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प्रजनन दर बढ़ाने के लिए जूझ रहे 55 देश, 155 देशों पर मंडरा रहा खतरा: भागवत ने यूं ही नहीं दिया बयान, भारत में भी डरा रहे आंकड़े

भारत में वर्ष 1950 में कुल प्रजनन दर लगभग 6.2 थी जो अब 2.1 से नीचे पहुंच गई है

Shiv Chaudhary द्वारा Shiv Chaudhary
5 December 2024
in मत
2050 तक भारत में TFR घटकर 1.29 तक पहुंच जाएगी

2050 तक भारत में TFR घटकर 1.29 तक पहुंच जाएगी

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने एक सम्मेलन के दौरान देश की कुल प्रजनन दर (TFR) पर टिप्पणी करते हुए 3 बच्चे पैदा करने की सलाह दी है। उन्होंने TFR 2.1 से नीचे जाने को लेकर टिप्पणी करते हुए कहा कि अगर ऐसा होता है तो समाज खुद ही नष्ट होने लगता है। उनकी इस टिप्पणी को लेकर विवाद शुरु हो गया है एक और जहां लोग बच्चे पैदा करने की बजाय महंगाई, बेरोजगारी के संकट पर टिप्पणी कर रहे हैं तो दूसरी ओर लोग दुनिया के कई देशों में बढ़ते जा रहे आबादी कम होने के संकट को देखकर इसे वक्त की जरूरत बता रहे हैं। आज हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि दुनिया में क्या वाकई आबादी कम होने का संकट है और भारत में यह संकट कितना गंभीर हो सकता है।

क्या होता है TFR?

संघ प्रमुख ने अपने भाषण के दौरान कुल प्रजनन दर (TFR) के 2.1 से नीचे जाने को लेकर चर्चा की थी। TFR को सामान्य शब्दों में समझें तो एक महिला अपने पूरे जीवनकाल में जिनते बच्चों की मां बनती है उसे कुल प्रजनन दर कहा जाता है। 2.1 बच्चों की TFR को ‘प्रतिस्थापन स्तर’ कहा जाता है। यानी अगर TFR 2.1 है तो जनसंख्या स्थिर हो जाती है और इसके 2.1 से नीचे जाने पर जनसंख्या का सिकुड़ना शुरू हो जाता है। भारत समेत दुनिया के कई देशों में TFR 2.1 के नीचे जाने पर जनसंख्या का संकट खड़ा हो गया है।

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भारत में जनसंख्या नियंत्रण के कारण घटती TFR

इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ मैट्रिक्स ऐंड इवैल्यूएशन के शोधकर्ताओं द्वारा ‘ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज’ के आंकड़ों द्वारा बताया गया था कि भारत में वर्ष 1950 में कुल प्रजनन दर लगभग 6.2 थी। एक अन्य वेबसाइट statista के मुताबिक, वर्ष 1950 में भारत का TFR 5.9 था। भारत द्वारा आजादी के बाद से ही जनसंख्या को नियंत्रित करने के उपाय शुरू कर दिए गए थे।

भारत 1950 के दशक में राज्य द्वारा प्रायोजित परिवार नियोजन कार्यक्रम अपनाने वाले पहले विकासशील देशों में से एक बन गया था। 1952 में जनसंख्या नीति समिति और 1956 में केंद्रीय परिवार नियोजन बोर्ड की स्थापना की गई थी। इस बोर्ड का प्रमुख उद्देश्य नसबंदी से जुड़ा था। 1976 में भारत ने पहली राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की घोषणा की थी। वहीं, 2000 की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति में वर्ष 2045 तक स्थिर जनसंख्या के लक्ष्य को प्राप्त करने का उद्देश्य तय किया गया था।

जनसंख्या नियंत्रण के लिए किए गय उपायों से भारत की TFR में लगातार कमी होती रही है। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) 2015-16 के मुताबिक, भारत में TFR 2.2 हो गया था। अगले कुछ वर्षों में इसमें और भी कमी हुई और NFHS, 2019-21 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में TFR 2.0 पर पहुंच गया जो प्रतिस्थापन स्तर से भी कम था। इसके भविष्य में और भी कम होने का अनुमान है। द लैंसेट की स्टडी के मुताबिक, 2050 तक भारत में TFR घटकर 1.29 तक पहुंच जाएगी और 2050 तक हर पांच में से एक भारतीय बुजुर्ग होगा।

