NCERT ने दिया पाठ्यक्रम में ‘इंडिया’ से ‘भारत’ परिवर्तन का प्रस्ताव!

देर आये पर दुरुस्त आये!

जैसा सदियों से बताया जाता रहा है, परिवर्तन ही प्रकृति का शाश्वत सत्य है, और शीघ्र ही हमारे स्कूली पाठ्यक्रम में भी व्यापक परिवर्तन आना तय है! राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा गठित सामाजिक विज्ञान के लिए एक उच्च स्तरीय समिति का प्रस्ताव स्पष्ट और सरल है: हमारी पाठ्यपुस्तकों में ‘इंडिया’ शब्द को ‘भारत’ से बदलना और प्राचीन इतिहास के स्थान पर ‘शास्त्रीय इतिहास’ को शामिल करना। लेकिन आने वाली पीढ़ियों के लिए इस बदलाव का क्या अर्थ है?

सरल शब्दों में, यह हमारे शैक्षिक आख्यान में परिवर्तन का प्रतीक है। हमारे भविष्य के छात्र उस इतिहास में गहराई से उतरेंगे जिसे हमारे नायकों ने संजोया था, न कि उस इतिहास में जो हमारे आक्रमणकारियों ने हम पर थोपा था। अब ध्यान ‘भारतीयता’ पर केंद्रित होगा, जो हमारे इतिहास का सर्वोत्कृष्ट सार है, बजाय उस अंग्रेजी व्याख्या के, जो दशकों से हमारे मानस पटल पर हावी रही है।

आज हम समझेंगे ‘इंडिया’ से ‘भारत’ में परिवर्तन के वर्तमान प्रस्ताव के निहितार्थों को, और क्यों हमारे समृद्ध इतिहास का भारतीय सार वह वापसी करने के लिए तैयार है जिसका वह सदियों से अधिकारी रहा है!

 देर आये पर दुरुस्त आये!

हमारी शिक्षा प्रणाली के गलियारों में बदलाव की बयार बह रही है, जिससे बहस और तालियों का शोर समान रूप से बढ़ रहा है। कुछ लोगों के लिए, यह ऐतिहासिक संशोधनवाद है, तो दूसरों के लिए, यह हमारे इतिहास की पुनर्स्थापना समान है। परन्तु वास्तव में एनसीईआरटी समिति का वर्तमान निर्णय, मूल रूप से ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की दिशा में एक सार्थक प्रयास है।

लेकिन ये राह बिलकुल भी सरल न थी, और सच कहें तो काफी कठिन भी थी। वर्षों से, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) गहरी निद्रा में लीन थी, और बदलाव से मानो इन्होने मुंह मोड़ लिया था।

हमारी अर्थव्यवस्था की तरह, हमारे इतिहास का दस्तावेज़ीकरण भी नेहरूवादी समाजवाद के जाल में फँसा हुआ था। 1960 के दशक की शुरुआत में, जैसे ही राष्ट्रीय एकता केंद्र में आई, शिक्षा एक विविध राष्ट्र में भावनात्मक एकता को बढ़ावा देने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में उभरी। तत्कालीन शिक्षा मंत्री एम. सी. चागला ने ऐसी इतिहास की पाठ्यपुस्तकों की कल्पना की जो धर्मनिरपेक्ष, तर्कसंगत और “मिथकों से रहित” हों।

और पढ़ें: मोदी जी! NCERT से मुगलों को हटाइए मत, उनकी क्रूरता-उनकी कायरता-उनकी कट्टरता दिखाइए

इन “मॉडल” पाठ्यपुस्तकों के लेखक के रूप में इतिहास शिक्षा पर एक समिति का गठन किया गया था, जिसमें तारा चंद, नीलकंठ शास्त्री, मोहम्मद हबीब, बिशेश्वर प्रसाद, बी.पी.सक्सेना एवं पीसी गुप्ता ने 1960 के दशक के अंत में प्रकाशित कक्षा VI के लिए रोमिला थापर की “प्राचीन भारत” और कक्षा VII के लिए “मध्यकालीन भारत” ने माहौल तैयार किया। हालाँकि, इन पाठ्यपुस्तकों में “मार्क्सवादी छाप” थी, जिसमें संस्कृति और परंपरा के लिए कोई स्थान न था!

“भारत का रहनेवाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ!”

