‘हजार हूर नहीं चाहिए, वेद धर्म नहीं त्यागूँगा’: सनातन की समरसता का प्रतीक है संत रविदास का जीवन, सिकंदर लोदी के सामने नहीं झुके

इनके पिता का जूते बनाने का व्यवसाय था। वे प्रभु भक्त थे और सात्विक जीवन बिताते थे इसलिए गाँव के लोग उन्हें भक्त कहकर बुलाते थे।

संत रैदास, रविदास

रामानन्द से रैदास ने जब कहा कि हम चर्मकार जाति के हैं तो रामानन्द ने उत्तर दिया - "प्रभु के यहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं होता।"

वेदों की भूमि भारत को मध्यकाल में विदेशी आततायियों द्वारा भारी मात्रा में लूटा गया, यहाँ की प्राचीन संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास किया गया, बड़े पैमाने पर यहाँ के लोगों का जबरन मतांतरण भी करवाया गया। प्राचीन समय में जिस राष्ट्र को सोने की चिड़िया कहा जाता था, वेद जैसे ज्ञान के स्रोत जिस भूमि से उपजे और इस ज्ञान से विश्व को मार्ग दिखाने वाले विश्वगुरु भारत के हृदय को आक्रांताओं ने अत्यंत बेरहमी के साथ छलनी करने का प्रयास किया। किन्तु कहा जाता है न कि शत्रु कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, हमें अपनी शक्ति पहचानकर डटकर उसका सामना करना चाहिए।

एकता, अखंडता और समरसता का सुंदर उदाहरण है संत रविदास का जीवन

मध्यकाल के उस नाजुक दौर में अनेक संत-भक्त हुए जिन्होंने अपने पौरुष से हताश हुए भारतीय जनमानस को मार्ग दिखाया। ऐसे ही एक सन्त हुए रैदास, जिन्हें सन्त रविदास के नाम से भी जाना जाता है। मध्यकाल के निर्गुण भक्त कवियों में इनका नाम अग्रगण्य है। रविदास का जीवन वास्तव में एकता, अखंडता और समरसता का सुंदर उदाहरण है। संत रैदास ने भारत के अनेक क्षेत्रों की यात्रा करते हुए यहाँ के लोगों को संगठित किया और उन्हें मार्ग दिखाया। अलग-अलग क्षेत्रों में उन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में उन्हें रैदास के नाम से ही जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोग ‘रोहिदास’ और बंगाल के लोग उन्हें ‘रुइदास’ कहते हैं। अनेक पुरानी पांडुलिपियों में इनके रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास नामों का भी उल्लेख है।

वर्तमान समय में अन्य नामों को महत्व न देकर उनके ‘रैदास’ एवं ‘रविदास’ यही दो नाम प्रायः ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। रैदास का जन्म कब हुआ था इस सम्बंध में एक उक्ति प्रचलित है-

“चौदह सौ तैंतीस की माघ सुदी पंदरास,
दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।”

इस उक्ति से स्पष्ट होता है कि संत रविदास का जन्म संवत 1433 वि. को माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। वाराणसी में जन्मे रैदास का जन्म एक चर्मकार परिवार में हुआ था। इनके माता-पिता के संबंध में भी अनेक मत मिलते हैं। आचार्य पृथ्वीसिंह आजाद ने भविष्य पुराण के आधार पर इनके पिता का नाम मानदास माना है किन्तु संप्रदाय में यह नाम प्रचलित नहीं है। इनके पिता का सर्वाधिक प्रचलित नाम रग्घू या रघुनाथ है। इनकी माता का नाम करमा देवी था। हालाँकि, अनेक प्रकाशित ग्रंथों में रैदास की माता के एक और नाम घुरवनिया का भी उल्लेख मिलता है। किन्तु करमा नाम को उनके अनुयायियों ने अधिक अपनाया है। अतः उनकी माता का नाम करमा देवी मानना अधिक समीचीन है।