दुनिया के कई देशों में आबादी का संकट

घटती आबादी का संकट सिर्फ भारत के लिए ही परेशानी नहीं है बल्कि दुनिया भर के अधिकतर देशों के लिए यह संकट बन सकता है। ‘द लैंसेट’ में प्रकाशित अध्ययन में दावा किया गया है कि वर्ष 2,050 तक 3/4 देशों (204 में से 155) में अपनी मौजूदा जनसंख्या को बनाए रखने के लिए पर्याप्त प्रजनन दर नहीं होगी। यानि इनका TFR 2.1 से नीचे चला जाएगा।

अध्ययन में आने वाले समय में हालातों के और ज़्यादा खराब होंने का दावा किया जा रहा है। बताया गया कि यह संख्या वर्ष 2,100 बढ़कर 97% फीसदी देशों तक पहुंच जाएगी यानि 204 में से 198 देशों में प्रजनन दर जनसंख्या को बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं रह जाएगी।

वहीं, संयुक्त राष्ट्र (UN) की ‘वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रोसपेक्ट्स -2024’ रिपोर्ट में बताया गया है कि 2080 के दशक तक दुनिया की आबादी अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंच जाएगी। इस दौरान यह 2024 के 8.2 अरब से बढ़कर तब 10.3 अरब तक पहुंच जाएगी। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि इसके बाद दुनिया भर की जनसंख्या घटना शुरू हो जाएगी और सदी के अंत तक घटकर 10.2 अरब रह जाएगी।

UN की इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2024 से पहले ही दुनिया के 63 देशों या क्षेत्रों की आबादी चरम पर पहुंच चुकी है। इनमें चीन, जर्मनी, जापान और रूस जैसे देश शामिल हैं। इन देशों की आबादी के अगले 30 वर्षों में 14% तक घटने का अनुमान जताया गया है। मौजूदा समय में चीन, इटली और स्पेन जैसे दुनिया के 1/5 देशों में प्रजनन दर ‘अल्ट्रा लो’ लेवल पर पहुंच गई है जिसका TFR 1.4 से भी कम है।

जनसंख्या बढ़ाने के लिए दुनिया में नीतियां

यूएन की एक अन्य रिपोर्ट ‘वर्ल्ड पॉपुलेशन पॉलिसीज 2021’ में बताया गया है कि 2019 तक वैश्विक स्तर पर लगभग तीन चौथाई सरकारों के पास प्रजनन क्षमता से संबंधित नीतियां थीं। इनमें से 55 सरकारों का लक्ष्य प्रजनन क्षमता बढ़ाना था और 19 का प्रजनन क्षमता के मौजूदा स्तर को बनाए रखने पर था। जिनमें से 18 देशों में जन्म दर प्रति महिला औसतन 1.5 से भी कम थी।

दुनिया के कई देशों में जन्म दर को बढ़ाने के लिए लोगों के लिए कई योजनाएं और प्रस्ताव लाए गए हैं। रूस ने तो आबादी बढ़ाने के मकसद से ‘सेक्स का मंत्रालय’ ही बना दिया है। इसमें तमाम तरह के सुझाव दिए गए हैं जिनमें रात को लाइट काटना और महिलाओं के लिए पैसा देना जैसी चीजें शामिल हैं।

हंगरी में सरकार ने 4 बच्चों के बाद आयकर में छूट देने और घर खरीद के लिए विशेष ऋण देने की योजनाएं शुरू की हैं। चीन में घटती आबादी के संकट से निपटने के लिए सरकार ने 2021 के बाद से कर कटौती, लंबी मातृत्व छुट्टी और आवास सब्सिडी जैसे कई प्रोत्साहनों की शुरुआत की है। दुनिया के तमाम देश नगद पैसे, सब्सिडी, छुट्टियां जैसी चीजों के जरिए अपनी आबादी को बढ़ाने की कोशिश में लगे हैं।

