भारत में कई महिलाएं ऐसी रही हैं जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में काम कर समाज पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इनमें से एक हैं महेश्वर (वर्तमान में मध्यप्रदेश) की महारानी अहिल्याबाई होल्कर, जिन्हें इतिहास की किताबों में अक्सर नजरअंदाज किया गया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उन्हें अभी तक वह स्थान नहीं दिया गया है जिसकी वे हकदार हैं।
अहिल्याबाई होल्कर का बाल्यजीवन
अहिल्याबाई होल्कर का जन्म 31 मई 1725 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के चौंडी गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम मानकोजी शिंदे था, जो कि पेशवा शासन में पाटिल के पद पर थे। अहिल्याबाई का विवाह 1733 में खंडेराव होल्कर से हुआ। खंडेराव होल्कर मल्हारराव होल्कर के बेटे थे, जो मराठा साम्राज्य के ताकतवर सरदारों में से एक थे।
मल्हारराव होल्कर ने अहिल्याबाई को अपने बेटे खंडेराव के लिए कैसे चुना इसके बारे में एक कहानी प्रचलित है। मल्हारराव और बाजीराव पेशवा युद्ध से वापस लौटते समय चौंडी गांव में रुके थे। चौंडी गांव क्षिप्रा नदी के किनारे स्थित है, जहां अहिल्याबाई अपनी सहेलियों के साथ रेत का शिवलिंग बनाकर खेल रही थीं।
इस दौरान पेशवा की सेना का एक अश्व (घोड़ा) छूटकर उनकी तरफ भागने लगा। घोड़े को अपनी तरफ भागते हुए देखकर भी अहिल्याबाई बिना घबराए अपने शिवलिंग के साथ बैठी रहीं। मल्हारराव इस साहस से प्रभावित हुए और उन्होंने अहिल्याबाई को अपने बेटे खंडेराव के लिए चुन लिया।
अहिल्याबाई होल्कर की शिक्षा
उस समय महिलाओं को शिक्षा का अधिकार नहीं था, लेकिन मल्हारराव एक दूरदर्शी सेनानी थे। उन्होंने और उनकी पत्नी गौतमाबाई ने अहिल्याबाई को शिक्षा प्रदान की। अहिल्याबाई को पढ़ाया, लिखाया और योद्धा के रूप में तैयार किया। इसके फलस्वरूप, उन्होंने अपने पति खंडेराव का युद्धों में साथ दिया। अहिल्याबाई और खंडेराव का एक बेटा भी था जिसका नाम मालेराव रखा गया था।
संघर्ष की शुरुआत
अहिल्याबाई के जीवन में संघर्ष की शुरुआत तब हुई जब 1754 में कूंभेर किले की लड़ाई में खंडेराव की तोप के गोले लगने के कारण मृत्यु हो गई। यह किला उस समय हरियाणा के महाराज सूरजमल जाट के अधिकार क्षेत्र में था। खंडेराव की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई सती होना चाहती थीं, लेकिन मल्हारराव होल्कर ने उन्हें ऐसा करने से रोका।
मल्हारराव को अहिल्याबाई की राज्य के मामलों को संभालने की क्षमता पर भरोसा था। खंडेराव की मृत्यु के बाद उनके बेटे मालेराव उत्तराधिकारी बने, लेकिन वे राज्य संभालने में असमर्थ थे। खंडेराव और मल्हारराव की मृत्यु के बाद अहिल्याबाई ने अपने बेटे मालेराव को भी खो दिया।
रघुनाथराव पर विजय
अपने ससुर, पति और बेटे की मृत्यु से दुखी अहिल्याबाई को महेश्वर राज्य का उत्तराधिकारी कौन बनेगा यह प्रश्न सताने लगा। इस मौके का फायदा उठाकर राज्य के अंदर के विद्रोही तत्वों ने विद्रोह कर दिया। इनमें से एक थे गंगोबा तात्या जिन्होंने पेशवा माधवराव के चाचा रघुनाथराव को महेश्वर पर आक्रमण करने के लिए बुलाया। अहिल्याबाई ने होलकरों के विश्वासी सरदार महादजी शिंदे और तुकोजी होलकर से मदद मांगी। महादजी और तुकोजी ने महेश्वर की ओर अपनी सेनाएं भेज दीं।