रैदास ने बताई अपनी जाति, तो ब्राह्मण रामानंद ने कहा…

इनके पिता का जूते बनाने का व्यवसाय था। वे प्रभु भक्त थे और सात्विक जीवन बिताते थे इसलिए गाँव के लोग उन्हें भक्त कहकर बुलाते थे। उनकी माता करमा देवी भी धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं, तथा नित्य प्रभु के भजन में लीन रहती हुई समय बिताती थीं। निश्चित रूप से रैदास को ईश्वर की भक्ति के संस्कार घर से ही मिले। सन्त रैदास जब कुछ बड़े हुए तो उन्हें गुरु की आवश्यकता हुई। चूँकि उस समय पंचघाट के प्रसिद्ध सन्त स्वामी रामानन्द की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी, निर्गुण भक्त कबीर भी उनके ही शिष्य थे – ऐसे में रैदास की इच्छा भी रामानन्द का शिष्य बनने की हुई।

यहीं पर भारतीय समरसता का एक सुंदर उदाहरण भी मिलता है। रामानन्द से रैदास ने जब कहा कि हम चर्मकार जाति के हैं तो रामानन्द ने उत्तर दिया – “प्रभु के यहाँ कोई छोटा-बड़ा नहीं होता।” स्वामी रामानंद ने रैदास को प्रभु राम की भक्ति करने तथा भजन लिखने का आग्रह किया। रामानन्द के जो प्रमुख 12 शिष्य थे रैदास ने उन्हीं में अपना एक स्थान बनाया। रैदास अपने गुरु को स्मरण करते हुए लिखते भी हैं- “रं राम मोहि गुरु रामा दीन्हे, नाहिं इह मंतर बिसराऊं”।

रामानन्द ने सन्त रैदास को दीक्षा देकर उन्हें समाज में समरसता, लोककल्याण, भक्ति जैसे मूल्यों को प्रसारित करने का आग्रह किया। रैदास ने भी अपनी वाणी का उपयोग समाज को निर्गुण भक्ति के मार्ग पर ले जाने के लिए किया। समरसता को बढ़ाने के लिए उन्होंने जाति-पाँति का विरोध किया। उनके पदों में उन्होंने लोगों को ज्ञान का महत्व बताया-

“वेश्या के वशिष्ठ होय, पढ़ देखो पुरान।
रविदास कहै हरि भजन से पदवी पाई महान।।
तनया चंडाल की कोख से पारासर रिषी जो होय।
रविदास कहै प्रभु सुमरि कर, ऊंच कहाय सोय।।”

इन पदों ने निश्चित रूप से तथाकथित निम्न कही जाने वाली जातियों में आत्मविश्वास पैदा किया। हम सभी इस बात को जानते हैं कि प्राचीन भारत में वर्ण-व्यवस्था, जाति-व्यवस्था से सर्वथा भिन्न थी। कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था को कालांतर में जन्मप्रधान जाति व्यवस्था में तब्दील करना एक अलग विषय है किंतु इसका लाभ मध्यकाल के विदेशी आक्रांताओं ने यहाँ के लोगों को बाँटने में हुआ। जिस समय रैदास अपनी वाणी के माध्यम से लोगों को एकता, समरसता का पाठ पढ़ा रहे थे उस समय सिकन्दर लोदी हिंदुओं को बाँटने का कार्य कर रहा था। तथाकथित निम्न जातियों को प्रलोभन देकर उनका मतांतरण करवाया जा रहा था। किंतु रैदास की वाणी का ऐसा प्रभाव हो रहा था कि लाखों की संख्या में उनके अनुयायियों ने प्रलोभन ठुकराया और मतांतरण करने से इनकार किया।

काशी नरेश से लेकर मीराबाई तक बने इनके शिष्य

इनकी ख्याति इस तरह फैली कि इनका भक्ति भाव देखकर काशी नरेश भी उनके शिष्य बन गए, चित्तौड़ के महाराणा उदय सिंह की पत्नी झाली भी इनकी शिष्या हुईं, इसकी जानकारी ‘भक्तमाल’ में मिलती है। संत नाभादास ने लिखा है कि “बसत चित्तौड़ मांझ रानी एक झाली नाम, नाम बिन काम खालि आनि शिष्य भई है।” मीराबाई ने भी रैदास को अपना गुरु स्वीकार किया था, इसके प्रमाण तो स्वयं मीरा की रचनाओं में ही मिलते हैं। संत रैदास ने जीवन भर भारत के भारत-भूमि के अनेक क्षेत्रों में घूमते हुए सामाजिक समरसता के एक सशक्त सेतु का निर्माण किया और हिंदुत्व की रक्षा की। यहाँ हिंदुत्व की रक्षा से आशय है कि हिन्दू भूमि पर जन्मे विभिन्न उपासना पद्धतियों को मानने वाले लोगों को मतांतरण करने एवं उन्हें भ्रमित होने से रोका।

