महाराष्ट्र में बीते कुछ वर्षों में राजनीतिक पार्टियों में टूट का ऐसा सिलसिला शुरू हुआ कि लोग भ्रमित हो गए कि कौन नेता किस तरफ है। महाराष्ट्र में टूट की इस राजनीति को बड़े पैमाने पर शुरु करने वाले नेता का नाम था शरद पवार। करीब 45 वर्ष पहले तत्कालीन उद्योग मंत्री शरद पवार कांग्रेस से बगावत करते हुए 40 विधायकों को लेकर अलग हो गए थे और मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटील की सरकार को गिरा दिया था। इसके बाद शरद पवार 38 वर्ष की उम्र में ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए थे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्रियों की कहानी की इस सीरीज में जानेंगे शरद पवार से जुड़े कुछ विवादित और कुछ दिलचस्प किस्से।
अपने समर्थकों के बीच साहेब नाम से लोकप्रिय शरद पवार का जन्म 12 दिसंबर 1940 को महाराष्ट्र के बारामती में हुआ था। शरद पवार के पिता गोविंद राव की बारामती नीरा कैनाल कोऑपरेटिव सोसाइटी में एक अधिकारी थे और उनकी मां शारदा बाई भी राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। शारदा पुणे लोकल बोर्ड में निर्वार्चित होने वाली पहली महिला थीं। शरद पवार ने 1958 में अपने कॉलेज के दौरान पुणे के कांग्रेस भवन में जाकर पार्टी की सक्रिय सदस्यता ली थी। कॉलेज के आखिरी वर्षों में उन्होंने वाई.बी. चव्हाण के कहने पर कांग्रेस में सक्रिय रूप से काम करना शुरु कर दिया था।
24 वर्ष की उम्र में शरद पवार कांग्रेस की युवा इकाई के राज्य के अध्यक्ष बन गए थे। केवल 27 साल की उम्र में शरद पवार 1967 में बारामती विधानसभा क्षेत्र से विधायक बन गए थे। पवार इसके बाद महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव बने और वे महाराष्ट्र कांग्रेस विधान सभा दल के सचिव भी रहे। पवार 1972-1974 के बीच महाराष्ट्र की सरकार में गृह, खाद्य और नागरिक आपूर्ति विभाग में राज्यमंत्री बने और 1978 में वे वसंतदादा पाटील की सरकार में उद्योग मंत्री थे और सरकार से बगावत कर वे खुद मुख्यमंत्री बन गए थे।
शरद पवार की बगावत की पूरी कहानी
इंदिरा गांधी के शासन काल के दौरान जो आपातकाल लगाया गया था उसके बाद कांग्रेस में विभाजन हो गया था और दो अलग-अलग धड़े बन गए थे जिनमें एक में इंदिरा गांधी के वफादार थे और दूसरी तरफ खुद को कांग्रेस पार्टी का वफादार बताने वाले लोग थे। यशवंतराव चव्हाण और ब्रह्मानंद रेड्डी ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व को चुनौती दी और ‘रेड्डी कांग्रेस’ का गठन किया था। इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस को कांग्रेस (आई) नाम दिया गया था। शरद पवार को उस समय महाराष्ट्र के प्रभावशाली नेता यशवंतराव चव्हाण का शिष्य माना जाता था और वे ‘रेड्डी कांग्रेस’ में शामिल हो गए थे।
इस बंटवारे का असर 1978 के महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भी पड़ा और किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस के दोनों धड़ों को चुनावों में झटका लगा और 288 सीटों वाली विधानसभा में 99 सीटों पर जीत के साथ जनता पार्टी ने महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई। कांग्रेस (आई) को 62 जबकि दूसरे धड़े कांग्रेस (यू) को 69 सीटें मिलीं। राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता वसंतदादा पाटिल के प्रयासों से कांग्रेस के दोनों धड़े मिल गए और वसंतदादा ने एक बार फिर मार्च 1978 में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस सरकार में शरद पवार को उद्योग मंत्री बनाया गया था।
