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मुंगेर और मोदीनगर की राह पर चल पड़ा है शिवकाशी!

जाने किसकी नज़र लग गई!

Pratyush Madhav द्वारा Pratyush Madhav
26 September 2023
in मत
मुंगेर और मोदीनगर की राह पर चल पड़ा है शिवकाशी!
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कभी सोचा है कि मुंगेर, मोदीनगर और शिवकाशी में क्या समान बात है?  ये तीनों शहर अपने इतिहास में एक समान सूत्र साझा करते हैं, क्योंकि एक समय ये भारत के औद्योगिक केंद्र जो ठहरे। एक समय मुंगेर शस्त्र निर्माण के लिए प्रसिद्ध था, जबकि मोदीनगर कपड़ा मिलों के कारण समृद्ध था, और शिवकाशी ने पटाखों और माचिस की डिब्बियों के कारण अपना नाम बनाया।

परन्तु आज तो स्थिति कुछ और ही है! मुंगेर और मोदीनगर ने अपनी औद्योगिक चमक खो दी है और अब वे अपने पूर्व स्वरूप की छाया मात्र रह गए हैं। दुर्भाग्य से, शिवकाशी भी इसी राह पर चल पड़ा है। अब प्रश्न तो स्वाभाविक है: आखिर क्यों?

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इसका उत्तर उन व्यक्तियों के समूह के ठोस प्रयासों में निहित है जिन्हें अक्सर बुद्धिजीवियों और पर्यावरणविदों के रूप में जाना जाता है। ऐसा लगता है कि वे ऐसी किसी भी चीज़ का विरोध करते हैं जो खुशी लाती है या भारत की आर्थिक वृद्धि में योगदान देती है, शिवकाशी उनका नवीनतम शिकार है। तो सभी को सादर नमस्कार, और जुड़िये हमारे साथ शिवकाशी के सामने वर्तमान चुनौतियों का पता लगाने, एवं पर्यावरणीय चिंताओं और आर्थिक प्रगति के बीच टकराव की जांच करने।

एक “पटाखा केंद्र” से कहीं अधिक है शिवकाशी!

एक समय शिवकाशी तमिलनाडु के लिए वही था, जो जो उत्तर प्रदेश के लिए कानपुर का था, अर्थात एक संपन्न औद्योगिक केंद्र। शिवकाशी सिर्फ एक आर्थिक महाशक्ति नहीं थी; यह संस्कृति और इतिहास से समृद्ध शहर था, जिसमें न केवल उद्योग की विरासत बल्कि आध्यात्मिक महत्व भी था। हालाँकि बहुत से लोग नहीं जानते होंगे कि शिवकाशी में बद्रकाली अम्मन मंदिर जैसे कुछ पवित्र स्थान भी हैं, जो इसकी सांस्कृतिक संपदा को बढ़ाते हैं। इसके अलावा, अति लोकप्रिय  सुपरस्टार श्रीदेवी का जन्म शिवकाशी के मुख्य नगर  से थोड़ी दूर एक गाँव में हुआ था। अब ऐसी विविध विरासत कौन नहीं चाहेगा?

शिवकाशी की अर्थव्यवस्था के केंद्र में तीन महत्वपूर्ण उद्योग हैं: पटाखे, माचिस निर्माण और छपाई यानि प्रिंटिंग उद्योग। इसकी सीमाओं के भीतर, 520 पंजीकृत मुद्रण उद्योग, 53 माचिस कारखाने, 32 रासायनिक कारखाने, सात सोडा कारखाने, चार आटा मिलें, और दो चावल और तेल मिलें फली-फूलीं। यह शहर देश भर में पटाखा निर्माण के लिए केंद्रीय केंद्र के रूप में कार्य करता था।

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वर्ष 2020 में, शिवकाशी में लगभग 1070 पंजीकृत पटाखा निर्माण कंपनियों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 800,000 व्यक्तियों को रोजगार प्रदान किया। कुछ निजी उद्यमों का वार्षिक कारोबार ₹5 बिलियन (US$63 मिलियन) से भी अधिक होने का दावा किया गया।

2011 में, शिवकाशी में पटाखा, माचिस बनाने और प्रिंटिंग उद्योगों का संचयी अनुमानित कारोबार प्रभावशाली ₹ 20 बिलियन (US$250 मिलियन) था। आश्चर्यजनक रूप से, भारत में उत्पादित लगभग 70% पटाखे और माचिस शिवकाशी से आए थे। शहर की गर्म और शुष्क जलवायु ने इन उद्योगों के पनपने के लिए आदर्श परिस्थितियाँ तैयार कीं।

इसके अलावा, शिवकाशी ने डायरी उत्पादन के क्षेत्र में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने भारत में उत्पादित सभी डायरियों में 30% का योगदान दिया। प्रारंभ में, शहर में मुद्रण उद्योग मुख्य रूप से पटाखों के लिए लेबल बनाने पर केंद्रित था, लेकिन तब से यह काफी विकसित हुआ है, जिसमें एक गतिशील मुद्रण केंद्र के रूप में उभरने के लिए आधुनिक मशीनरी को शामिल किया गया है।

शिवकाशी सिर्फ एक औद्योगिक शहर से कहीं अधिक रहा है; यह समृद्ध विरासत वाला एक जीवंत, बहुआयामी समुदाय था, एक आर्थिक महाशक्ति था जिसने देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और एक ऐसा स्थान जहां संस्कृति, वाणिज्य और शिल्प कौशल पूर्ण सामंजस्य में थे।

कैसे चला शिवकाशी मुंगेर और मोदीनगर की राह पर?