अनेक क्षेत्रों में भ्रमण के क्रम में रैदास जबलपुर क्षेत्र भी पहुँचे। उन दिनों  यह गढ़ा कंटगा के महान गोंडवाना साम्राज्य के नाम से जाना जाता था। कहा जाता है कि तत्कालीन गोंडवाना के महा प्रतापी राजा संग्राम शाह ने संत रविदास का भव्य स्वागत सत्कार किया था। यहाँ इन सभी बातों एक विशेष बात यह है कि रैदास तथाकथित निम्न जाति से आते हैं किंतु उनका सम्मान उस समय के राजाओं ने किया, स्वयं राजपूत घराने से आने वलु मीरा उनकी शिष्या हुईं वस्तुतः मध्यकालीन भारत में समरसता का यह एक बेहद सुंदर उदाहरण है।

रैदास का जीवन आज भी हिंदुओं के लिए एक प्रेरणा है। हम इस बात से नकार नहीं सकते कि आज भी चर्च प्रायोजित आतंकवाद, अनेक विदेशी ताकतें हिंदुओं को बाँटने का लगातार कार्य कर रही हैं, बड़ी संख्या में मतांतरण करवाया जा रहा है। जिस तरह वैश्विक स्तर पर हिंदुओं की आबादी घट रही है वह निश्चित रूप से बड़े प्रश्न खड़े करती है। रविदास के जीवन में भी एक समय ऐसा आया जब उस समय के शासक सिकन्दर लोदी ने इन्हें धर्मान्तरण करने के लिए अनेक प्रलोभन दिए। चूँकि रविदास अगर धर्मांतरण करते तो उनके लाखों की संख्या में अनुयायी भी उनका अनुसरण करते, इसीलिए सिकंदर लोदी ने रैदास को प्रलोभन भी दिया, न मानने पर अनेक प्रकार से दबाव बनाया किन्तु सन्त रैदास ने अपना धर्म नहीं बदला।

रैदास कहते थे – कुरान और हजार हूर नहीं चाहिए

यह बात किसी से नहीं छिपी है कि उस समय हिन्दू जीवन पद्धति को मानने वाले व्यक्तियों को अनेक प्रकार के कर देने होते थे, कई सामाजिक, धार्मिक प्रताड़नाएँ भी मिलती थीं बावजूद इसके रैदास अपने पथ पर अडिग रहे। रैदास ने खुले शब्दों में कहा-

“कुरान बहिश्त न चाहिए, मुझको हूर हजार।
वेद धर्म त्यागूं नहीं, जो गल चलै कटार।”

वास्तव में हिंदुत्व के प्रति अडिग इस संत को मारने की भी धमकी दी गयी होगी। किन्तु गले पर कटार चलने से भी रैदास को डर नहीं था। वे धर्म के लिए अपने प्राण त्यागने वाले संत हुए हैं। वे लिखते हैं-

“मैं नहिं दब्बू बाल गँवारा, गंग त्याग गहूँ ताल किनारा। प्राण तजूँ पर धरम न देऊँ तुमसे शाह सत्य कह देऊँ। चोटी शिखा कबहुँ नहिं त्यागूँ, वस्त्र समेत देह भल त्यागूँ।
कंठ कृपाण का करौ प्रहारा, चाहें डुबावो सिंधु मंझारा।”

वास्तव में रैदास ने सम्पूर्ण जीवन हिंदुत्व के मूल्यों को जीते हुए मध्यकाल की विषम परिस्थितियों में जनता को समरसता का पाठ पढ़ाया। संतों की भूमि कही जाने वाली भारत-भूमि पर जन्मा यह सन्त लगभ 120 वर्षों का जीवन जीने के बाद इस भौतिक संसार से प्रस्थान कर गया।

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