ऐसे तो खेलों में भारत बहुत अधिक उत्कृष्ट नहीं रहा है। 1990 के दशक के प्रारम्भ तक क्रिकेट और कुछ हद तक हॉकी को छोड़कर भारत को कोई गंभीरता से लेता भी नहीं था । लेकिन 1998 में बैंकॉक में एशियाई खेलों में कुछ असाधारण घटित हुआ। इस संस्करण में भाग लेने वाले कुछ खिलाडियों ने कुछ ऐसा करने की ठानी, जिसके बाद भारतीय खेल पहले जैसे बदहाल नहीं रही। इन्हे अगर ‘ट्रेंडसेटर एशियाड’ कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
1998 के एशियाई खेल इस बात का ज्वलंत उदाहरण थे कि वे उत्कृष्टता के लिए कितने तत्पर थे। इनमें दो कथाएं भुलाये नहीं भूली जाती। एक थे नौसेना से धाकड़ मुक्केबाज़ एन डिंको सिंह, और दूसरे थे धनराज पिल्लई, जो लाख बाधाओं के बाद भी भारतीय हॉकी को उसका खोया गौरव दिलाने के लिए एड़ी छोटी का ज़ोर लगाने को तत्पर थे।
डिंग्को सिंह का भारतीय दल में प्रवेश एकदम ही फ़िल्मी था। कहते हैं कि दल से हटाए जाने से वे इतने दुखी हुए कि वे रात भर पिए, और न जाने फिर उन्होंने क्या किया की चयनकर्ताओं को अपना निर्णय बदलना पड़ा । हां, बिलकुल ठीक सुने आप। डिंको को अपनी प्रतिभा दिखाने का एक दूसरा अवसर मिला, और उन्होंने बिल्कुल भी निराश नहीं किया। 1982 के एशियाई खेलों के बाद डिंग्को सिंह मुक्केबाजी में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहले भारतीय बने। उनकी जीत पूरे देश के लिए गर्व का क्षण था, और इसलिए भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि इन्होने फाइनल तक पहुँचते पहुँचते कई दिग्गजों को ढेर किया था।
डिंको सिंह के स्वर्ण पदक ने पूर्वोत्तर के कई युवाओं को बॉक्सिंग अपनाने के लिए प्रेरित किया, जिनमें से एक थी प्रख्यात मुक्केबाज़ एमसी मैरी कॉम। निस्संदेह डिंको के प्रयासों को पूर्ण होने में वर्षों लगे, परन्तु बीजिंग ओलम्पिक 2008 तक उनके प्रयासों को उसका पुरस्कार मिला, जब विजेंदर सिंह के रूप में भारत को बॉक्सिंग में प्रथम ओलम्पिक पदक मिला।
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अब बात करते हैं फील्ड हॉकी की, एक ऐसा खेल जो कभी भारत का गौरव था लेकिन पिछले कुछ वर्षों में अपनी चमक खो चुका था। 1998 के एशियाई खेलों में भारतीय हॉकी टीम से उम्मीदें कम थीं। कई लोगों का मानना था कि वे लीग चरण से आगे भी नहीं बढ़ पाएंगे, स्वर्ण जीतना तो दूर की बात है।
हालाँकि, धनराज पिल्ले के नेतृत्व वाली टीम अलग ही मिटटी के बने थे। फ़ाइनल तक पहुंचने के रास्ते में उन्होंने लगभग हर उस टीम को हराया, जिसका सामना उन्हें करना पड़ा। फाइनल मैच में, वे अपने ग्रुप के सदस्य, दक्षिण कोरिया से पुनः भिड़े। दक्षिण कोरिया के शुरुआती बढ़त लेने के बावजूद, धनराज पिल्लै ने कोरियाई गोलपोस्ट में घुसकर स्कोर बराबर कर दिया। अंततः खेल पेनल्टी शूटआउट में गया, जहां भारत विजयी रहा और स्वर्ण पदक जीता।
दुर्भाग्य से, धनराज पिल्लै को उनके उपलब्धियों के लिए कभी भी पुरस्कृत नहीं किया गया, और बाद के टूर्नामेंटों में उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया। हालाँकि, उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया। 2004 में उनके रिटायरमेंट के एक दशक बाद, भारतीय हॉकी टीम ने इंचियोन एशियाई खेलों 2014 में एक बार फिर गौरव हासिल किया। उन्होंने चिर प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान को पेनल्टी शूटआउट में हराकर स्वर्ण पदक जीता। यह एक ऐसा क्षण था जिसने भारतीय हॉकी प्रशंसकों की आंखों में खुशी के आंसू ला दिए।
तब से टीम भारत की हॉकी टीम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने 2021 में टोक्यो ओलंपिक में पोडियम फिनिश हासिल करके 41 साल का लंबा इंतजार खत्म किया। यह उनकी कड़ी मेहनत, लचीलेपन और धनराज पिल्लै जैसे खिलाड़ियों द्वारा छोड़ी गई विरासत का प्रमाण था। भारतीय हॉकी टीम ने राख से उबरकर विश्व की सर्वश्रेष्ठ टीमों में अपना उचित स्थान पुनः प्राप्त कर लिया था।
बैंकॉक में 1998 के एशियाई खेल भारतीय खेलों के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ थे। यह एक ऐसा क्षण था जब डिंको सिंह और धनराज पिल्ले जैसे एथलीटों ने सभी बाधाओं को पार किया और देश को गौरव दिलाया। मुक्केबाजी में डिंग्को सिंह के स्वर्ण पदक ने मुक्केबाजों की एक नई पीढ़ी को प्रेरित किया, जबकि धनराज पिल्लै के नेतृत्व और दृढ़ संकल्प ने भारतीय हॉकी टीम की किस्मत को पुनर्जीवित किया।
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