर्शक क्षमा करें, परंतु इतिहास संजय लीला भंसाली को कभी क्षमा नहीं करेगा।

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