अहिल्याबाई ने रघुनाथराव को एक पत्र लिखकर कहा कि वह अपने राज्य की महिलाओं की एक सेना तैयार करेंगी जो राज्य की रक्षा के लिए आखिरी सांस तक लड़ेगी। इस चुनौती को देखते हुए रघुनाथराव ने महेश्वर पर आक्रमण करने का इरादा बदल दिया। अहिल्याबाई की कूटनीति के कारण बिना युद्ध के रघुनाथराव वापस लौट गए और इससे अहिल्याबाई की प्रतिष्ठा और बढ़ी।
जनकल्याणकारी कार्य
इतनी चुनौतियों का सामना करने के बाद भी अहिल्याबाई ने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी प्रजा को सुख-समृद्धि से भरपूर जीवन देने का हर संभव प्रयास किया। उनके 30 वर्षों के शासनकाल में सभी जातियों, लिंग और धर्मों के लोग सुरक्षित महसूस करते थे। मल्हारराव द्वारा सौंपे गए राज्य का उन्होंने अपने बेटे जैसा पालन किया। पूरे भारत में यात्रियों के लिए कुएं और विश्राम गृहों का निर्माण करवाया।
अहिल्याबाई ने न केवल अपने राज्य की प्रजा के लिए बल्कि बाकी राज्यों की प्रजा के लिए भी काम किया। उनके द्वारा बनवाए गए कई कुएं और विश्रामगृह आज भी प्रयोग में हैं। उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया और देश भर के अन्य मंदिरों का निर्माण और पुनर्निर्माण किया।
उन्होंने 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग में तीर्थयात्रियों के लिए विश्रामगृह बनवाया। अयोध्या और नासिक में भगवान राम के मंदिर का निर्माण करवाया, उज्जैन में चिंतामणि गणपति मंदिर का निर्माण करवाया, सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया जिसे 1024 में महमूद गजनी ने नष्ट कर दिया था। उन्होंने जगन्नाथपुरी मंदिर को भी दान दिया।
मंदिरों का जीर्णोद्धार करने के अलावा, उन्होंने हंडिया, पैठण और कई अन्य तीर्थस्थलों पर सराय का निर्माण किया। समकालीन स्रोत भी उनके शासनकाल के दौरान राज्य की समृद्धि का उल्लेख करते हैं। स्कॉटिश कवि जॉन बैली ने अहिल्याबाई के शासनकाल की प्रशंसा करते हुए 1849 में एक कविता लिखी थी:
“For thirty years her reign of peace,
The land in blessing did increase,
And she was blessed by every tongue,
By stern and gentle, old and young,
Yea, even the children at their mother’s feet,
Are taught such homely rhyming to repeat,
In latter days from Brahma came,
To rule our land, a noble Dame,
Kind was her heart and bright her fame,
And Ahilya was her honored name.”
इंदौर में इस महान शासिका ने अपने राज्यों में सभी को अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए प्रोत्साहित किया। कपड़ा व्यापारियों के लिए वह उन्नति का काल था, अन्य व्यापार फल-फूल रहे थे, कृषक वर्ग में खुशहाली थी। रानी के संज्ञान में आने वाले प्रत्येक मामले को सख्ती से निपटाया जाता था।
वह अपने लोगों को समृद्ध और शहरों को विकसित होते देखना पसंद करती थीं। उनके काल में सड़कों पर छायादार पेड़ लगाए गए, यात्रियों के लिए जगह-जगह पर कुएं और विश्रामगृह बनाए गए। गरीब, बेघर, निराश्रित सभी की मदद की जाती थी। भील जनजाति के लोग जो लूटपाट करते थे, उन्हें कृषक वर्ग में बदलने पर जोर दिया गया।
अहिल्याबाई होल्कर का निधन
अहिल्याबाई होल्कर का सत्तर वर्ष की आयु में 1795 में स्वर्गवास हो गया। इंदौर ने लंबे समय तक अपनी कुलीन रानी का शोक मनाया। उनका शासन सुखमय था और उनकी स्मृति आज भी गहरी श्रद्धा के साथ संजोई हुई है। अहिल्याबाई होल्कर न केवल एक महान शासिका थीं बल्कि उन्होंने अपने अदम्य साहस और कूटनीति से एक अमिट छाप छोड़ी जो आज भी भारतीय इतिहास में मानी जाती है।
और पढ़ें:- पुर्तगालियों से आत्मसमर्पण कराने वाले वीर चिमाजी अप्पा की कथा