भारत के लिए और बड़ा है संकट

भारत के लिए मौजूदा समय में आबादी का संकट बेशक बड़ा नहीं दिख रहा है लेकिन वो वक्त ज्यादा दूर नहीं है जब भारत के लिए भी बूढ़ी होती आबादी का संकट पैदा होने जा रहा है। भारत के लिए संकट सिर्फ आबादी कम होने का नहीं है बल्कि विभिन्न धर्मों की आबादी अलग-अलग दर से बढ़ने का भी है। 1951 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, देश में तब हिंदुओं की आबादी 30.3 करोड़ थी और मुस्लिमों की आबादी 3.5 करोड़ थी। वहीं, 2011 तक यह आबादी बढ़कर क्रमश: 96.6 करोड़ और 17.2 करोड़ हो गई।

इन आंकड़ों को अलग नजरिए से देखें तो हिंदुओं की हिस्सेदारी 1951 में 84.5 प्रतिशत से घटकर 2011 में 79.8 प्रतिशत हो गई। इस दौरान, सिखों की हिस्सेदारी 1.9 प्रतिशत से घटकर 1.7 प्रतिशत हो गई जबकि जैन समुदाय की हिस्सेदारी 0.5 प्रतिशत से घटकर 0.4 प्रतिशत हो गई। वहीं, दूसरी ओर देश में मुस्लिमों की हिस्सेदारी में बढ़ोतरी दर्ज हुई है। दूसरी ओर, भारतीय जनसंख्या में मुसलमानों की यह हिस्सेदारी 1951 में 9.9 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 14.2 प्रतिशत हो गई है।

ईसाइयों की जनसंख्या में भी इस दौरान बढ़ोतरी दर्ज की गई है इस अवधि में ईसाई जनसंख्या 2.2 प्रतिशत से बढ़कर 2.3 प्रतिशत हो गई। हालांकि, ये आंकड़े कितने सही हैं इसमें जरूर पशोपेश की स्थिति है क्योंकि भारत में ईसाई मुख्य रूप से वे लोग हैं जो अनुसूचित जातियों से ईसाई धर्म में परिवर्तित हुए हैं और वे आरक्षण का लाभ लेते रहने के लिए ईसाई धर्म को अपने धर्म के रूप में उल्लेख नहीं करते हैं।

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक, 1950 से 2015 के बीच भारत में हिंदू आबादी की हिस्सेदारी 7.82 प्रतिशत घटी है और इस अवधि में मुस्लिम आबादी की हिस्सेदारी में 43.15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इन आंकड़ों के मुताबिक, पारसी और जैन को छोड़कर अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों की आबादी में इन 65 वर्षों में 6.58 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है।

जनसंख्या दोगुनी रफ्तार (1, 2, 4, 8, 16, 32) से बढ़ती है तो आने वाले दशकों में यह भारत की demography के लिए बड़े संकट की स्थिति भी बन सकती है। ये आंकड़े सिर्फ भारत में रहने वाले और जनसंख्या में भाग लेने वाले मुस्लिमों के हैं। इसके अलावा भारत के विभिन्न राज्यों में बड़ी संख्या में अवैध घुसपैठिए भी हैं जिनमें लगभग सभी मुसलमान हैं। ये लोग सामान्यत: जनगणना का हिस्सा नहीं बनते हैं लेकिन demography बदलने में उनकी बड़ी भूमिका रहती है। अवैध घुसपैठियों की संख्या छोटी नहीं है बल्कि भारत में वे करोड़ों में हैं। भारत के लिए कम होती जनसंख्या ही मुद्दा नहीं है बल्कि हिंदुओं की घटती जनसंख्या भी बड़ी समस्या है।

demography के बदलने से सार्वजनिक तौर पर टकराव की स्थिति पैदा हो रही है, भारत में कई जगहों पर इसे लेकर ना सिर्फ प्रदर्शन हुए हैं बल्कि चुनाव के दौरान भी demography एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है। झारखंड के हालिया चुनाव में भी अवैध घुसपैठ एक बड़ा मुद्दा रहा था। भारत को ना सिर्फ आबादी के बूढ़े होने का संकट का सामना करना है बल्कि demography को लेकर भी देश के सामने बड़ी चिंता है। मोहन भागवत के बयान के लोग अलग-अलग मायने निकाल रहे हैं लेकिन आबादी से जुड़े जो तथ्य हमारे सामने हैं उन्हें तो कतई नकारा नहीं जा सकता है। भारत को इससे जुड़ी समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने ही होंगे।

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