तमिलनाडु के राज्यपाल RN रवि का एक बयान विपक्षी नेताओं के लिए मुद्दा बन गया है। राज्यपाल ने Secularism को यूरोपियन धारणा बताते हुए कहा कि भारत में इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। उन्होंने कहा कि ‘असुरक्षित’ महसूस करने वाली एक प्रधानमंत्री ने देश पर आपातकाल थोप कर संविधान में Secular शब्द को जोड़ा, क्योंकि वो लोगों के एक खास समूह को तुष्ट करना चाहती थी। RN रवि ने कहा कि सेक्युलरिज्म को यूरोप में ही रहने दीजिए, वहीं के लोगों को इससे खुश रहने दीजिए। असल में उनका पूछना था कि भारत में हम धर्म से अलग कैसे रह सकते हैं?
अपनी बात को सही साबित करने के लिए भारत के डिप्टी NSA भी रहे हैं, ऐसे में CBI-IB जैसी ख़ुफ़िया एजेंसियों में सेवा दे चुके हैं, ऐसे में ये नहीं कहा जा सकता कि अज्ञानतावश उन्होंने ये बयान दिया है। वो एक शिक्षित एवं अनुभवी व्यक्ति हैं, ऐसे में उन्होंने अपने अध्ययन के बाद ही ये विचार प्रकट किया है। उनका ये कहना है कि भारत के लोगों को सेक्युलरिज्म की गलत परिभाषा बता कर उनके साथ धोखाधड़ी की गई है। उन्होंने उदाहरण दिया कि यूरोप में सत्ता और मजहब के बीच लंबे समय से संघर्ष चल रहा था, ऐसे में किंग और चर्च के बीच शक्तियों के बँटवारे के लिए वो सेक्युलरिज्म वाला कॉन्सेप्ट लेकर आए।
RN रवि तर्क देते हैं कि भारत एक धार्मिक राष्ट्र रहा है, यहाँ धर्म और सत्ता के बीच कोई संघर्ष नहीं रहा है। उन्होंने इस दौरान संविधान सभा की बहस का भी हवाला दिया, क्योंकि उस समय संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को नहीं जोड़ा गया था। इसे जोड़ा गया 1976 में, संविधान के 42वें संशोधन के दौरान। उस दौरान इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थीं और देश में लोकतंत्र नहीं था। यानी, वो दौर आपातकाल का था। अधिकतर विपक्षी नेता जेल में थे। ऐसे समय में इस शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ दिया गया और अब कहा जाता है कि यही एक शब्द हमारे देश को परिभाषित करता है।
आइए, बताते हैं कि संविधान निर्माताओं ने भारत के संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द क्यों नहीं जोड़ा। डॉ भीमराव आंबेडकर ने कहा था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का ये अर्थ बिलकुल नहीं हो सकता कि सरकार जनता की धार्मिक भावनाओं का ख्याल न रखे। उनके अनुसार, धर्मनिरपेक्षता सिर्फ ये है कि सरकार सभी लोगों पर कोई खास पंथ/धर्म न थोपे। आखिर कोई न कोई कारण रहा होगा कि डॉ भीमराव आंबेडकर ने संविधान में Secularism/Secular शब्द नहीं जोड़ा। उनका मानना था कि ये तो हमारे देश की आत्मा में ही समाहित है। उनका स्पष्ट मानना था कि संविधान की प्रस्तावना में इसका अलग से उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
इसी तरह उन्होंने सोशलिस्ट शब्द का भी प्रयोग संविधान की प्रस्तावना में नहीं किया। लंदन से पढ़ कर आए KT शाह ने भारत को ‘सेक्युलर’ राष्ट्र लिखे जाने का प्रस्ताव पेश किया था, लेकिन इसे अस्वीकार कर दिया गया। लोकनाथ मिश्र (जो बाद में जगन्नाथपुरी के पहले सांसद बने) ने इसे फिसलनकारी करार दिया। उनका कहना था कि ये भारत की प्राचीन संस्कृति के दमन का तरीका है। डॉ आंबेडकर ने इस प्रस्ताव को लेकर कहा था कि राज्य की नीति क्या होगी, समाज को सामाजिक और आर्थिक रूप से किस तरह से संगठित किया जाएगा – ये समय एवं परिस्थिति के हिसाब से जनता खुद ही तय करेगी, इसे संविधान में डालने का अर्थ होगा लोकतंत्र को खत्म करना।
उन्होंने इसे फालतू प्रस्ताव बताते हुए कहा था कि लोगों के मूलभूत अधिकार और राज्य के नीति-निर्धारक सिद्धांत पहले ही सुनिश्चित किए जा चुके हैं, ऐसे में इसे अलग से जोड़ना ठीक नहीं होगा। वहीं संविधान सभा के एक अन्य सदस्य KM मुंशी ने भी इस प्रस्ताव पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि भारत के लोग गहराई से धार्मिक संरचना में रचे-बसे लोग हैं, लेकिन हमारा धार्मिक सहिष्णुता का भी इतिहास रहा है। उनका कहना था कि हमारे यहाँ अमेरिका की तरह सरकार और चर्च के बीच रेखा नहीं खींची जा सकती है।
आज RN रवि का विरोध करने वाले इसे पढ़ कर खुश नहीं होंगे। जिस आपातकाल को लोकतंत्र की हत्या की अवधि कहा जाता है, उस समय हुए किसी बड़े फैसले को आखिर कैसे भारत के संविधान का सबसे अहम हिस्सा बताया जा सकता है?
हमारे संविधान में Secular शब्द जोड़ा जाना इसीलिए भी अनावश्यक हैं, क्योंकि इसी संविधान में आम लोगों के मौलिक अधिकार पहले से ही परिभाषित हैं। उसमें धार्मिक स्वतंत्रता का भी अधिकार है, फिर सेक्युलरिज्म की क्या आवश्यकता? दूसरी बात, अगर इंदिरा गाँधी ने संविधान में इस शब्द को जोड़ कर भारत को सेक्युलर बनाया, तो क्या उससे पहले ये देश सेक्युलर नहीं था? उससे पहले भी कई पंथों के लोग यहाँ रहते थे, उससे पहले भी किसी पर हिन्दू धर्म जबरन नहीं थोपा जाता था, उससे पहले भी हिन्दू सहिष्णु थे। फिर इंदिरा गाँधी इस देश को सेक्युलर कैसे बना सकती हैं?