मध्यकाल के पूर्वार्द्ध, अर्थात भक्तिकाल में जब कृष्ण भक्त कवियों की चर्चा की जाती है तो सूरदास का नाम सबसे पहले आता है। 1478 ईस्वी में मथुरा के रुनकता नामक ग्राम में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे सूरदास का बचपन का नाम सुरध्वज था। इनके विषय में कुछ लोगों का मानना है कि ये जन्म से ही अंधे थे तथा परिवार की उपेक्षा के कारण घर छोड़कर मथुरा के गऊ घाट पर रहने के लिए चले गए थे।
चंदवरदाई के वंशज थे सूरदास
सूरदास के परिवार के सम्बन्ध में ‘साहित्य लहरी’ के अंतिम एक पद में जिक्र है कि ये पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदवरदाई के वंशज हैं। इन कवियों के कुल में एक हरिचंद थे, जिनके 7 पुत्र थे और इनमें सबसे छोटे पुत्र ही सूरदास थे। कहा जाता है कि जब सूरदास के सभी बड़े भाई मुसलमानों के साथ युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे। ऐसे में नेत्रहीन सूरदास काफी समय तक इधर-उधर भटकते रहे। ऐसे ही भटकते हुए एक दिन वे कुऍं में गिर गए और कई दिनों तक वहीं पड़े रहे। इस दौरान उन्होंने सिर्फ कृष्ण का ध्यान करते हुए भक्ति-भाव के साथ उनको पुकारा जिससे प्रसन्न होकर एक दिन भगवान श्री कृष्ण ने उन्हें उनकी नेत्र ज्योति लौटाकर दर्शन दिए।
कृष्ण के दर्शन पाकर सूरदास ने उनसे मांगा कि जिन आंखों से उन्होंने अपने आराध्य को देखा है उन आँखों से वे अब कुछ और देखना नहीं चाहते। श्री कृष्ण ने उन्हें कुएँ से निकालते हुए उनकी आंखें पुनः सदा के लिए बंद कर दी। इन बंद आँखों से ही सूरदास ने जिन पदों की रचना की उनमें वात्सल्य, प्रेम, प्रकृति, कृष्ण लीला आदि का इतना सजीव अंकन हुआ है कि कुछ विद्वान तो यहाँ तक कहते हैं कि सूरदास जन्म से अंधे नहीं थे। क्योंकि जो व्यक्ति जन्म से अंधा होगा वह इतना सटीक और सुंदर वर्णन अपने पदों में नहीं कर सकता। हालाँकि आज भी विद्वानों में इस विषय में मतभेद है कि क्या सूरदास जन्म से ही नेत्रहीन थे या बाद में उन्होंने अपनी ज्योति खोई।
हालाँकि इस विवाद से हटकर यदि सूर दास की रचनाओं को देखा जाए तो वास्तव में इनके पद अद्भुत हैं। रोचक बात तो यह है कि सुर दास ने किसी प्रबंध काव्य की रचना नहीं की अपितु इनके सभी पद मुक्तक में रचे गए हैं। सूरदास के प्रारम्भिक पदों में दैन्य अर्थात दुखियारा या दीनता का भाव दिखता है बाद में इनकी भक्ति का रूप भी बदला। देखा जाए तो इनकी रचनाओं में भक्ति के दो चरण मिलते हैं। पहला चरण वल्लभाचार्य से मिलने के पूर्व का है, जिसमें सूरदास वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित होने से पूर्व दैन्यभाव पर आधारित भक्ति के पदों की रचना कर रहे थे।
पुष्टिमार्गीय भक्ति पर ऐसे चल बढ़े सूरदास
दूसरा चरण वल्लभाचार्य से मिलने के बाद आरंभ होता है, जब सूरदास वल्लभ संप्रदाय में दीक्षित होकर पुष्टिमार्गीय भक्ति पर आधारित भक्ति के पदों की रचना की ओर प्रवृत हुए। सूरदास की भक्ति भावना में इस प्रकार के पदों का बाहुल्य देखा जा सकता है। यहाँ बता दें कि वल्लभाचार्य सूरदास के गुरु थे। वल्लभाचार्य सूरदास के गुरु कैसे बने इस सम्बंध में एक किंवदंती अत्यधिक प्रचलित है। कहा जाता है जब सूरदास मथुरा के गाऊघाट पर रहते थे तो एक दिन वहाँ से वल्लभाचार्य गुजर रहे थे। वल्लभाचार्य ने जब सूरदास को गाते हुए सुना। उस समय सूरदास विनय के ये पद गा रहे थे-
