तमिलनाडु के गवर्नर RN रवि चर्चा में हैं, कन्याकुमारी के तिरुवत्तार में एक समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “सेक्युलरिज्म एक यूरोपियन कॉन्सेप्ट है।” उन्होंने आगे कहा, “सेक्यलरिज़म का कान्सेप्ट यूरोप में बना रहना चाहिए और भारत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है।” इसके बाद RN रवि अपने दिए गए इस बयान के चलते विपक्ष के निशाने पर आ गए। डीएमके प्रवक्ता TKS एलंगोवन ने राज्यपाल पर निशाना साधते हुए कहा कि राज्यपाल ने भारत के संविधान को ठीक से नहीं पढ़ा है।
आइए, जानते हैं क्या है सेक्युलरिज्म
सेक्युलरिज्म का अर्थ है जीवन के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं से धर्म को अलग करना, क्योंकि धर्म को विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत मामला माना जाता है। इतिहासकार इयान कोपलैंड के अनुसार, धर्मनिरपेक्षता की उत्पत्ति मध्य यूरोप में हुई थी। यानी, भारत में पहले ऐसा कोई सिद्धांत नहीं था, यह सिद्धांत कहता है कि सरकार का किसी धर्म से कोई संबंध नहीं होना चाहिए। आधुनिक भारत के अधिकांश निर्माता, जो यूरोपीय विचारों और प्रथाओं से प्रभावित थे, वह धर्मनिरपेक्षता के भी समर्थक थे।
उनमें से सबसे प्रमुख देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे। उनके लिए, धर्मनिरपेक्ष राज्य होना आधुनिकता का एक महत्वपूर्ण संकेत था। उन्होंने संविधान सभा की बहसों में कहा, “हमने केवल वही किया है जो हर देश करता है, कुछ गुमराह और पिछड़े देशों को छोड़कर।” नेहरू और अम्बेडकर दोनों ही धर्मनिरपेक्षता के आदर्श के प्रति मजबूती से प्रतिबद्ध थे। नेहरू ने कहा था, “यह एक ऐसा आदर्श है जिसकी ओर हमें बढ़ना चाहिए, चाहे हम हिंदू हों, मुसलमान हों, सिख हों या ईसाई, हममें से कोई भी अपने दिल की गहराइयों में यह नहीं कह सकता कि उसमें कोई पूर्वाग्रह या साम्प्रदायिकता की छाया नहीं है।”
लेकिन, जब ‘सेक्युलर’ शब्द को संविधान में शामिल करने की बात आई, तो दोनों ही इसके उपयोग के प्रति सावधान थे। अम्बेडकर का मानना था कि धर्मनिरेपक्षता को केवल हिंदू-मुस्लिम मुद्दे तक सीमित नहीं रखा जा सकता है, बल्कि इसमें जाति के उत्पीड़न को भी शामिल करना होगा। उन्होंने कहा था कि एक जाति-विहीन समाज में ही सच्ची धर्मनिरपेक्षता स्थापित हो सकती है।
नेहरू ने भी धर्मनिरपेक्षता को एक व्यापक अवधारणा के रूप में देखा, जिसमें सभी नागरिकों की समानता और सामाजिक न्याय शामिल है । उन्होंने कहा था कि एक जाति-विहीन समाज में ही धर्मनिरपेक्षता की सच्ची भावना विकसित हो सकती है। इस प्रकार, नेहरू और अम्बेडकर दोनों ही धर्मनिरपेक्षता के आदर्श को एक व्यापक और समावेशी अवधारणा के रूप में देखते थे, जिसमें जाति, धर्म, और सामाजिक न्याय को शामिल किया जाना चाहिए।
जब संविधान सभा में संविधान की प्रस्तावना पर चर्चा की गई, तो धर्मनिरपेक्षता को शामिल करने पर बहस ने बहुत समय लिया। राजनीति विज्ञानी शेफाली झा ने एक लेख में बताया कि “सभी सदस्य, निश्चित रूप से, धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना की आवश्यकता पर सहमत थे। उन्होंने लिखा है, “धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के प्रभावी कामकाज के बीच संबंध यूरोप में अच्छी तरह से स्थापित हो चुका था, और चूंकि भारत को लोकतंत्र के आदर्शों का पालन करना था, इसलिए धर्मनिरपेक्षता को आवश्यक माना गया।
1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए। उस दौरान देश में आपातकाल चल रहा था, अधिकतर विपक्षी नेता जेल में थे।