जुलाई 1978 में मानसून सत्र के दौरान शरद पवार ने 40 विधायकों के साथ वसंतदादा की सरकार छोड़ने का फैसला किया और उनके साथ सुशील कुमार शिंदे, सुंदरराव सोलंके जैसे मंत्रियों ने भी इस्तीफा दे दिया। पवार के विद्रोह के बाद इंदिरा कांग्रेस और रेड्डी कांग्रेस की गठबंधन सरकार अल्पमत में आ गई और मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटील ने इस्तीफा दे दिया। पवार ने सरकार से अलग होकर समाजवादी कांग्रेस की स्थापना की और नई सरकार के लिए जनता पार्टी के नजदीकियां बढ़ानी शुरू कर दी।
इसके बाद जनता पार्टी ने पवार को समर्थन दे दिया और 18 जुलाई 1978 को महाराष्ट्र में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ जिसके मुखिया 38 वर्ष के शरद पवार थे। पवार उस वक्त महाराष्ट्र के सबसे युवा मुख्यमंत्री थे। इसमें गठबंधन में पवार की समाजवादी कांग्रेस, जनता पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और शेतकरी कामगार पक्ष शामिल थे और इसका नाम ‘प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट’ रखा गया था जिसे ‘पुलोद’ भी कहा जाता है। इस घटना के बाद शरद पवार पर आरोप लगे थे कि उन्होंने अपने गुरु की पीठ में ही छुरा घोंप दिया है। जनवरी 1980 में इंदिरा गांधी फिर सत्ता में लौटीं और 17 फरवरी 1980 को शरद पवार की सरकार को बर्खास्त कर महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
चार बार महाराष्ट्र के सीएम बने पवार
1980 में महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस (आई) सत्ता में आ गई और पवार की पार्टी को सफलता नहीं मिली। 1987 में शरद पवार वापस कांग्रेस में लौट आए और जून 1988 से जून 1991 के बीच दो बार ओर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री पद के लिए भी शरद पवार का नाम सामने आया लेकिन सोनिया गांधी के समर्थन वाले पीवी नरसिम्हा राव ने बाजी मार ली। इसके बाद नरसिम्हा राव की सरकार में शरद पवार रक्षा मंत्री के तौर पर शामिल हो गए। 1993 में जब मुंबई में दंगे हुए तो सुधाकरराव नाईक को मुख्यमंत्री पद से हटाकर राव ने पवार को फिर से राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में काम करने के लिए कहा और मार्च 1993 में पवार ने चौथी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।
मुंबई बम ब्लास्ट को लेकर पवार का विवादित बयान
शरद पवार के चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के कुछ दिनों बाद 12 मार्च 1993 को मुंबई 12 बम धमाकों से दहल गई थी। हालांकि, इस दौरान शरद पवार ने कहा था कि मुंबई में 12 नहीं बल्कि 13 बम धमाके हुए हैं और उन्होंने एक मुस्लिम इलाके का नाम भी उन जगहों में जोड़ दिया था जहां असल में धमाके हुए थे। शरद पवार इसके जरिए हिंदुओं को बरगलाकर यह दिखाना चाहते थे कि सिर्फ वे ही पीड़ित नहीं हैं बल्कि मुस्लिम भी इन धमाकों में पीड़ित हैं।
पवार ने बाद में खुद इस बात को माना कि उन्होंने झूठ बोला है और उनका दावा था वे ऐसा कर हिंदुओं को कोई जवाबी कार्रवाई करने से रोकना चाहते थे। उन्होंने एक चैनल के साथ बातचीत में कहा था कि उन्होंने शांति बनाए रखने के लिए लोगों को गुमराह किया था। शरद पवार पर मुख्यमंत्री काल के दौरान भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे और 1995 के विधानसभा चुनावों में शिवसेना-बीजेपी के गठबंधन की जीत के बाद उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया।
