Michael Rubin comments: अगर जस्टिन ट्रूडो ने डिप्लोमेसी का डी भी पढ़ा होता, तो उसे ज्ञात होता कि भारत से पन्गा मोल लेना कोई लाभ का सौदा नहीं! परन्तु सत्ता के मद में चूर इस जड़बुद्धि ने वही किया जो इसे ठीक लगा। “अल्पसंख्यकों के रक्षक” बनने के नाम पर जस्टिन ट्रूडो ने अब कनाडा को सम्पूर्ण संसार में हास्य का पात्र बना दिया है!
स्थिति अब ये हो चुकी है कि अब अमेरिका, जो ऐसे देशों की पीठ थपथपाने में एक अवसर न गंवाती है, अब कनाडा से कन्नी काटता फिर रहा है!
आज हम समझेंगे कि क्यों अमेरिका इस भिड़ंत में कैनेडा के स्थान पर भारत का पक्ष लेने को भी तैयार है, और क्यों वह चाहकर भी भारत के विरुद्ध जाने का जोखिम नहीं उठा सकता!
“बहुत बड़ी गलती की है ट्रूडो ने”!
हरदीप सिंह निज्जर की ‘हत्या’ पर जो तार जस्टिन ट्रूडो ने छेड़ा है, उससे वैश्विक राजनीति में वह ज़ेलेन्स्की सामान हास्य का पात्र बन चुका है! एक पूर्व पेंटागन उच्चाधिकारी Michael Rubin ने स्पष्ट किया है कि अगर अमेरिकियों को ट्रूडो और भारत में से किसी एक को चुनना पड़े, तो वे भारत को ही प्राथमिकता देंगे।
पेंटागन के पूर्व उच्चाधिकारी Michael Rubin ने बिना लाग लपेट के कनाडा के वर्तमान रुख की निंदा की है । उनका विचार स्पष्ट है: जो ट्रूडो प्रशासन ने इस समय किया है, उससे भारत को कम, कनाडा को अधिक हानि होगी! Michael Rubin के अनुसार, अगर अमेरिका को ओटावा और नई दिल्ली में से किसी एक को चुनना पड़े, तो वे नई दिल्ली के साथ ही अपने सम्बन्ध प्रगाढ़ करना चाहेंगे! साफ़ और स्पष्ट शब्दों में रुबिन ने अमेरिका का रुख समझा दिया है: हमारी तरफ न देखिये, हम आपकी कोई सहायता नहीं कर सकते!
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Michael Rubin ने ये बातें यूँ ही नहीं कही हैं, उन्होंने तथ्यों और वर्तमान परिस्थितियों पर विशेष फोकस किया है। उन्होंने ट्रूडो की गिरती विश्वसनीयता पर प्रकाश डालते हुए कि वर्तमान पीएम के दिन अब लद चुके हैं। ऐसी स्थिति में अमेरिका के पास कनाडा के साथ पुनः सम्बन्ध स्थापित करने में कोई समस्या नहीं होगी!
Michael Rubin के अनुसार, “यूनाइटेड स्टेटस ऐसी स्थिति में नहीं जाना चाहेगा जहाँ उसे दो मित्रों में से किसी एक को चुनना पड़े। परन्तु यदि ऐसी स्थिति आई तो हम भारत को ही चुनेंगे! निज्जर वैसे भी कोई संत नहीं था, और भारत के साथ अपने सम्बन्ध अति महत्वपूर्ण है, जिसे हम दांव पर लगाने की भूल नहीं कर सकते!” वो क्या है, मित्रता और शत्रुता सोच समझकर करनी चाहिए!
चाहकर भी नहीं जा सकता अमेरिका भारत के विरुद्ध!
अब ये बातें माइकल महोदय ने यूँ ही नहीं कही है! Michael Rubin केवल नाटकीय प्रभाव के लिए भारत को हाथी नहीं कह रहे हैं; वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में इसकी मजबूत स्थिति को रेखांकित कर रहे है। वो दिन गए जब भारत को कोई कुछ भी कहकर बच निकल सकता था! रणनीतिक और आर्थिक रूप से ये एशिया के सबसे प्रभावशाली देशों में से एक है, जिसका प्रभाव भारत महासागर एवं प्रशांत महासागर तक व्याप्त है!