‘हौं हरि सब पतितन कौ नायक’
‘प्रभु! हौं सब पतितन कौ टीकौ।’
चूँकि सूरदास ऐसे विनय और दीनता के पद ही गाते थे ऐसे में वल्लभाचार्य ने जब सूरदास के इन दीनतापूर्ण पदों को सुना, तो उन्होंने सूर से कहा:
“जो सूर ह्वै कै ऐसो घिघियात काहे को है? कुछ भगवत् लीला वर्णन करौ।”
इस पर सूरदास ने स्वयं को अज्ञानी बताते हुए कहा कि मुझे तो भगवान की लीलाओं का जरा भी ज्ञान नहीं है। ऐसा सुनकर वल्लभाचार्य ने सूरदास को अपने संप्रदाय में स्वीकारते हुए पुष्टिमार्ग में दीक्षित करने का निश्चय किया। और इस तरह सूरदास को अपना शिष्य स्वीकारा। वल्लभाचार्य ने सूरदास को अपनी दशम स्कंध की अनुक्रमणिका सुनाकर भगवान की लीलाओं से अवगत कराया। फिर क्या था, जो सूरदास अब तक “अबकी राखि लेहु, भगवान…।” जैसे दास्य भाव से युक्त पदों को गा रहे थे उनके पदों में अब प्रेम, वात्सल्य जैसे भाव भर गए।
जब अकबर से मिले प्रज्ञाचक्षु संत
सूरदास के सख्य, प्रेम और वात्सल्य के इन पदों की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। कुछ लोगों के अनुसार उस समय के मुगल शासक अकबर भी सूरदास से स्वयं मिलने आए थे। कहते हैं कि एक बार तानसेन ने मुगल दरबार में सूरदास का एक पद गाया। यह पद सुनकर अकबर इतने मुग्ध हुए कि उन्होंने सूरदास से मिलने का निश्चय कर लिया। चूँकि मुगल बादशाहों को अपना यश सुनने की लालसा रहती है थी अतः अकबर ने सूरदास को अपना यश वर्णन करने का आग्रह किया। तब सूरदास ने बड़े ही विनम्रता से अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि मैं सिर्फ ईश्वर का ही यश गान कर सकता हूँ, क्योंकि मेरे नेत्र बस ईश्वर को ही देखते हैं और सदैव उन्हीं के दर्शन को प्यासे रहते हैं।
सूर के इसी पद ‘ऐसे दरस को ए मरत लोचन व्यास’ को लेकर अकबर ने पूछा, “कि आप तो नेत्र ज्योति से वंचित हैं, फिर आपके नेत्र दरस को कैसे प्यासे मरते हैं?” तब सूरदास ने उत्तर दिया कि ये नेत्र भगवान को देखते हैं और उस स्वरूप का रसपान प्रतिक्षण करने पर भी अतृप्त बने रहते हैं।’’
अकबर ने सूरदास से कुछ धन स्वीकार करने का अनुरोध किया पर सूरदास ने निडरतापूर्वक भेंट अस्वीकार करते हुए कहा “आज पीछे हमको कबहूं फेरि मत बुलाइयो और मोको कबहूं लिलियो मती।”
इस तरह सूरदास का सम्पूर्ण जीवन वल्लभाचार्य से साथ श्रीनाथ जी के मंदिर में सेवा करते हुए और भगवान की लीला के पद गाते हुए व्यतीत हुआ। इनकी मृत्यु परसौली नामक स्थान पर हुई, कहा जाता है कि इसी स्थान पर कृष्ण ने रासलीला भी की थी। एक दिन आचार्य वल्लभ, श्रीनाथ जी और गोसाई विट्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की आरती करते समय सूरदास को अनुपस्थित देखा। इससे उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि सूरदास का अन्त समय निकट आ गया है। उन्होंने अपने सेवकों से कहा कि- “पुष्टिमार्ग का जहाज़ जा रहा है, जिसे जो लेना हो ले ले।” अर्थात सूरदास को उनके गुरु ने अंत में पुष्टिमार्ग का जहाज नाम देकर विदा किया।