हाल ही में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में बुधवार (9 अगस्त 2023) को चौथे दिन जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 को चुनौती देने वाली 23 याचिकाओं पर सुनवाई हुई। इस दौरान 4 घंटे 40 मिनट तक चली कार्रवाई के दौरान कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के एडवोकेट्स से कई अहम सवाल किए।
कोर्ट ने एक याचिकाकर्ता के एडवोकेट से कहा कि साल 1947 में जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ था, तभी से पूरे देश में एक ही संविधान लागू है। इस पर याचिकाकर्ता की तरफ से पेश सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने दलील दी कि इसे जम्मू-कश्मीर के लोगों की इच्छा के बगैर खत्म नहीं किया जा सकता।
इस पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) चंद्रचूड़ ने कहा, “हमें ध्यान देना चाहिए कि भारतीय संविधान जम्मू और कश्मीर की संविधान सभा की बात करता है, लेकिन यह जम्मू और कश्मीर के संविधान का बिल्कुल भी जिक्र नहीं करता है।”
दरअसल, इस मामले में याचिकाकर्ता एम इकबाल खान का प्रतिनिधित्व कर रहे सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने कोर्ट में दलील दी कि भारत में विलय के वक्त जम्मू-कश्मीर किसी अन्य राज्य जैसा नहीं था। उसका खुद का संविधान था। देश के संविधान में विधानसभा और संविधान सभा दोनों को मान्यता प्राप्त है।
इसपे चंद्रचूड़ की त्योरियां तन गई. उन्होंने अपने ऑब्जरवेशन में कहा, “आर्टिकल 370 खुद कहता है कि इसे खत्म किया जा सकता है”। इस पर वरिष्ठ अधिवक्ता सिब्बल ने जवाब दिया था कि ‘370 में आप बदलाव नहीं कर सकते, इसे हटाना तो भूल ही जाइए’
परन्तु इस हताशा का कारण कुछ और ही है. असल में सुप्रीम कोर्ट ने कहीं न कहीं इस वक्तव्य को भी स्वीकार कि देश में “दो विधान, दो प्रधान और दो निशान” नहीं चलेंगे! यही बात डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी दोहराते थे, और इसके लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देने से पूर्व भी एक बार नहीं सोचा!
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वामपंथी मण्डली अनुच्छेद 370 के निरस्तीकरण को पलटने की अपनी अटूट खोज में अग्रसर थे। इस उद्देश्य के प्रति उनके समर्पण ने उन्हें ऐतिहासिक निर्णय को रद्द करने के लिए हर कल्पनीय रणनीति अपनाने के लिए प्रेरित किया। अपने दृढ़ विश्वास से प्रेरित होकर, उन्हें लगा कि सुप्रीम कोर्ट भी उनके साथ होगी!
परन्तु डी वाई चंद्रचूड़ तो अलग ही मिटटी के निकले. वामपंथियों के तर्कों का उपयोग उन्ही को चित्त करते हुए उन्होंने भारत की अखंडता की भावना को अक्षुण्ण रखने का प्रयास किया. तर्कों का मुकाबला करने के लिए अपनी रणनीति अपनाई। यह उम्मीद कि सुप्रीम कोर्ट उनके मुद्दे को मजबूत करेगा, कानूनी व्याख्या की चट्टानों के सामने धराशायी हो गई, क्योंकि सीजेआई की वाक्पटु अभिव्यक्ति ने उनकी उम्मीदों को ध्वस्त कर दिया।
निहितार्थों को गहराई से समझते हुए, सीजेआई ने एक विचारोत्तेजक प्रश्न उठाया: “मान लीजिए कि अनुच्छेद 356 प्रभावी है, और यदि अध्यादेश की आवश्यकता है, तो क्या राष्ट्रपति इसे जारी करने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकते हैं?” इस प्रश्न ने व्यक्तिगत राज्य संविधानों की सीमाओं को पार करते हुए, भारतीय संविधान में निहित स्पष्ट अधिकार को रेखांकित किया।
सर्वोच्च न्यायालय की घोषणा राष्ट्र की एकीकृत पहचान के प्रति प्रतिबद्धता के एक शानदार प्रमाण के रूप में कार्य करती है। कानूनी रास्ते से इतिहास की दिशा बदलने की चाह रखने वालों की उम्मीदों को एक अटूट कानूनी रुख का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप एक ऐसा परिणाम सामने आया जो भारत की सामूहिक अखंडता के सर्वोपरि महत्व को रेखांकित करता है। परन्तु वामपंथियों के साहस को मानना पड़ेगा, हर बार मुंह की खाते हैं, फिर भी मुंह उठाके चले आते हैं!
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