इतिहास के बारे में हमारी धारणाओं और समझ को आकार देने में पाठ्यपुस्तकों की शक्ति को नकारा नहीं जा सकता है। दशकों तक, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) ने प्रोपगैंडा तकनीकों को सूक्ष्मता से नियोजित किया, और यह धारणा सफलतापूर्वक फैलाई कि भारत केवल एक भौगोलिक इकाई थी, जो किसी भी एकीकृत भावना से रहित थी।

ऐतिहासिक शख्सियतों को वामपंथियों ने संदर्भ से बाहर उद्धृत किया, और सांस्कृतिक मतभेदों का फायदा उठाते हुए घटनाओं को चालाकी से अपने एजेंडा के अनुरूप चित्रित किया गया। इस कपटपूर्ण दृष्टिकोण ने धीरे-धीरे लोगों के अपनी भूमि के साथ भावनात्मक संबंध को खत्म कर दिया। धीरे धीरे ऐसे लोगों की भीड़ उत्पन्न होने लगी, जिनका भारत और भारतीयता से नाता लगभग नगण्य था!

संस्कृत, एक ऐसी भाषा जो सहस्राब्दियों से भारतीय संस्कृति का आधार रही है, को भी इसी तरह की दुर्दशा का सामना करना पड़ा। हर सामाजिक असामंजस्य के लिए इसी को जिम्मेदार ठहराया गया। जब छात्रों ने अपनी पाठ्यपुस्तकों में संस्कृत का सामना किया, तो उनके मन में यह पूर्वधारणा विकसित हो गई कि इस भाषा में लिखी गई कोई भी सामग्री स्वाभाविक रूप से नकारात्मक थी। इससे एक पूरी पीढ़ी उन समृद्ध प्राचीन ग्रंथों पर संदेह करने लगी जो वास्तव में गर्व का स्रोत होने चाहिए थे।

हालाँकि, परिवर्तन क्षितिज पर है। एनसीईआरटी समिति के वर्तमान अध्यक्ष CI Isaac ने सात सदस्यीय समिति की सर्वसम्मत सिफारिश का समर्थन किया है। इस समिति ने ‘इंडिया’ से ‘भारत’ नाम में परिवर्तन पर हामी भरी है।

और पढ़े : मुगलों और किन्नरों के संबंध का NCERT में किया गया महिमामंडन, सच्चाई आपको चौंका देगी!

समिति द्वारा उजागर किया गया एक महत्वपूर्ण पहलू पाठ्यक्रम में असंतुलन था। प्रचलित पाठ्यपुस्तकों में “लड़ाइयों में हिंदू हार” पर असंगत रूप से जोर दिया गया, जबकि सनातनी शासकों के अद्वितीय उपलब्धियों एवं आक्रांताओं से उनके प्रतिरोध को त्याग दिया। Isaac ने कुछ विचारणीय प्रश्न भी उठाये: हमारी पाठ्यपुस्तकें छात्रों को भारतीय जनजातियों द्वारा मुहम्मद घोरी के मृत्यु के बारे में क्यों नहीं बताते? कोलाचेल की लड़ाई, एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना, हमारी पाठ्यपुस्तकों से क्यों गायब है? आपातकाल की अवधि को विस्तार से क्यों नहीं बताया गया है? वो सब छोड़िये, जिस प्रकार से मराठा समुदाय ने अखंड भारत की पुनर्स्थापना करने का प्रयास किया, वो कैसे ऐतिहासिक पुस्तकों का भाग नहीं है?

सचमुच, Isaac की टिप्पणियाँ सोचने पर विवश कर देती हैं। हमारे देश के युवा अरबी आक्रमणकारियों के खिलाफ भारत द्वारा किए गए उल्लेखनीय प्रतिरोध से काफी हद तक अनजान हैं। भारतीय योद्धाओं ने ऐसा अदम्य साहस दिखाया, कि किसी भी आक्रमणकारी ने लगभग तीन शताब्दियों तक हमारी धरती पर कदम रखने की हिम्मत नहीं की। यह ऐतिहासिक उपलब्धि कोई छोटी उपलब्धि नहीं है बल्कि इस भूमि की अदम्य भावना का एक प्रमाण है।

इन परिवर्तनों के साथ, एक प्रकार का पुनर्जागरण संकेत देता है। वह दिन दूर नहीं जब भारतवर्ष, जैसा कि क्लासिक “पूरब और पश्चिम” में कल्पना की गई है, अपनी समृद्ध विरासत को पुनः प्राप्त करने के लिए उठेगा, और ये छंद चहुंओर गूंजेंगे,

“”है प्रीत जहाँ की रीत सदा, मैं गीत वहाँ के गाता हूँ,
भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं!”

TFI का समर्थन करें:

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ‘राइट’ विचारधारा को मजबूती देने के लिए TFI-STORE.COM से बेहतरीन गुणवत्ता के वस्त्र क्रय कर हमारा समर्थन करें।

Exit mobile version