इसलिए, जब पक्ष चुनने की बात आती है, तो अमेरिका अक्कड़-बक्कड़-बम्बे-बो नहीं खेलेगा, समझे ट्रूडो बाबू? वे जानते हैं कि उनके रोटी पानी का जुगाड़ भारत के साथ ही सुनिश्चित होगा । लेकिन यह सिर्फ प्राथमिकता का मामला नहीं है; यह क्षमता की भी बात है। भले ही संयुक्त राज्य अमेरिका इस झगड़े में कनाडा की मदद करना चाहता हो, उन्हें भारत के खिलाफ़ मुकाबला करना होगा, और यह कोई ऐसी झड़प नहीं है जिसमें वे प्रवेश करना चाह रहे हों।
वो कैसे? तनिक अपने ज्ञान चक्षुओं को 1998 की ओर घुमाइए। अमेरिका की नाक के नीचे से हमने एक नहीं, छह परमाणु बम टेस्ट किये! झुंझलाहट में अमेरिका ने आर्थिक सैंक्शन लगाने की धमकी दी, परन्तु भारत ने भी स्पष्ट कह दिया, हमें कछु अंतर न पड़े, जउन करना है कर लो!
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अगर अमेरिका अब भी हमारे साथ खिलवाड़ करने के बारे में सोचता है, तो यह उनकी प्रतिष्ठा है जो दांव पर है, हमारी नहीं। वे इस तथ्य से अच्छी तरह परिचित हैं और यही कारण है कि पेंटागन के पूर्व अधिकारी रुबिन ट्रूडो के रुख की आलोचना करने से पीछे नहीं हट रहे हैं।
माइकल रुबिन ने तो यहाँ तक कह दिया खालिस्तानी आतंकवादी हरदीप सिंह निज्जर, जिसकी मौत पर ट्रूडो हंगामा कर रहे हैं, वास्तव में “मानवाधिकारों” का पोस्टर बॉय नहीं है। निज्जर कई हमलों में शामिल था और यहां तक कि फर्जी पासपोर्ट के साथ कनाडा में प्रवेश भी किया था। अब ऐसे आदमी को केस स्टडी बनाएंगे तो आपके लिए कोई तालियां तो बजायेगा नहीं।
ट्रूडो ख़त्म, टाटा, बायबाय!
इस आंकलन में रुबिन अकेले है। कई वैश्विक थिंक टैंक जानते हैं कि बिना किसी ठोस प्रमाण के ट्रूडो द्वारा भारत पर ‘आक्रमण’ करना झाड़ू से आंधी रोकने समान है – निरर्थक और हास्यास्पद। ट्रूडो ने इस बार अपनी अदूरदर्शिता को कुछ ज़्यादा ही आगे बढ़ाया है, जहाँ से इनका वापिस आना लगभग असंभव है।
यहां तक कि ट्रूडो के कुछ निकटतम सहयोगी भी उनकी कूटनीतिक नाटकीयता से खिन्न हैं। उदाहरण के लिए, डेविड एबी को लें, जो ब्रिटिश कोलंबिया के प्रमुख और ट्रूडो सरकार में एक प्रमुख खिलाड़ी थे। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि ट्रूडो के आरोप पब्लिक सोर्स अथवा ओपेन सोर्स इन्वेस्टिगेशन पे आधारित है, तो इन्होने ट्रूडो प्रशासन की आलोचना करने में एक क्षण नहीं गंवाया। अरे ट्रूडो, ध्रुव राठी ही बनना था तो उसे फोन लगाके कुछ मोटा एडवांस भिजवा देते, इतनी गन्दी नकल कौन करता है?
ट्रूडो ने उस देश से पन्गा मोल लिया है, जो आधे जगत का पेट भर रहा है, CCP से बिना आँख मीचे दो दो हाथ कर सकता है, और निस्संकोच रूस से क्रूड तेल भी मंगवा सकता है, ये जानते हुए भी कि अमेरिका इस बात से प्रसन्न नहीं होगा! अब तो अमेरिका भी ट्रूडो प्रशासन का साथ देने को तैयार नहीं है, और ये भारत के बढ़ते भौकाल का प्रमाण नहीं तो और क्या है?
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