Zwigato movie review: किसी विज्ञापन में एक बार सुने थे, जाँचो, परखो, तभी अपनाओ। इसका अर्थ स्पष्ट था : दूसरे के कहने में न आयें, थोड़ी अक्ल लगाएँ। पर शायद ये बात हम Zwigato के लिए टिकट बुक करते हुए नहीं समझे थे। अब फिल्म देखने के बाद यह एड भी स्मरण आता है, और इस एड के पीछे का अर्थ भी।
इस review लेख में पढिये क्यों Zwigato movie अपने आप में शोध का विषय है, कि कैसे फिल्म न बनाएँ।
Zwigato movie review: कथा क्या है
नंदिता दास द्वारा निर्देशित Zwigato की कथा एक मध्यम वर्ग के परिवार के आसपास घूमती है। इसमें केंद्र में है मानस [कपिल शर्मा], जो भुवनेश्वर में एक फैक्ट्री में कार्यरत है। अचानक से कोविड समेत कई समस्याएँ फैक्ट्री को घेर लेती है, और परिस्थितियाँ ऐसी हो जाती है कि मानस को थक हारकर एक फूड डेलीवरी एप पर डिलीवरी एजेंट बनना होता है।
इसी बीच मानस को प्रेरित करने के लिए उसकी पत्नी प्रतिमा छोटे मोटे काम करने लगती है। कैसे यह दंपति अपनी समस्याओं का सामना करते हैं, और क्या वे अपने प्रयासों में सफल हो पाते हैं या नहीं, Zwigato इसी बारे में है।
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जिसका काम उसी को साजे
अब कहने को इस फिल्म में सब कुछ है : एक लीड कैरैक्टर जो स्ट्रगल कर रहा है, गरीबी और कुछ कर दिखाने की आशा। परंतु आपको पता है कि इस फिल्म में एक विलेन भी है? न जी न, ये कोई लालची साहूकार या कोई कपटी पुजारी नहीं, इस फिल्म का विलेन इस फिल्म की स्टोरी ही है।
ये कैसे संभव है? Zwigato के अंधकूप में अगर आप टॉर्च लेकर भी कथा को ढूँढने निकलेंगे, तो उसका अंश भी आपको ढूँढे से नहीं मिलेगा। कल्पना कीजिए कि एक फिल्म रूपी कड़ाही में आपको डिश तैयार करनी है। आपने मूल सामग्री यानि स्ट्रगलिङ्ग एक्टर का बेसन तैयार कर लिया।
आपने मार्मिक BGM को बारीक कटे टुकड़ों में काटकर इस मिश्रण में डाल दिया। परंतु इतने से भी मन न भरने पर गरीबी का छौंका लगा दो। न न, वास्तविक गरीबी नहीं, इंस्टाग्राम वाली।
अब इस मिश्रण में स्वाद अनुसार नहीं, आधा डब्बा एजेंडा उड़ेल दो, जिससे पूरे पकवान में एजेंडा ही एजेंडा दिखे। इस मिश्रण के पकौड़े बनाकर जनता को परोसो। लीजिए, आपका Zwigato तैयार, और हाँ, बिहारी के नाम पर जोर लगाकर बिहारी बोलने वाला पंजाबी एक्टर डालना न भूलें।
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Zwigato movie review: एजेंडा ऊंचा रहे हमारा
लोग अपनी रचना में प्रयास करते हैं कि वे कुछ न कुछ नया दिखाएँ। परंतु नंदिता दास रिवर्स गियर में अपना करियर बढ़ाती है। पात्र भले बदल जाए, परंतु एक संदेश स्पष्ट रहेगा : हाय गरीबी, हाय पूंजीवाद, हाय हाय हिन्दुत्व!
देखिए, बदहाली में जूझता हुआ व्यक्ति और उसकी दिनचर्या दिखानी एक बात है, और उसकी आड़ में निरंतर लोगों को फर्जी ज्ञान देना दूसरी, और नंदिता दास बेशर्मी से ये काम करती है। इनकी कोई भी फिल्म उठाकर देख लीजिए, चाहे वह “फिराक” हो, “मंटो” हो, या फिर Zwigato, इनका एकमुश्त ध्येय है : एजेंडा ऊंचा रहे हमारा।
वो कैसे? जब फिल्म में आप डिलीवरी बॉय के संघर्षों पर कम, और पूंजीवाद के विरुद्ध नारेबाज़ी पर ध्यान दे, तो फिर आप कैसे आशा कर सकते हैं कि इस फिल्म में व्यावहारिकता भी कोई वस्तु होंगी।
जब तक “हिन्दू मुस्लिम” का नारा न लगा दिया जाए, इनका मन ही नहीं भरता।
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अब हम लोगों ने सुना था कि गरीबी जात पात नहीं देखती, परंतु नंदिता दास जैसों की माने तो ऐसा भी होता है और ये आपको विश्वास दिला देंगे कि ऐसा ही होता है।
ऐसे में Zwigato movie आपके लिए फिल्म कम, पौने दो घंटे का एक उबाऊ लेक्चर अधिक है, जिससे अच्छा आप एक बार को पुनः “तू झूठी मैं मक्कार” या “Mrs Chatterjee vs Norway” ही देख लें।
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