तो फिर शिवकाशी की समृद्धि को आखिर किसकी कुदृष्टि लग गई? इसके पीछे तीन प्रमुख कारण है: समाजवाद, समाजवाद और ढेर सारा समाजवाद! वो कैसे? इसी विचारधारा ने कभी अन्य समृद्ध औद्योगिक केंद्रों जैसे कि हथियार निर्माण के लिए मशहूर मुंगेर और  कपडा उद्योग के लिए चर्चित मोदीनगर को एक ‘घोस्ट टाउन’  में परिवर्तित करने में ‘महत्वपूर्ण’ भूमिका निभाई, जिसका औद्योगिक गौरव छीन लिया गया।

अब इन जीवंत औद्योगिक केन्द्रों पर समाजवाद की छाया कैसे पड़ी? 1950 में, एक राष्ट्र के रूप में बिखरे और कुचले होने के बावजूद, भारत ने इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और यहां तक कि जापान और चीन जैसे देशों से बेहतर बुनियादी ढांचे को प्राप्त किया था। यदि हमने मुंगेर और कानपुर जैसे शहरों की क्षमता का दोहन किया होता, जो अपने-अपने उद्योगों में फल-फूल रहे थे, तो भारत कुछ ही समय में एक औद्योगिक महाशक्ति के रूप में उभर सकता था।

हालाँकि, नेहरू और उनके उत्तराधिकारियों जैसे नेताओं द्वारा समर्थित फैबियन समाजवाद ने न केवल हमारी आर्थिक वृद्धि को अवरुद्ध किया, बल्कि इन औद्योगिक शहरों की क्षमता पर भी ग्रहण लगा दिया। विडंबना यह है कि स्वतंत्रता के बाद की सरकार ने अहिंसा की वकालत करते हुए हथियारों के उत्पादन सहित उद्योगों पर गंभीर प्रतिबंध लगा दिए। कल्पना करें कि यदि इसके स्थान पर इन उद्योगों का पोषण किया गया होता; इन कस्बों का परिदृश्य  पूरी तरह से अलग होता। मुंगेर तो 1960 या 1970 के दशक में भारत का पहला रक्षा केंद्र बन सकता था, और मोदीनगर एवं कानपुर टेक्सटाइल उद्योग में मैनचेस्टर को मीलों पीछे छोड़ दिए होते।

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कुछ रिपोर्टें मोदीनगर की गिरावट का कारण पारिवारिक विवादों को बताती हैं, परन्तु असली दोषी ट्रेड यूनियनवादियों द्वारा निरंतर हड़ताल का आह्वान करना था । इसी तरह की रणनीति ने कानपुर, कोलकाता जैसे शहरों को पंगु बना दिया था और मुंबई को लगभग नष्ट कर दिया था। तो, इसका शिवकाशी से क्या संबंध है?  कुछ लोग दुर्घटनाओं और बाल श्रम को इसके पतन का कारण बताते हैं, जबकि सत्य तो कुछ और ही है।

स्वार्थी पर्यावरणविदों ने, थूथुकुडी में स्टरलाइट संयंत्र को बंद कर भारत को तांबे के निर्यातक से आयातक में बदल दिया, और फिर शिवकाशी की ओर अपनी कुदृष्टि घुमाई। वायु प्रदूषण पर उनके प्रभाव पर विपरीत शोधपत्रों के बावजूद, कई क्षेत्रों में पटाखों पर प्रतिबंध लगाने के उनके सुनियोजित अभियान, शिवकाशी की औद्योगिक चमक फीकी पड़ने के प्राथमिक कारणों में से एक हैं। इनमें से कई तो ऐसे हैं, जो बिना SUV के तड़पने लगते हैं, परन्तु अपने सुख के लिए ये लाखों बच्चों को उदास करने और करोड़ों लोगों की दीपावली मनहूस बनाने को तैयार हैं!

ये अस्वीकार्य है!

चूंकि सुप्रीम कोर्ट के केवल ‘हरित पटाखे’ बनाने के निर्देश के कारण आतिशबाजी निर्माण उद्योग पर अनिश्चितता मंडरा रही है, शिवकाशी और उसके संबद्ध उद्योगों में आठ लाख श्रमिकों को अनिश्चित भविष्य का सामना करना पड़ रहा है। पहले ही, COVID-19 महामारी सहित विभिन्न कारकों के कारण 1.5 लाख नौकरियाँ नष्ट हो चुकी हैं। यदि लोग इस सिलेक्टिव एक्टिविज़्म का विरोध नहीं करते हैं, जो तमिलनाडु में रोजगार को खतरे में डालती है और पूरे देश को प्रभावित करती है, तो आगे और भी नौकरियां जाने का खतरा है।

अगर किसी ‘पर्यावरण रक्षक’ को पटाखों से समस्या है, तो वह कभी भी स्विट्ज़रलैंड या अमेरिका जैसे अपने प्रिय डेस्टिनेशन की टिकट कटवा सकता है। परन्तु कुछ दिनों की ‘तकलीफ’ के पीछे लाखों लोगों के रोज़ी रोटी छीनने एवं बच्चों के मुख से मुस्कान छीनने का अधिकार इन एक्टिविस्टों को किसने दिया? ये दोमुंहापन स्वीकार्य नहीं है! इनकी कुंठा के लिए हम अपने संस्कृति और अर्थ से क्यों समझौता करें?

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