विदेशी होने को लेकर सोनिया से विवाद और NCP का गठन
1999 आते-आते कांग्रेस पर सोनिया गांधी की पकड़ मजबूत होने लगी थी और उन्हें चुनावों में कांग्रेस पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की चर्चाएं थीं। इस बीच शरद पवार, पी.ए. संगमा और तारिक अनवर ने मांग कर दी कि सोनिया गांधी विदेश में जन्मीं हैं और उनकी जगह किसी भारतीय को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाए। 15 मई 1999 को कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक बुलाई गई थी और इसमें सोनिया गांधी भी मौजूद थीं। राशिद किदवई ने अपनी किताब ‘सोनिया: ए बॉयोग्राफी’ में लिखा है, “इस बैठक के दौरान पवार ने कहा कि सोनिया गांधी ने पार्टी प्रमुख के तौर पर शानदार काम किया है। उन्होंने कहा कि ‘बीजेपी के आपके (सोनिया) विदेशी मूल का होने के कैंपेन का कांग्रेस के पास कोई जवाब नहीं है। इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए’।”
सोनिया ने इसके बाद अपने पद से इस्तीफा दे दिया लेकिन कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने इसे अस्वीकार कर दिया। किदवई लिखते हैं, “ज्यादातर कांग्रेस नेताओं को भरोसा था कि सोनिया गांधी के अलावा कोई और नेता उन्हें संगठित नहीं रख सकता है। सोनिया गांधी की गैर मौजूदगी में उनके विरोधियों को 6 वर्षों से पार्टी से निष्कासित कर दिया गया।” कांग्रेस से निष्कासन के बाद शरद पवार, पी.ए. संगमा और तारिक अनवर ने मिलकर जून 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) का गठन किया। 1999 के चुनावों के बीजेपी-शिवसेना के गठबंधन को सरकार बनाने से रोकने के लिए पवार ने कांग्रेस से हाथ मिला लिया और कांग्रेस-एनसीपी ने मिलकर राज्य में सरकार बना ली। 2004 में केंद्र में यूपीए की सरकार बनने के बाद शरद पवार केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल हो गए और वे 10 वर्षों तक देश के कृषि मंत्री रहे।
क्यों खुद का पेशाब पीते थे शरद पवार?
शरद पवार ने मोरारजी देसाई के कहने पर शिवाम्बू थेरेपी शुरू की थी जिसमें लोग अपने ही पेशाब पीते हैं। शरद पवार ने अपनी किताब ‘ऑन माय टर्म्स’ में बताया है, “1977 में मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने थे और अपने कार्यकाल में वे महाराष्ट्र के दौरे पर आए। एयरपोर्ट पर मैं भी उनके साथ था। हम लोग शराबबंदी के मुद्दे पर बात कर रहे थे।” पवार ने लिखा है, “उसी समय मेरे सीने में कुछ दर्द हुआ तो मैंने अपना हाथ सीने पर रख लिया। मोरारजी ने कहा कि तुम शिवाम्बू थेरेपी करो। इससे सही हो जाओगे। शिवाम्बू थेरेपी में लोग अपना ही पेशाब पीते है।” कुछ दिनों बाद जब मोरारजी और पवार मिले तो पवार ने कहा, “मैंने आपके बताए मुताबिक शिवाम्बू थेरेपी शुरू कर दी है। अब पहले से आराम है। इतना सुनते ही मोरारजी खुश हो गए।”
क्रिकेट प्रशासक पवार
शरद पवार ने ना सिर्फ राजनीति की पिच पर जमकर बल्लेबाजी की बल्कि क्रिकेट प्रशासक के तौर पर उन्होंने काम किया है। शरद पवार के ससुर सदाशिव शिंदे लेग स्पिनर थे और भारतीय क्रिकेट टीम का हिस्से रहे थे। 2001 में उन्होंने भारत के पूर्व टेस्ट कप्तान अजीत वाडेकर को हराकर मुंबई क्रिकेट एसोसिएशन की बागडोर संभाली थी। पवार बीसीसीआई और आईसीसी के अध्यक्ष भी रहे हैं।